— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
पूरा देश वैश्विक कोरोना महामारी के कारण अपार जन और धन की हानि की असह्य वेदना झेल रहा है। देश की सरकार और उसका प्रशासन लाखों लोगों के जीवन को बचाने में बुरी तरह विफल रहा है और सरकार की अनुपस्थिति आम बात हो गयी है। ऐसे नाजुक वक्त में केंद्र और पश्चिम बंगाल की सरकारें महामारी और यास तूफान जैसी प्राकृतिक विपदा से निपटने के बजाय राजनीतिक संघर्ष में फंसी हैं और एक दूसरे के विरुद्ध आरोप- प्रत्यारोप में संलग्न होकर जनता के प्रति दुहरी विपदा में अपने शासकीय दायित्वों को भूल गयी हैं।
केंद्र सरकार और केंद्र में सत्तासीन होने के कारण भारतीय जनता पार्टी को तो और भी जिम्मेदारी से व्यवहार करना चाहिए लेकिन लगता है उसने 2019 में मोदी को मिले जनादेश को अंतहीन स्वेच्छारिता का लाइसेंस मान लिया है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा संघीय भावना का राग अलापते नहीं थकती थी, पर अब वह इससे उलट राह पर चल रही है। विपक्षी सरकारों को गिराने में अस्थिर करने या जिस राज्य में चुनाव जीतने में वह नाकाम रहती है वहां राजनीतिक तोड़-फोड़ करने से लेकर उस राज्य सरकार को परेशान करने में कोई गुरेज नहीं करती।
पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव के विरुद्ध केंद्र सरकार की कार्रवाई को, स्वाभाविक ही, संघीय व्यवस्था की भावना के विरुद्ध उठाये गए कदम के रूप में देखा जा रहा है। कई आला पूर्व नौकरशाहों ने केंद्र के सलूक पर सवाल उठाये हैं।पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलपन बंद्योपाध्याय को केंद्र सरकार के आदेश के द्वारा जिस प्रकार पश्चिम बंगाल से वापस बुलाने का आश्चर्यजनक निर्णय आया और बंद्योपाध्याय ने केंद्र सरकार के द्वारा तीन महीने के सेवा विस्तार के बावजूद 31 मई को इस आदेश को न मानते हुए मुख्य सचिव के पद से त्यागपत्र दे दिया तथा इसके तुरंत बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें तीन साल के लिए मुख्यमंत्री का मुख्य सलाहकार बना दिया!
यह सब एक घटना या एक विवाद के कारण हुआ। केंद्र सरकार का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा पश्चिम बंगाल में यास तूफान के मद्देनजर बुलाई गई समीक्षा मीटिंग में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तथा मुख्य सचिव ने भाग नहीं लिया। दूसरी ओर ममता बनर्जी का कहना है कि वह प्रधानमंत्री से मिलकर तूफान-पीड़ित इलाकों के अपने पूर्व-निर्धारित हवाई सर्वेक्षण के लिए चली गयी थीं।
इस प्रकरण के बाद भारतीय लोकतंत्र में शासन और प्रशासन के कार्य करने के तरीके और उनके बदलते संबंधों पर गंभीर सवाल फिर से उठ गया है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन अर्थात् राजनीतिक कार्यपालिका को नीति निर्माण तथा वैधानिक निर्णय लेने का अधिकार और प्रशासन अर्थात् स्थायी कार्यपालिका के द्वारा नीति निर्माण में सहायता तथा नीतियों और निर्णयों को लागू करने की वैधानिक जिम्मेदारी होती है! दोनों संविधान के प्रावधानों और नियम-कानून के अंतर्गत अपना कार्य करते हैं। भारत में देश का सर्वोच्च संविधान शासन और प्रशासन दोनों के अधिकार तथा कार्य सीमा तय करता है। अतः प्रशासन, जिसे नौकरशाही भी कहते हैं, संविधान और कानून से बंधा होता हैं और नौकरशाह सरकारी सेवा में अवकाश तक अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों का नियमानुसार निर्वहन करता है।
इस प्रकार नौकरशाही की प्रतिबद्धता संविधान और कानून के प्रति होती है, न कि सरकार के विभिन्न राजनीतिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के प्रति। सत्तारूढ़ दल या विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध नौकरशाही अधिनायकवाद, फासीवाद या सर्वसत्तावादी राज्य की विशेषता होती है। सिद्धांतत: लोकतंत्र में प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा नहीं होती है बल्कि एक निष्पक्ष तथा तटस्थ नौरकशाही की व्यवस्था होती है।
भारत की वर्तमान नौकरशाही ब्रिटिश औपनेवेशिक काल की देन है किंतु स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण नौकरशाही की नियुक्ति प्रक्रिया तथा उसकी भूमिका बदल गयी है! तीनों संघीय, केंद्र तथा प्रांतीय सेवाएं संघ तथा प्रांतीय सरकारों के नियमों व सेवा शर्तों से बंधी होती हैं। अत: सामान्यतः नौकरशाही को राजनीति से दूर एक तटस्थ संस्था के रूप में देखा जाता है। यद्यपि नौकरशाही की कार्यप्रणाली को लेकर विवाद रहा है और राजनीतिक दलों, खासकर सत्तारूढ़ दल तथा सरकार के उच्च व प्रभावशाली पदों पर बैठे व्यक्तियों के प्रति उनकी निष्ठा के कारण उनकी तटस्थता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। और तो और, नौकरशाही के राजनीतिकरण का भी गंभीर आरोप लगता रहा है!
कभी लौह नौकरशाही की उसकी छवि अब कबके टूट चुकी है। अब भारतीय संदर्भ में उस नौकरशाही की अवधारणा की तो बात करना ही बेमानी है, जिसे जर्मन समाजशास्त्री मैक्सवेबर ने आदर्श माना है। इस प्रकरण में भी घटनाक्रम को समझने से कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं। मसलन 31 मई को 1987 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अलपन बंद्योपाध्याय पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव के पद से 31 मई को अवकाश ग्रहण करने वाले थे। किंतु केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से बातचीत करके उन्हें तीन महीने का सेवा विस्तार दे दिया अर्थात बंद्योपाध्याय तीन महीने तक मुख्य सचिव बने रहते।
दूसरी बात, जब उपरोक्त घटना 28 मई को घटी, तो तुरंत केंद्र सरकार ने मुख्य सचिव बंद्योपाध्याय को दिल्ली वापसी का मार्चिंग आदेश थमा दिया और उन्हें सोमवार 31 मई को सुबह 10 बजे दिल्ली में रिपोर्ट करने के लिए कहा गया अर्थात् मुख्य सचिव को तीन महीने के बंगाल में सेवा विस्तार की जगह केंद्र सरकार में सेवा देने का आदेश। इससे साफ हो गया कि इस आदेश के पीछे प्रधानमंत्री मोदी जी की नाराजगी थी, और मानो सजा के रूप में दिल्ली में सेवा देने का बुलावा था।
केंद्र सरकार के आदेश को न मानते हुए अलपन बंद्योपाध्याय ने मुख्य सचिव पद से 31 मई को त्यागपत्र दे दिया और उसके तुरंत बाद बंगाल की सरकार ने उनको तीन साल के लिए मुख्यमंत्री का मुख्य सलाहकार नियुक्त कर दिया।
अब इस पूरे प्रकरण में नौकरशाही के राजनीतिकरण की तस्वीर तो साफ होती ही है, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि लोकतांत्रिक सरकार के राजनीतिक पदों पर बैठे व्यक्तियों ने नौकरशाहों को व्यक्तिगत इच्छा के अनुरूप कार्य करनेवाला सेवक समझ रखा है। जब चाहा सेवा-विस्तार दे दिया और जब चाहा मार्चिंग ऑर्डर दे दिया। इतना ही नहीं, यदि नौकरशाहों के ट्रांसफर या पदोन्नति के मामलों का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि एक तरफ अपने चहेते नौकरशाहों को मुंहमांगी मुराद की तरह अनुकूल व महत्त्वपूर्ण पदों पर ट्रांसफर किया जाता है और जिनसे किसी कारण से नाराज़गी हो जाए तो उन्हें सजा के तौर पर महत्त्वहीन पदों पर भेज दिया जाता है।
इस तरह के व्यक्तिगत आग्रह और दुराग्रह पर आधारित कार्यप्रणाली के कारण नौकरशाहों में कानून और नियमों की जगह राजनीतिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के प्रति निजी वफादारी से काम करने की प्रवृत्ति पनप जाती है और अपने सियासी आकाओं के प्रति भक्ति की प्रतियोगिता आला नौकरशाहों में शुरू हो जाती है। फिर निष्पक्ष नौकरशाही एक कल्पना भर रह जाती है।
एक संघीय व्यवस्था में यह अपेक्षा रहती है कि संघ (केंद्र) तथा राज्य सरकारें संविधान के द्वारा प्रदत्त अधिकारों के अनुरूप और संविधान द्वारा बताई गई मर्यादा में रहकर काम करेंगी। भारत में तीन प्रकार की सेवाएं हैं – अखिल भारतीय सेवा, केंद्रीय सेवा तथा प्रांतीय सेवा। मूलतः अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को लेकर संघ तथा राज्य सरकारों के बीच कई बार तनाव की स्थिति बन जाती है, खासकर तब जब केंद्र और राज्य में अलग अलग दल की सरकार हो। अखिल भारतीय सेवाओं में नियुक्ति भी संघीय लोक सेवा आयोग के द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिए की जाती है और राज्यों में उन्हें तैनात किया जाता है। एक बार राज्य कैडर के कारण राज्य में नियुक्ति होने के बाद वे राज्य सरकार के अधीन कार्य करते हैं किंतु संघ सरकार के द्वारा उन्हें संघ में सेवा के लिए बुलाया जा सकता है अर्थात राज्य में कार्य करने के कारण ऐसे नौकरशाहों पर कोई भी अनुशासनात्मक कार्रवाई का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है।
इस तरह से राज्य के मुख्य सचिव के ऊपर केंद्र सरकार की कार्रवाई वैधानिक दृष्टि से भी गलत दिखाई देती है। अब जबकि बंद्योपाध्याय ने तीन महीने के सेवा विस्तार को अस्वीकार करते हुए मुख्य सचिव के पद से ही अपने कार्यकाल के अंतिम दिन बाध्य होकर त्यागपत्र दे दिया है तो अब केंद्र सरकार के द्वारा उन्हें मीटिंग से अनुपस्थित रहने के लिए तीन दिन का कारण बताओ नोटिस दिया जाना शुद्ध रूप से राजनीति प्रेरित बदले की कार्रवाई लगती है।
वस्तुतः प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से अपनी राजनैतिक लड़ाई में नौकरशाहों को बलि का बकरा बनाकर नौकरशाही को नुकसान पहुँचा रहे हैं। पहले भी चुनाव के दौरान किसी न किसी बहाने पश्चिम बंगाल के कई नौकरशाहों के खिलाफ राजनीतिक कारणों से चुनाव आयोग के द्वारा कार्रवाई कराई गयी। इससे नौकरशाहों, खासकर ईमानदार अधिकारियों का मनोबल टूटता है और बेईमान व भ्रष्ट अधिकारियों को राजनीतिक पदों पर आसीन लोगों के इशारे पर काम करके अवांछनीय लाभ उठाने का मौका मिलता है।
इस मोदी बनाम ममता की राजनीतिक लड़ाई में ईमानदार छवि वाले आईएएस अधिकारी अलपन बंद्योपाध्याय के साथ जो हो रहा है वो प्रशासन में ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करनेवाले तमाम अधिकारियों के लिए हतोत्साहित करनेवाली घटना है। वैसे ही देश की नौकरशाही में ईमानदार अधिकारी धीरे-धीरे एक प्रकार से लुप्त होते जा रहे हैं!
विगत वर्षों में प्रशासनिक सेवा के कई युवा तथा ईमानदार अधिकारियों ने सरकार और नेताओं की राजनीतिक दखलंदाजी से तंग आकर त्यागपत्र दे दिया। नौकरशाही में जातिवाद, भाई भतीजावाद भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, सरकारी दल की भक्ति और संविधान व नियम कानून की अवहेलना बहुत आम बात हो गई है! पिछले कुछ सालों में नौकरशाही में केंद्र में सत्तासीन दल की नीतियों के कारण साम्प्रदायिकता बहुत बढ़ी है! पीएमओ के हाथों में सारी शक्तियों का सिमटते जाना प्रशासनिक निपष्क्षता और राजनीतिक तटस्थता तथा संघवाद के लिए खतरे की घंटी है। ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव के साथ जो कुछ हुआ और हो रहा है वह बहुत हैरानी का विषय भले न हो, चिंता का विषय तो है ही।