— अभिषेक रंजन सिंह —
हमारे समक्ष जब भी गोवा का नाम आता है तो मन-मस्तिष्क में समंदर की मौज-मस्ती, छुट्टी बिताने की खूबसूरत सैरगाह की तस्वीर उभर आती है। निःसंदेह गोवा एक बेहद खूबसूरत स्थान है, लेकिन उसकी छवि अगर यहीं तक उभरती है तो इसका अर्थ है कि गोमंतकों के संघर्षपूर्ण इतिहास और उनके अतुलनीय बलिदान के बारे में हम कुछ नहीं जानते। हालांकि दुर्भाग्य से गोवा की प्रचलित पहचान यही बन चुकी है। आम भारतीय, खासकर युवा पीढ़ी तो गोवा की बाहरी खूबसूरती से ही वाकिफ है। गोवा की संस्कृति, इतिहास, पुर्तगालियों द्वारा थोपी गई गुलामी तथा जुल्म और लूट के खिलाफ गोमंतकों के संघर्ष से वे अनजान हैं।
आज गोवा क्रांति दिवस की 75वीं वर्षगांठ है। 18 जून, 1946 को दक्षिण गोवा के मडगांव में डॉ. राममनोहर लोहिया ने 450 वर्षों के पुर्तगाली शासन के विरुद्ध गोवावासियों में संघर्ष करने का जज्बा पैदा किया था। संयोग से यह वर्ष गोवा की आजादी की साठवीं सालगिरह भी है। साल 2021 के इन दो ऐतिहासिक दिवसों पर समूचे गोवावासियों को गर्व है, लेकिन शेष भारत में गोवा मुक्ति योद्धा डॉ. राममनोहर लोहिया और उनके सहयोगियों के अप्रतिम योगदान से ज्यादातर नौजवान पीढ़ी अनभिज्ञ है। इसके लिए युवा पीढ़ी को दोषी करार देना भी उचित नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया को विशुद्ध राजनेता कह सकते हैं, बावजूद इसके सामाजिक बदलाव व उन्नति के लिए चुनावी या सत्ता की राजनीति से अलग भी उनकी सोच थी। उनका मानना था कि राजनीति की भी सीमाएं हैं, इसलिए समाज के निर्माण में राजनीति से इतर प्रयत्न करने की भी आवश्यकता है।
राजनीति में रहते हुए डॉ. लोहिया ने राजनीति के जितने दोष गिनाए, शायद ही वर्तमान समय के नेता ऐसा साहस दिखा पाएं। मौजूदा समय में कोई दल ऐसा नहीं बचा है, जो वैचारिक राजनीति के रास्ते पर चलने का दावा कर सके। लेकिन अफसोस तब होता है जब डॉ. लोहिया के नाम पर राजनीति करनेवाली समाजवादी पृष्ठभूमि की पार्टियां डॉ. लोहिया की नीतियों से उलट आचरण करें।
डॉ. राममनोहर लोहिया से संबंधित दुर्लभ किताबों एवं दस्तावेजों का संकलन मैं कई वर्षों से कर रहा हूं। एक पत्रकार होने के नाते पिछले आठ-दस वर्षों से मैंने डॉ. लोहिया की जयंती और पुण्यतिथि पर एक ग्राउंड रिपोर्ट लिखने का संकल्प लिया है। हर साल 23 मार्च और 12 अक्टूबर को डॉ. लोहिया से संबंधित रपट लिखता हूं, जिसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं है। अगर है भी तो तफसील से नहीं। पिछले वर्ष अक्टूबर में डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन ने गोवा क्रांति दिवस की हीरक जयंती पर मडगांव में 18-19 जून 2021 को त्रि-देशीय सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया। लेकिन वैश्विक महामारी कोरोना की वजह से ऐतिहासिक महत्त्व के इस कार्यक्रम को तीन महीने के लिए स्थगित करना पड़ा है।
अब यह कार्यक्रम 18-19 सितंबर को रवींद्र भवन, मडगांव में आयोजित होगा। इस सम्मेलन में गोवा मुक्ति संघर्ष से संबंधित पुस्तकों का लोकार्पण किया जाएगा। रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक, प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी व गोवा मुक्ति योद्धा तथा पश्चिम बंगाल से लोकसभा सांसद रहे त्रिदीब चौधुरी द्वारा बांग्ला में लिखित किताब सालाजारेर जेले उन्नीस मासे ( सालाजार की जेल में उन्नीस महीने) का क्रमशः हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद कर डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। करीब साढ़े तीन सौ पृष्ठों की यह किताब गोवा मुक्ति संग्राम के बारे में एक प्रामाणिक दस्तावेज है।
उल्लेखनीय है कि त्रिदीब चौधुरी, डॉ. लोहिया की अपील पर 1955 में गोवा सत्याग्रह में शामिल हुए थे। पुर्तगाली सरकार ने उन्हें बारह वर्षों की सजा सुनाई थी। हालांकि, उन्नीस महीने बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। सालाजार की जेल में रहने के दौरान उन्होंने जो लेखन किया वह अद्भुत है। मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन उस दुर्लभ किताब को प्रकाशित कर रहा है।
आज यानी गोवा क्रांति दिवस की 75वीं सालगिरह पर डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा लिखित पुस्तक ‘एक्शन इन गोवा’ का लोकार्पण हो रहा है। पहली बार यह किताब जनवरी 1947 में बंबई (मुंबई) से प्रकाशित हुई थी। सात दशक बाद इसका पुनर्प्रकाशन डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन द्वारा किया गया। इस किताब में गोवावासियों के नाम डॉ. लोहिया के भाषण, बयान दुर्लभ पत्र शामिल हैं। ‘एक्शन इन गोवा’ के प्रकाशन से अत्यंत प्रसन्नता तो है, लेकिन दुख इस बात का है कि गोवा के संदर्भ में डॉ. लोहिया की यह महत्त्वपूर्ण किताब चौहत्तर वर्षों तक अनुपलब्ध रही। नौजवानों की कई पीढ़ियां और गोवा मुक्ति संग्राम पर शोध करनेवाले छात्र इस उपयोगी पुस्तक से वंचित रह गए। निश्चित रूप से इसे डॉ. लोहिया के अनुयायियों की नाकामी कह सकते हैं।
डॉ. लोहिया कहा करते थे- लोग उन्हें याद करेंगे उनके मरने के बाद। लेकिन उनके नाम पर सत्ता की राजनीति करनेवालों ने तो उन्हें जीते जी भुला दिया। अगर ऐसा नहीं होता तो ‘एक्शन इन गोवा’ समेत कई ऐसी पुस्तकें, जो डॉ. लोहिया ने लिखी थीं वे अनुपलब्ध न होतीं। आज अगर गोवा की आजादी और डॉ. लोहिया के अप्रतिम योगदान के बारे में युवजनों को कोई जानकारी नहीं है तो इसके लिए वैसे लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होंने डॉ. लोहिया को उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि तक सीमित कर दिया है। जबकि स्वयं डॉ. लोहिया इस तरह के आडंबरों पर यकीन नहीं करते थे।
मौजूदा समय में डॉ. लोहिया से जुड़े साहित्य की मांग बढ़ रही है। इंटरनेट पर भी लोहिया साहित्य की तलाश हो रही है। इसलिए डॉ. लोहिया के विचारों से प्रभावित व्यक्तियों और समाजवादियों से जोर देकर कहना चाहूंगा कि देश की भावी पीढ़ियों को डॉ. लोहिया के विचारों से अवगत कराने के लिए डॉ. लोहिया एवं उनके समाजवादी आंदोलन से जुड़े दस्तावेजों के संरक्षण व प्रकाशन की दिशा में गंभीर पहल करें। हालांकि कई पुराने समाजवादी इस दिशा में कुछ वर्षों से कार्य कर रहे हैं। अभी हाल में ही गोवा मुक्ति संघर्ष पर गणेश मंत्री और चंपा लिमये की पुस्तक प्रकाशित हुई है। ये दोनों किताबें गोवा सत्याग्रह में रुचि रखनेवालों के लिए बेहद उपयोगी हैं। लोहिया साहित्य को प्रकाशित करनेवाले ऐसे व्यक्ति व संस्थान बधाई के पात्र हैं। उनके इस कार्य से उन लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी जो लोहिया से जुड़ी सामग्रियों का संकलन और पुनर्प्रकाशन करना चाहते हैं।
भारतीयों ने अंग्रेजों से आजादी पाने के लिए लंबा संघर्ष किया और कुर्बानियां दीं। उसी तरह गोवावासियों ने जालिम पुर्तगाली साम्राज्यवादी सालाजारशाही के खिलाफ संघर्ष किया। उनकी जद्दोजहद हिंदुस्तान के आजाद होने के डेढ़ दशक बाद तक यानी 1961 तक चलती रही। तब जाकर 19 दिसंबर को पुर्तगाली शासन से मुक्ति मिली।
बेशुमार तकलीफों के बावजूद गोवावासियों ने पुर्तगाली शासन के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा और चौदह बार सशस्त्र विद्रोह किए। गोवा के इतिहास में यह दर्ज है कि दीपाजी राणे की अगुआई में लड़े गए स्वतंत्रता के युद्ध में राणे और उनके तेईस सहयोगियों को गिरफ्तार कर पुर्तगाल के उपनिवेश तिमोर भेज दिया गया था। वहां से केवल एक व्यक्ति जीवित वापस आया था। वर्ष 1933 में डॉ.राममनोहर लोहिया जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर भारत पहुंचे। महात्मा गांधी के अनुयायी अपने पिता हीरालाल लोहिया की राह पर चलते हुए वह भी स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल हो गए। तेरह वर्ष लगातार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते रहे। चार साल कारावास में बिताने और लाहौर किला जेल में मिली यातनाओं से जर्जर हो गए शरीर के साथ 11 अप्रैल, 1946 को आगरा जेल से रिहा हुए।
डॉ.लोहिया को स्वास्थ्य लाभ के लिए उनके गोवावासी दोस्त डॉ. जूलियाओ मेनेजिस, जो उनके साथ जर्मनी में पढ़े थे, ने उन्हें मडगांव से सोलह किलोमीटर दूर अपने गांव आसोलना बुला लिया। वर्ष 1942 के ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन’ के इस महानायक की प्रसिद्धि गोवावासियों में पहले से ही थी। वहां के लोगों को जानकारी मिली कि डॉ. लोहिया गोवा आए हुए हैं। वह 10 जून, 1946 को गोवा पहुंचे थे। 11 जून को गोवा से छपनेवाले पुर्तगाली भाषा के अखबार ‘ऊ हँराल्दो’ में डॉ. राममनोहर लोहिया के गोवा में आने की खबर छप गई। इसके बाद गोवा की स्वतंत्रता चाहने वालों ने उनसे भेंट कर अपनी व्यथा सुनाई।
डॉ. लोहिया गोवा के हालात से वाकिफ थे। वर्ष 1938 में ही जर्मनी में उनके सहपाठी रहे डॉ. जूलियाओ मेनेजिस ने गोवा में सालाजारशाही के जुल्मों के बारे में उनको बता रखा था। उसी वक्त डॉ. लोहिया ने कहा था, “गोवा भारत का अभिन्न हिस्सा है। हम गोवा की आजादी और एकता की लड़ाई को पुर्तगाली सत्ता से दबने नहीं देंगे।”
18 जून, 1946 को डॉ. लोहिया जनसभा के लिए मडगांव स्थित नगरपालिका मैदान (अब लोहिया मैदान) पहुंचे तो ‘जयहिंद’, ‘लोहिया जिंदाबाद’, ‘लोहिया जी की जय’ और ‘महात्मा गांधी की जय’ के गगनभेदी नारे गूंजने लगे। गोवा में यह पहला मंजर था कि भारी बारिश के बावजूद मैदान में लगभग बीस-पच्चीस हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। मशीनगनें लगाकर लोगों में खौफ पैदा करने की तैयारी पुर्तगाली पुलिस ने कर रखी थी, लेकिन आजादी के दीवाने गोमंतक निर्भय होकर जनसभा में आए थे। पुर्तगाली पुलिस कप्तान जोसे फोर्तुनातो मिरांद और कई पुलिसकर्मी डॉ. लोहिया के पास आए और कहा, “आप लोग वापस चले जाएं।” जवाब में डॉ. लोहिया ने कहा, “मैं यहां भाषण देने आया हूं।” इसपर कप्तान मिरांद ने कहा, “गोवा में भाषण देने से पहले उसकी अनुमति लेनी होती है।” डॉ. लोहिया ने पलटकर कहा, “इस फासिस्ट कानून को तोड़ने के लिए ही मैं यहां आया हूं और मैं भाषण दूंगा।” गुस्से से तमतमाये मिरांद ने अपना रिवाल्वर डॉ. लोहिया पर तान दिया। डॉ. लोहिया ने मैदान में उमड़े जनसैलाब की तरफ ध्यान दिलाते हुए कप्तान मिरांद से धैर्य रखने को कहा।
गोवा के इतिहास में यह पहली घटना थी कि जब पुर्तगाली पुलिस सिविल नाफरमानी की इस घटना को देखकर हैरत में पड़ गई। वहां मौजूद जनता भी सिविल नाफरमानी के इस अचूक अस्त्र को विस्मय भाव से देखती रही। भाषण देने से पहले ही डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. जूलियाओ मेनेजिस को गिरफ्तार कर लिया गया। डॉ. लोहिया को मालूम था कि पहले से घोषित इस जनसभा में उन्हें भाषण देने से रोका जाएगा, इसलिए वह अपना भाषण लिखकर भी लाए थे। गिरफ्तारी के बाद उनके भाषण की हजारों प्रतियां वहां मौजूद लोगों में बांट दी गईं।
19 जून, 1946 को डॉ. लोहिया और डॉ. मेनेजिस को पुर्तगाली प्रशासन ने गोवा की सीमा से बाहर छोड़ दिया। डॉ. लोहिया इसके बाद भी कहां माननेवाले थे! उन्होंने ऐलान कर दिया कि वह जल्द ही गोवा आएंगे। तीन महीने बाद डॉ. लोहिया 29 सितंबर को गोवा के लिए रवाना हुए। गोवा-कर्नाटक सीमा के निकट कोल्लेम रेलवे स्टेशन पर उन्हें गिरफ्तार कर अग्वाड किला जेल भेज दिया गया। 8 अक्टूबर, 1946 को उन्हें छोड़ दिया गया। डॉ. लोहिया की गिरफ्तारी की चर्चा देश-विदेश में होने लगी। 18 जून, 1946 को डॉ. लोहिया ने जो चिनगारी पैदा की वह धीरे-धीरे शोले में तब्दील होने लगी।
गोवा मुक्ति संग्राम में डॉ. टी.बी. कुन्हा, पुरुषोत्तम काकोडकर, लक्ष्मीकांत भेंमड़े, मधु लिमये, त्रिदीब चौधुरी समेत कई प्रभावी लोग इसमें शामिल हो गए। देखते ही देखते गोवा की स्वाधीनता पूरे देश की लड़ाई बन गई और अंततः 19 दिसंबर, 1961 को गोवा 450 वर्षों की पुर्तगाली अधीनता से मुक्त हो गया। गोवा के बारे में डॉ. लोहिया ने 18 जून, 1946 के भाषण में कहा था- गोवा स्वतंत्र राज्य रहेगा या महाराष्ट्र में शामिल होगा, यह निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ गोमंतकों को है।
(लेखक डॉ राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं।)