— रमाशंकर सिंह —
1975 में आपातकाल घोषित होते ही संयोगवश जो प्रतिपक्षी पुलिस की गिरफ्तारी में नहीं आ पाये और इतना समय पा नेता कार्यकर्त्ता सके कि अपने-अपने ठिकानों से भागकर कहीं अन्य स्थानों पर छिपकर रह सके और प्रतिरोध की गतिविधि चला सकें, उनमें प्रमुखतः कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फ़र्नांडीस, नानाजी देशमुख आदि थे।
कई हमारे जैसे कार्यकर्ता भी थे जो आपातकाल का विरोध भूमिगत रहते हुए करना चाहते थे। मैं भी दिल्ली के उन चार पाँच विपक्षी युवा कार्यकर्ताओं में था जो तत्कालीन स्वतंत्र पार्टी के श्री मेवाराम आर्य और कांग्रेस (संगठन) के श्री शांति देसाई के साथ ‘त्रिमूर्ति बनकर पुरानी दिल्ली की खारी बावली स्थित मसालों के बड़े बड़े गोदामों के बीच अपना कार्यालय बनाकर भूमिगत काम करने लगे।
आपातकाल में सेंसरशिप लागू थी। अख़बार कुछ लिख नहीं सकते थे। असल सामाजिक राजनीतिक और प्रतिरोध की ख़बरें आने का सवाल ही नहीं था। तब भी अधिकांश पत्रकार संपादक सत्ता की गोदी में बैठ चुके थे और जैसा कि लालकृष्ण अडवाणी ने फिर बाद में लिखा कि “आदेश झुकने का था लेकिन सम्पूर्ण मीडिया घुटनों के बल रेंगने लगा था।”
शुरू में हमारा एक ही काम था कि जहाँ जहाँ विरोध-प्रतिरोध हो रहा था उसे उजागर करने के लिए बुलेटिन छापें और उन्हें यथा संभव ऐसी जगहों व लोगों तक पहुचायें जो उसकी प्रतियां छपवा कर बटवायें। तब प्रतियों को बनाने का काम हाथ से चलने वाली साइक्लोस्टाइल मशीनों से ही संभव था क्योंकि किसी भी ट्रेडल छपाई मशीन या अन्य प्रेस में जाते ही पकड़े जाने की सौ फीसदी सम्भावना थी। बाद में जब बुलेटिनों की मांग बढ़ने लगी तो ट्रेडल छपाई मशीन पर जाना ही पड़ा और दो तीन महीनों में ही करीब तीन- चार मशीनों पर पुलिस का छापा पड़ा प्रेस कर्मचारी या मालिक पकड़ लिए गए और हमें भी अपने ठिकाने व प्रेस लगातार बदलने पड़े।
हर बार बदली वेशभूषा, कभी बढ़ी हुई दाढ़ी, कभी फ्रेंच कट दाढ़ी से हम अपने को यथासंभव छिपा सकते थे। खैर सबके बीच में हमने अलग-अलग स्रोतों से अन्य भूमिगत नेताओं, कार्यकर्ताओं से संपर्क करने, आपस में समन्वय के काम को शुरू कर दिया था। अत्यंत सीमित साधनों के कारण भी प्रतिरोध का हमारा काम उतना नहीं बढ़ पा रहा था जितनी हमारी क्षमता थी।
सोशलिस्ट नेता श्री लोकनाथ जोशी व हिंद मजदूर सभा के महेंद्र शर्मा दिल्ली में ही आपस में मिलते थे। उनके मिलने की जगह कनॉट प्लेस के एक ऐसे कहवाघर में होती थी जहाँ सामान्य रूप से बहुत ही कम बल्कि हल्की रोशनी रहती थी जिसके अंधेरे आखिरी कोने में दोनों लोग बैठते थे। कभी-कभी मैं वहाँ भी जाता था जिससे नई सूचनाएं मिल सके।
एक दिन जोशी जी ने खबर दी कि ऐसी सूचनाएं मिली हैं कि कर्पूरी जी दिल्ली आ चुके हैं। कर्पूरी जी द्वारा नेपाल भारत सीमा से भूमिगत आंदोलन के समन्वय की ख़बरें हमें पहले ही मिलती रहीं थीं तो उनसे मिलने की तीव्र उत्कण्ठा हो गई। दो तीन दिन में सूत्र ने मेरी व लोकनाथ जी की कर्पूरी जी से भेंट निश्चित कर दी। लोकनाथ जी अपनी तीखी तलवार कट मूछों, शानदार सूट बूट जैकेट में और अंगुलियों में जलती सिगरेट से वैसे भी प्रतिपक्षी नेता कहीं से भी नहीं लगते थे। मैं गन्दी सी जींस, चप्पल और ऐंचकतानी कमीज में सड़क छाप सामान्य मामूली सा दीखता था जिस पर किसी की नजर वैसे भी आकर्षित न हो।
काली पीली टैक्सी से हम दूर का एक चक्कर लगाते हुए कनॉट प्लेस के एकदम पास ही किसी सेठ के बंगले के बाहर उतरे और वहां से पैदल बंगले के भीतर स्थित सर्वेट क्वाटर्स के बाहर पहुंचे जहाँ एक छोटे से नीम के पेड़ के नीचे, नंगी खटिया पर कर्पूरी ठाकुर आँखे बंद किये पड़े मिले। ठीक से देखा तो पहचाने गए अन्यथा लंबी बढ़ी दाढ़ी व केश, पानी पीने के लिए एक कमंडल खटिया के नीचे रखा था। गाँधी जी जैसी धोती की लंगोटी और ऊपर आधी बाँहों की कई जेब वाली बंडी में कर्पूरी तेज बुखार में तपते हुए लाल हो रखे थे। उनका हाथ पकड़ा तो एहसास हुआ कि बुखार तो वास्तव में ज्यादा है। अभी तक कोई डॉक्टरी इलाज संभव नहीं हो सका था। जिसके घर में आश्रय था वो एक गरीब घरेलू नौकर था सेठ के बंगले पर। कर्पूरी जी उसके कमरे में भी नहीं ठहरे थे जिससे उसके परिवार को परेशानी न हो। दिन-रात बाहर ही रहना, सोना। गर्मियों के दिन थे, तेज सख्त गर्मी और नीम के उस पेड़ के नीचे आधी छाँव आधी धूप ऊपर से तपता बुखार। कर्पूरी जी उठने की हालत में भी नहीं थे। लोकनाथ जोशी और मैंने तत्काल तय किया कि कर्पूरी जी को फ़ौरन शिफ्ट कर डॉक्टरी सुविधा दी जाएँ, पर कहा शिफ्ट हों? लोकनाथ जी के ठिकाने पर संभव नहीं था और मेरा डेरा नई दिल्ली के मोती बाग स्थित एक सरकारी घर में था जहाँ सब
पड़ोसी सरकारी कर्मचारी थे। खैर तय हुआ कि मेरे डेरे ही जायेंगे। जैसे तैसे काली पीली टैक्सी में कर्पूरी जी को डाला गया। मात्र एक झोला उनके साथ था जिसमें एक जोड़ी कुर्ता धोती, एक लोटा, थाली, कुछ दातुनें और एक साबुन व एक चादर बगैरह था।
दवाइओं और उचित आवास व खान-पान से जल्दी ही कर्पूरी जी पूरे स्वस्थ हो गये लेकिन छत के ऊपर ही सुबह शाम घूम सकते थे। बाहर जाना खतरे से खाली नहीं था। पडोसी भी बार बार पूछते कि “बाबा जी आपके पिता हैं? मेरा उत्तर होता कि नहीं” दाऊ जी हैं, इलाज के लिये गाँव से यहाँ आये है।” दो माह पहले ही मेरी पत्नी ने कन्या शिशु को जन्म दिया था- नाम रखा था कनुप्रिया। दिन भर कर्पूरी जी कनुप्रिया को गोद में लेकर खिलाते रहते थे और एक आया की माफ़िक़ सारी देखभाल करते थे।
अब स्वस्थ होकर कर्पूरी जी चिंता करने लगे प्रतिरोध आंदोलन की। जॉर्ज फर्नांडीस से संपर्क करना प्राथमिकता में था और मुझे यही जिम्मेदारी कि कैसे भी जॉर्ज का पता कर मुलाकात कराओ। जॉर्ज की खबर मिली कि अहमदाबाद में हैं। किन्हीं पूर्व कांग्रेसी गवर्नर पटवारी जी के घर में है। रेल की तीसरी श्रेणी में दोनों ठस कर अहमदाबाद गये, दिल्ली के सराय रोहिल्ला स्टेशन से ट्रैन जाती थी जिससे सटा हुआ साथी विजय प्रताप का घर था लेकिन कुछ समय वहाँ विश्राम करने के बजाये कर्पूरी जी अख़बार बिछा कर प्लेटफार्म पर ही लेट गए।
रास्ते भर घर से बांध कर पूड़ियों और अचार ने साथ दिया। तब दौड़कर प्लेटफार्म के नल से पानी पिया जाता था। आज की तरह बोतलबंद पानी नहीं। पर कर्पूरी जी को लोटे में भरकर मैं ले आता था।
अहमदाबाद पहुंच कर पूर्व सूचित पते पर पहुंचे, नहाये, धोये, और फिर कोई आया जो हमें वहाँ ले गया जो पटवारी जी का बंगला था। वहाँ पहुँच कर कुछ इंतजार करना पड़ा और फिर एक लंब, तडंग साधू वेश में जो आये वे ही जॉर्ज फर्नांडिस थे। मुझे वापिस दिल्ली लौटकर अपने उसी काम में जुटना था तो कर्पूरी जी को वहीं छोड़कर दिल्ली आ गया।
कई संस्मरण है, मेरे पहले चुनाव के और उनकी बीमारी के लेकिन स्मारिका में स्थानाभाव के कारण सब लिखना संभव नहीं इसलिए आज इतना ही कि गाँधी की सादगी व सत्याग्रह, डॉ. लोहिया की वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्ष-शीलता की मिट्टी से बने थे कर्पूरी जी।