दोष मूर्ति की पूजा में नहीं है, दोष ज्ञानहीन पूजा में है। यदि मूर्ति का अर्थ प्रतिमा लिया जाए तो मैं मूर्तिभंजक हूं । यदि मूर्ति का अर्थ ध्यान करने अथवा श्रद्धा प्रकट करने या स्मरण कराने का साधन लिया जाए तो मैं मूर्तिपूजक हूँ। मूर्ति का मतलब केवल आकृति नहीं है।
बुद्धि का प्रयोग किये बिना, सारासर का विवेचन किए बिना, अर्थ की छानबीन किए बिना, “वेद“ में जो कुछ लिखा है उस सबको मान लेना मूर्तिपूजा है, बुतपरस्ती है, अतः त्याज्य है।
अंधविश्वास मात्र बुतपरस्ती अथवा निंद्य मूर्तिपूजा है, जो हर तरह के रिवाज को धर्म मान लेते हैं वे निंद्य मूर्तिपूजक हैं। अतः ऐसी जगह मैं मूर्तिभंजक हूँ। कोई भी मुझसे शास्त्र के प्रमाण देकर असत्य को सत्य, कठोरता को दया और वैर-भाव को प्रेम नहीं मनवा सकता। इसलिए इस अर्थ में मूर्तिभंजक हूँ। कोई मुझे द्वयर्थक या क्षेपक श्लोक उद्धृत करके अथवा धमकी देकर अन्त्यजों का तिरस्कार या त्याग करना या उनको अस्पृश्य मानना नहीं सिखा सकता और इसलिए मैं अपने को मूर्तिभंजक मानता हूँ। मैं माँ बाप की अनीति को भी अनीति की तरह देख पाता हूँ और इस देश पर अथाह प्रेम होते हुए भी इसके दोषों को देखकर उन्हें सबके सामने रख सकता हूँ और इसलिए मैं मूर्तिभंजक हूँ।
मेरे मन में वेदादि के प्रति पूरा पूरा और स्वाभाविक आदरभाव है। मैं पाषाण में भी परमेश्वर को देख सकता हूँ । मेरा मस्तक साधु पुरुषों की प्रतिमाओं के प्रति अपने आप झुक जाता है इस अर्थ में अपने को मूर्तिपूजक मानता हूँ।
इसका अर्थ यह है कि गुण दोष विशेष रूप से बाह्य कार्य की अपेक्षा आंतरिक भाव में होता है ।
दोष मूर्ति की पूजा में नहीं है, दोष ज्ञानहीन पूजा में है।
03 मई 1925
स्त्रोत: संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड: 27