मंदसौर गोलीकांड के चार साल, कब होगा न्याय?

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— सुनीलम —

मंदसौर किसान आंदोलन के चार वर्ष 6 जून 2021 को पूरे हो रहे हैं। 6 जून को पुलिस फायरिंग में शहीद हुए छह किसानों के गांव में बनी मूर्तियों पर ग्रामवासियों द्वारा पुष्पांजलि अर्पित की जाएगी। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति और संयुक्त किसान मोर्चा की ओर से मेधा पाटकर जी श्रद्धांजलि कार्यक्रम में शामिल होंगी।

मंदसौर के शहीद किसानों की स्मृति में 6 जून को देशभर के किसानों द्वारा शहीद किसान स्मृति दिवस मनाया जाएगा। दिल्ली के बॉर्डरों पर तथा देशभर में किसान संगठन शहीद किसानों को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे।

मुख्य सवाल है कि शहीद किसानों को न्याय मिला क्या? किसानों ने समर्थन मूल्य की गारंटी की जिस मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था वह मांग पूरी हुई क्या?

क्या मंदसौर पुलिस फायरिंग के बाद देश में किसानों पर गोलीचालन बंद हुआ?

मंदसौर पुलिस फायरिंग के बाद  13 जून 2017 को मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान की भाजपा  सरकार ने उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जे.के. जैन के नेतृत्व में न्यायिक जांच कमीशन गठित किया था। कमीशन को तीन माह में रिपोर्ट देनी थी। किन परिस्थितियों में पुलिस फायरिंग की गई, क्या पुलिस की फायरिंग जरूरी थी, यदि नहीं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? आदि मुद्दों पर जांच करनी थी। आशंका जताई जा रही थी कि मामले को यों रफा-दफा कर दिया जाएगा। यह आशंका सही साबित हुई। जांच कमीशन ने पुलिस प्रशासन को क्लीन चिट दे दी, जिसका अर्थ यह हुआ कि सरकार ने दोषी अधिकारियों को साफ-साफ बचा लिया।

पुलिस फायरिंग के बाद जांच कमीशन बिठाना तथा कमीशन के माध्यम से फायरिंग की कार्रवाई को जायज ठहराने का चलन देश में बना हुआ है। जांच सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गई है इसलिए आमतौर पर आंदोलनकारी सरकार की जांच का भरोसा नहीं करते हैं। यही कारण है कि मुलतापी के किसानों ने  पुलिस फायरिंग की न्यायिक जांच का बहिष्कार किया था, जिंसमे 24 किसान शहीद हुए थे 150 को गोली लगी थी।

मंदसौर पुलिस फायरिंग को लेकर जांच कमीशन के सामने तमाम पीड़ित किसान तथा आनंद मोहन माथुर जैसे दिग्गज वकील उपस्थित भी हुए थे। लेकिन 9 माह बाद दी गई रिपोर्ट में कलेक्टर स्वतंत्र कुमार सिंह, पुलिस अधीक्षक ओपी त्रिपाठी, जिनको पुलिस फायरिंग के बाद निलंबित कर दिया गया था, के बारे में जांच कमीशन ने टिप्पणी भी की थी कि पुलिस फायरिंग के दौरान नियमों और प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया तथा सरकार का खुफिया तंत्र बहुत कमजोर था। कमीशन ने यह भी स्वीकार किया कि गोलीचालन सीधे भीड़ पर किया गया जबकि आंदोलनकारियों के पैरों पर किया जाना चाहिए था। फिर भी सभी को दोष मुक्त कर दिया गया, वह भी बिना न्यायालय के सामने उपस्थित हुए।

यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि राहुल गांधी ने शहीद किसान परिवारों से मिलकर उन्हें न्याय देने का वायदा किया था। मंदसौर में पीपल्या मंडी की आमसभा में भी  इस आशय  की घोषणा की थी कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर गोलीचालन की फिर से जांच कराई जाएगी तथा मंदसौर पुलिस गोलीचालन के दोषियों की सजा सुनिश्चित कराई जाएगी। लेकिन सर्वविदित है कि कांग्रेस सरकार बनने के बाद 18 फरवरी को  विधायक हर्ष गहलोत के प्रश्न के  जवाब में कांग्रेस सरकार के गृहमंत्री बाला बच्चन ने जवाब दिया कि 6 जून को महू-नीमच रोड पर एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में चलाई गई गोली आत्मरक्षा के लिए तथा सरकार और निजी संपत्ति की सुरक्षा के लिए चलाई थी। जबकि कांग्रेस सरकार बनने के बाद कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण नेता व मंत्री जीतू पटवारी ने जांच पुनः शुरू करने का वायदा किया था। गृहमंत्री बाला बच्चन ने जैन रिपोर्ट का हवाला देकर यह कहा था कि किसानों और अधिकारियों की संवादहीनता तथा स्थानीय प्रशासन ने इसलिए गोलीचालन किया था कि कर्जा मुक्ति और बेहतर मूल्य देने की स्थिति में प्रशासन नहीं था।

शहीद कन्हैयालाल पाटीदार के भाई मधुसूदन पाटीदार तथा अभिषेक पाटीदार, दिलीप पाटीदार एवं अमृतलाल पाटीदार ने भी शहीदों के साथ न्याय नहीं किए जाने के खिलाफ आवाज उठाई थी। चार साल बाद भी पांच शहीद किसान जो गोली से मरे थे तथा एक किसान जिसे पुलिस ने लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला था, उनके हत्यारों को सजा मिलना तो दूर मुकदमे तक दर्ज नहीं हुए हैं। शहीद किसान परिवार न्याय का इंतजार कर रहे हैं।

आइए अब दूसरे राज्यों का हाल देखते हैं।  छत्तीसगढ़ के बस्तर में 12 मई से धरना दे रहे 3 आदिवासियों को पुलिस ने 17 मई को  सिलगेर कैंप के पास मार गिराया था। छत्तीसगढ़ सरकार ने एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट से जांच कराने का आदेश 23 मई को दिया है। इसका अर्थ यह है कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से जांच कराने तक की आवश्यकता तक नहीं समझी है। जिसका अर्थ है कि बस्तर पुलिस फायरिंग की जांच केवल पुलिस फायरिंग को उचित और न्यायपूर्ण ठहराने के लिए की जा रही है।

12 जनवरी 1998 को मुलताई किसान आंदोलन पर फायरिंग हुई थी जिसमें 24 किसान शहीद हुए तथा 150 किसानों को गोली लगी थी। उस फायरिंग की भी न्यायिक जांच सरकार ने कराई थी लेकिन वहां भी गोलीचालन को जायज ठहराकर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को न केवल बचा लिया गया बल्कि उन्हें पदोन्नति देकर उच्च पदों पर आसीन कर दिया गया।

यही तमिलनाडु में 22 मई  2018 को  तूतीकोरिन में हुई पुलिस फायरिंग के मामले में भी हुआ। पूर्व न्यायाधीश अरुणा जगदीशन को जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वहां आज तक न्यायिक जांच पूरी नहीं हो सकी है।

आजादी के बाद देशभर में गोलीचालनों  में एक लाख से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं लेकिन पुलिस फायरिंग के 99 फीसद मामलों में दोषी अधिकारियों को सजा देना तो दूर, उनपर मुकदमे दर्ज तक नहीं किए गए। जबकि अविभाजित आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने गोलीचालन के सभी मामलों में प्रकरण पंजीबद्ध कर न्यायिक प्रक्रिया पूरी करने के आदेश दिए थे। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर स्टे दे दिया। यह हालत तब है जब भारत का संविधान देश के हर नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है तथा भारत राष्ट्र-राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह देश के हर नागरिक को  जान-माल की  सुरक्षा प्रदान करेगा।

शहीदों को न्याय देने का यह मुद्दा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास से भी जुड़ा है, जिसमें अंग्रेजी हुकूमत ने लाखों देशभक्तों को मौत के घाट उतारा था। वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में यह मुद्दा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि केंद्र सरकार, भारतीय जनता पार्टी और हाल ही में भारतीय किसान संघ ने किसान आंदोलनकारियों को राष्ट्रद्रोही और आतंकवादी कहा है। ऐसी स्थिति में भविष्य में टकराव होने पर किसानों को आसानी से निशाना बनाया जा सकता है।

अब तक सरकारें शहीद परिवारों को मुआवजा देकर तथा कभी-कभी आश्रितों को नौकरी देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं, लेकिन शहीद परिवारों को न्याय कभी नहीं मिल पाता। हत्यारे कभी कानून की गिरफ्त में नहीं आते।

यह हालत तब है जब देश में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राज्य में भी मानवाधिकार आयोग गठित किये गए हैं।सैकड़ों मानवाधिकार संगठन भी है। तमाम शहीद परिवार अदालत भी गए लेकिन गोलीचालन के दोषियों को सजा दिलाने में आमतौर पर कामयाबी किसी को नहीं मिलती है। किसी-किसी मामले में सजा मिलती भी है तो दशकों बाद।

उत्तरप्रदेश के मेरठ जिले के हाशिमपुरा में 22 /23 मई 1987 को हुए नरसंहार के तीस साल बाद 31 अक्टूबर 2018 को 16 पीएसी के पुलिसकर्मियों को आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। ऐसे अपवाद न के बराबर हैं। परंतु कभी-कभार उम्मीद पैदा करते हैं।

मुझे लगता है कि पुलिस गोलीचालन के बाद दोषियों को सजा कराने के साथ-साथ निहत्थे, अहिंसक नागरिकों पर पुलिस गोलीचालन पर कानूनी रोक लगाने के विकल्प पर ध्यान देने की जरूरत है।

डॉ राममनोहर लोहिया के जन्मशती वर्ष में राष्ट्र सेवा दल और युसूफ मेहर अली सेंटर के साथ जब मैंने देशभर की यात्रा की थी तब इसे मुख्य मुद्दा बनाया था। लेकिन राजनीतिक दलों से समर्थन नहीं  मिला। जन संगठनों ने भी कोई खास उत्साह नहीं दिखाया।

कुल मिलाकर पुलिस गोलीचालन में शहीद हुए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से लेकर मंदसौर, मुलताई, तूतीकोरिन तथा बस्तर  के शहीद किसानों और उनके परिवारों को न्याय का इंतजार है।

मंदसौर के किसानों का समर्थन मूल्य का सवाल पिछले 6 महीने से देशभर के साढ़े पांच सौ किसान संगठनों द्वारा उठाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि मंदसौर पुलिस फायरिंग के बाद ही अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया गया था, जिसने संयुक्त किसान मोर्चा का गठन कर वर्तमान किसान आंदोलन जारी रखा है, जिसमें एमएसपी की कानूनी गारंटी एक बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।

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