— बॉबी रमाकांत एवं संदीप पाण्डेय —
सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया, जो भारत की दो में से एक कोविड के टीके बनानेवाली कम्पनी है, के मालिक अडार पूनावाला ने एक ट्वीट कर कहा है कि राज्य सरकारों को टीके बेचने की दर 400 रु. प्रति टीके से घटा कर 300 रु. करके वे सरकार के हजारों करोड़ रुपए बचा रहे हैं और अनगिनत लोगों की जानें। सीरम इंस्टीट्यूट को ऑक्सफोर्ड-एसट्राजेनेका द्वारा शोध कर यह टीका बनाने के लिए दिया गया था। ऑक्सफोर्ड-एसट्राजेनेका ने कह दिया था कि वे इस जीवनरक्षक टीके पर कोई मुनाफा नहीं कमाएंगे क्योंकि इस शोध में 97 प्रतिशत पैसा जनता का लगा था। अडार पूनावाला पहले इसे 1000 रु. प्रति टीका बेचना चाहते थे। सरकार ने 250 रु. की ऊपरी सीमा तय की तो सीरम इसे 210 रु. प्रति टीका बेचने को तैयार हुआ। बाद में इसका दाम घटाकर 150 रु. कर दिया।
अडार पूनावाला ने माना है कि इस दर पर भी वे मुनाफे में हैं। फिर उन्होंने घोषणा कर दी कि 1 मई 2021 से, जब यह टीका 18 से 44 वर्ष की आयु वालों को भी लगने लगेगा, वह केन्द्र सरकार को तो उसी दर पर देंगे लेकिन राज्य सरकारों को 400 रु. पर व निजी अस्पतालों रु. 600 रु. में। निर्यात की दरें अलग होंगी लेकिन मुख्य बात यह है कि पूरी दुनिया में यह टीका भारत में ही सबसे महँगा होगा। काफी हंगामा होने के बाद अब उन्होंने राज्य सरकारों के लिए दर घटाई है।
भारत बायोटेक दूसरी कम्पनी है जो भारत में ही भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान द्वारा शोध पर आधारित टीके का निर्माण कर रही है और पहले उसे 295 रु. में केन्द्र सरकार को बेच रही थी। फिर उसने दाम घटा कर 150 रु. प्रति टीका किया। अब 1 मई से उसने घोषणा की है कि वह राज्य सरकारों को 600 रु. प्रति टीका और निजी अस्पतालों को 1200 रु. में बेचेगी। हो-हल्ला होने पर उसने राज्य सरकारों के लिए 400 रु. की दर तय की है।
अडार पूनावाला के अपने कथन से स्पष्ट है कि टीके को बढ़ी दर पर बेचकर वह जनता के धन का अपव्यय कर रहे हैं और कई लोगों को जीवन से वंचित कर रहे हैं जो बढ़ी दरों पर टीका नहीं खरीद पाएंगे। क्या इस संकट के समय भी उन्हें मुनाफाखोरी वाला रवैया अपनाना चाहिए?
आश्चर्य की बात लगती है कि जिसे न्यायालय ने राष्ट्रीय आपातकाल का समय बताया है उसमें निजी कम्पनियां अपने टीकों की मनमानी दरें तय कर रही हैं। आखिर नरेन्द्र मोदी सरकार ने उनको यह छूट क्यों दी है?
पोलियो और स्माल पॉक्स रोगों का दुनिया से उन्मूलन कैसे हो पाता यदि सरकारों ने टीके निःशुल्क हर गरीब-अमीर देश की जनता तक न पहुंचाए होते? जन स्वास्थ्य की आपातकाल स्थिति में सरकार को महामारी पर नियंत्रण स्थापित करना है तो उसका दायित्व है कि कम्पनियों की मुनाफाखोर प्रवृत्ति पर रोक लगाए और वे न मानें तो उनका राष्ट्रीयकरण कर ले। तब माना जाएगा कि नरेन्द्र मोदी मजबूत प्रधानमंत्री हैं और राष्ट्रवादी नेता हैं।
चूंकि भारत बायोटेक जिस टीके को बना रही है, उसका जरूरी शोधकार्य एक सरकारी संस्थान में हुआ है, संभवतः इसीलिए इसका बौद्धिक संपदा अधिकार सरकार के पास है। शायद इसीलिए सरकार ने एक और कम्पनी हैफकीन को इसी टीके को बनाने की मंजूरी दी है। यदि सरकार के पास इस टीके का बौद्धिक संपदा अधिकार है तो महामारी की वैश्विक आपदा को देखते हुए, प्रधानमंत्री के पास सुनहरा अवसर है कि भारत की दशकों पुरानी वैश्विक फार्मेसी की छवि को नया आयाम दें – वह इस टीके को बनाने का अधिकार भारत और दुनिया के अन्य सभी देशों की कम्पनियों को दे सकते हैं जिससे भारतीय पहल पर अधिक से अधिक जीवन रक्षा हो सके। क्या मोदीजी के पास इतना बड़ा दिल है?
किसान आंदोलन से स्पष्ट हो गया है कि किसानों के नाम पर बनाए गए तीन विवादास्पद कानून असल में पूजीपतियों के हित में हैं और इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री उनको वापस नहीं ले रहे जबकि किसानों को दिल्ली सीमा पर बैठे अब छह महीने हो गए हैं और कोरोना काल में भी वे वापस जाने को तैयार नहीं हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार ने पूंजीपतियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने की व्यवस्था में कुछ आपत्तिजनक परिवर्तन कर दिए हैं। अब कोई भी निजी कम्पनी चुनावी बांड के माध्यम से कितना भी चंदा किसी दल को दे सकती है और देनेवाले की पहचान को गोपनीय रखने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम में बैंक यह जानकारी सार्वजनिक नहीं कर सकते। राजनीतिक दलों को 20,000 रु. से ज्यादा चंदा देनेवाले की पैन कार्ड संख्या सहित पूरी जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है किंतु यदि चंदा चुनावी बांड के माध्यम से दिया जा रहा है तो यह अनिवार्य नहीं है।
पहले कोई कम्पनी अपने पिछले तीन वर्ष के औसत मुनाफे का 7.5 प्रतिशत तक ही राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती थी, किंतु अब यह सीमा हटा ली गई है। ऐसी अनैतिक व अपारदर्शी व्यवस्था के कारण किसानों को शंका है कि अडानी व अंबानी ने बेहिसाब चंदा दिया है जिसकी वजह से मोदी सरकार इतने प्रबल और देशव्यापी विरोध के बावजूद ये तीन कृषि कानून वापस नहीं ले रही है।
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ठीक यही कहानी अब अडार पूनावाला व भारत बायोटेक के साथ दोहराई जा रही है। सीरम इंस्टीट्यूट व भारत बायोटेक को मनमाना मुनाफा कमाने की छूट देने के पीछे कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी को परोक्ष-प्रत्यक्ष लाभ तो मिलेगा ही। हमारे प्रधानमंत्री पहले कह चुके हैं कि वे गुजराती हैं व व्यापार खूब समझते हैं। ऐसा लगता है यही उनका व्यापारिक खेल है जो अब अपने नग्न रूप में सामने आ रहा है। मोदीजी ने इसे कोई छुपाने की कोशिश भी नहीं की है। वे खुलेआम अडानी के हवाई जहाज से चलते हैं और अम्बानी के विज्ञापन में आते हैं। सीरम इंस्टीट्यूट व भारत बायोटेक को उन्होंने सरकार की ओर से 4,500 करोड़ रु. का अनुदान भी दिया है।
दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने सरकार की ज्यादा बदनामी होते देख एलान कर दिया कि यदि अस्पताल जान-बूझ कर आक्सीजन की कमी होने की सूचना बाहर लगाएंगे तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। इसका परिणाम यह होगा कि अब वास्तविक कमी होने पर भी कोई अस्पताल भय के कारण बाहर सूचना नहीं लगाएगा और मरीजों को भ्रम में रखने के लिए मजबूर होगा। योगी आदित्यनाथ ने एक और एलान किया है कि अस्पताल के बाहर आक्सीजन का मास्क लगे हुए मरीज पाए जाएंगे तो जिलाधिेकारी एवं मुख्य चिकित्सा अधिकारी उत्तरदायी होंगे। यानी जब अस्पतालों में जगह नहीं होगी तो आक्सीजन की कमी की वजह से संकट की परिस्थिति में मास्क लगाए जो मरीज अस्पतालों के बाहर मिलेगा अब पुलिस उसे जबरन हटाएगी।
विदेशमंत्री जयशंकर ने दूतावासों से कहा है कि भारत की जो नकारात्मक खबरें बाहर जा रही हैं उसका जवाब दें। काश, वे यह कहते कि दूतावास भारत के लिए और मदद जुटाएं। भारतीय जनता पार्टी इस विषम दौर में भी अपनी छवि की ही ज्यादा चिंता कर रही है। अखबारों को डरा-धमका अपने अनुकूल खबरें छपवा रही है। उदाहरण के लिए, एक खबर का शीर्षक है हरेक 100 संक्रमित में पंजाब-बंगाल में दो मौतें हो रही हैं और उत्तर प्रदेश में एक। भाजपा लाशों पर राजनीति कर अपने को अब भी विपक्षी दलों से बेहतर दिखाने के लिए ही फिक्रमंद है। क्या ऐसी सोच से कभी कोविड की प्रभावशाली रोकथाम की जा सकती है?
हर जीवन अनमोल है तो फिर हर 100 संक्रमितों पर मृत्यु की संख्या क्यों देखी जाए? कुल मृत्यु का आंकड़ा देखें तो पता चलेगा कि महाराष्ट्र, दिल्ली, कर्नाटक और तमिलनाडु के बाद सबसे अधिक कोविड मृत्यु उत्तर प्रदेश में हो रही हैं। मॉडल कोविड रोकथाम का प्रचार करनेवाली उत्तर प्रदेश सरकार यह भी देखे कि महाराष्ट्र, केरल व कर्नाटक के बाद सबसे अधिक कोविड प्रभावित उत्तर प्रदेश में हैं। यदि संक्रमण पर नियंत्रण सफल रहता, स्वास्थ्य व्यवस्था सशक्त की गई होती, स्वास्थ्य निवेश को दस गुना बढ़ाया गया होता, स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में बढ़ोतरी की गई होती और उन्हें सभी श्रम अधिकार सुलभ होते, पोषण और भोजन सुरक्षा हर इंसान को उपलब्ध होती तो कोविड महामारी की चुनौती इस कदर विकराल रूप न ले पाती। अन्य महामारियां जैसे कि शराब व तम्बाकू जनित रोग जिनमें हृदय रोग, पक्षघात, कैंसर, मधुमेह, क्षय रोग, आदि प्रमुख हैं, भी असामयिक मृत्यु का कारण न बनते। पर उत्तर प्रदेश सरकार ने तो पिछले वर्ष तालाबंदी में कुछ हफ्ते बाद ही शराब व तम्बाकू विक्रय को छूट दे दी जबकि शराब व तम्बाकू जनित रोगों के रहने पर, कोविड होने पर गम्भीर परिणाम, मृत्यु तक, होने का खतरा बढ़ जाता है।
अब समय आ गया है यह पूछने का कि कितनी मौतों के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री अपने को उत्तरदायी मानेंगे?