कलकत्ता केवल एक शहर नहीं है

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– उमेश प्रसाद सिंह –

लकत्ता केवल एक शहर नहीं है। वह शहर के अलावा भी बहुत कुछ है। वह जितना यथार्थ है, उससे बहुत अधिक मिथक है। यथार्थ के मिथक में बदलने की यात्रा बहुत गहन और विकट यात्रा है। यह यात्रा मनुष्य जाति के सामूहिक मन की अतल गहराइयों से होकर गुजरने वाली गोपन यात्रा भी है। यह यात्रा वर्तमान और इतिहास की मिल-जुल यात्रा है। इसमें इतिहास और वर्तमान अलग-अलग नहीं रह जाता है। यह यात्रा मनुष्य की आकांक्षा के असीम उल्लास की भी यात्रा है। यह यात्रा मनुष्य के विषाद की अतल यातना की भी यात्रा है। जहाँ उल्लास और यातना का सम्मिलन होता है जीवन की सच्चाइयों की अछोर उलझने आपस में मिलकर रहस्यों के जाल जैसी कहानियाँ बुनने लगती है। कहानियों में से कल्पना और तथ्य को अलगा पाना कभी भी मनुष्य के सामथ्र्य में संभव नहीं है। जीवन केवल तथ्यों पर आधारित नहीं है। कल्पना तथ्यों को हमेशा ही दीप्ति देती रहती है। मिथक मनुष्य जाति के जीवन के तथ्य और कल्पना की सबसे मनोरम संरचना है।
कलकत्ता जितना कलकत्ता में नहीं है, उससे अधिक कलकत्ता से बाहर समूचे देश में व्याप्त है। कलकत्ता जितना बंगाल में है उससे अधिक यू.पी.-बिहार में है। वह जितना रोशनी में प्रकाशित है उससे अधिक गाँव के अन्धकार में है। असली कलकत्ता जमीन पर नहीं हमारी स्मृति में है। कलकत्ता हमारी जातीय स्मृति की विरासत है। जो लोग कलकत्ता में रहते हैं, वे उसके मर्म को उतना नहीं जानते। जो कलकत्ता कभी नहीं गए हैं मगर कलकत्ता के हजार-हजार रूप जिनके मन में अनायास बसे हुए हैं वे कलकत्ता का असली अर्थ जनम से जानते हैं।
मैं भी कलकत्ता कभी नहीं गया हूँ। मगर ऐसा कभी नहीं लगता कि मैं कलकत्ता को नहीं जानता। एक कलकत्ता बचपन से हमारे भीतर बसा हुआ है जिसका अंगुल-अंगुल हमेशा जाना-पहचाना लगता रहता है। जिसके सौ-सौ रूप और रंग अपने नए-नए अर्थ में बराबर खुलते रहते हैं। एक बहुत पुराना शहर हमारे लिए कभी पुराना नहीं पड़ता। पड़े भी कैसे, हमारी स्मृति में जो बसा हुआ है।
किसी भी चीज की वास्तविकता सत्ता केवल उसकी भौतिक सत्ता नहीं होती। वास्तविक सत्ता उसकी स्मृति सत्ता है।
भौतिक सत्ता के नष्ट-भ्रष्ट और विलुप्त हो जाने के बाद भी उसकी स्मृति सत्ता का जस का तस बने रहना इतिहास का एक आश्चर्यजनक इतिहास है। मनुष्य जाति का इतिहास केवल इतिहास की किताबों में कैद नहीं है। इतिहास की किताबों में अंकित और शिलालेखों में उत्कीर्ण बहुत-सी चीजें इतिहास के विद्यार्थियों के लिए याद करने के काम भी रह जाती हैं। मगर बहुत-सी चीजें हमारी स्मृति में तथ्यों की अवहेलना करके न जाने कबसे जीवन्त बनी हुई हैं। अयोध्या की सत्ता, द्वारिका की सत्ता, उज्जयिनी की सत्ता, नालन्दा और तक्षशिला की सत्ता इतिहास पर अवलम्बित नहीं है। रामराज्य का अस्तित्व इतिहास के आधार पर खड़ा नहीं है। कृष्ण का अत्याचार के विरुद्ध जीवनव्यापी संघर्ष का इतिहास, इतिहास की सांसों के सहारे खड़ा हुआ नहीं है। राजा विक्रमादित्य का सिद्ध सिंहासन न्याय में अटल निष्ठा का प्रतीक बनकर लोकचित्त में अकारण ही अधिष्ठित नहीं है। राजाभोज की प्रजावत्सलता वैसे ही व्यापक जन समूह की स्मृति में समाई हुई नहीं है। बुद्ध की करुणा और गांधी का मानवता के प्रति अपार प्रेम इतिहास के तथ्यों और साक्ष्यों की बैसाखियों पर खड़ी सत्ता नहीं है। यह सब अपने पाँवों पर खड़ी सत्ताएं हैं, जो मनुष्य जाति की स्मृति का हिस्सा बनकर उसके जीवन में साथ-साथ चलती रहती है। इतिहास बनने की प्रक्रिया से मिथक बनने की प्रक्रिया बहुत अधिक सूक्ष्म है, जटिल है और लम्बी है। ‘लीजेण्ड’ बन जाना हर किसी इतिहास पुरुष के भाग्य में नहीं होता। यह संवेदना के विस्तार का विषय है। हर ‘लीजेण्ड’ इतिहास में अनिवार्य हस्तक्षेप की शक्ति रखता है।
लोकतंत्र की प्रतिष्ठा के उपरान्त मनुष्य जाति के लिए इतिहास से अधिक महत्त्वपूर्ण मिथक है। मनुष्य जाति की स्मृति में बसी हुई सचाई मनुष्य जीवन के लिए सबसे अधिक मूल्यवान है। कलकत्ता हमारे लिए वर्तमान नहीं है। इतिहास नहीं है। मिथक है। मिथक का वह चरित है, जिसमें सचाई और संभावना के अनगिनत अर्थ समाहित हैं।
एक शहर का मिथक बन जाना जितना कुतूहलवर्धक है, उससे अधिक आश्चर्यजनक भी है। वह अपने चरित्र की संश्लिष्टता से हमें विस्मित करता है। कलकत्ता आधुनिक सभ्यता की आकांक्षाओं के जटिल द्वन्द्व के साथ उसकी सारी विकृतियों और धिकृतियों का समन्वित वाचक है। अपने ही पंखों के पिजड़ा बन जाने की वेदना उसके चरित्र के केन्द्र में है। खोखले और सारहीन आकर्षण के जादू में आदमी के पशु-पक्षी बन जाने की नियति के दर्द का गान कलकत्ता के स्वरूप का प्राणतत्त्व है। आधुनिक सभ्यता के पाखण्ड की चकाचौंध की, छल के विस्तार की और मनुष्य के आंतरिक पतन की पीड़ा की जो कारुणिक पुकार है, वही कलकत्ता की अस्मिता में समाहित है। मनुष्य जाति के लिए एक पतनशील सभ्यता के वैभव का उत्कर्ष और उस उत्कर्ष के पीछे अछोर उजाड़ की उदासी की पहचान कलकत्ता की वास्तविक पहचान है। उसकी यही पहचान लोकचित्त में अनगिनत कहानियों आौर असंख्य गीतों में अंकित है।
गाँव-गाँव में, घर-घर में, आदमी-आदमी में एक कलकत्ता बसा हुआ है।
उसी कलकत्ता को ले जाने के लिए देश के हर हिस्से से बैरिन रेल चला करती है। हमारी व्यवस्था विकास की जो गाड़ी चला रही है, लोकचेतना में वह आज भी पलायन की, उजाड़ की दुर्भाग्यपूर्ण गाड़ी ही बनी हुई है। विकास जहाँ हुआ हो, वहांँ हुआ हो हमें नहीं मालूम। हमें यह मालूम है कि हमारे गाँव इस विकास में बुरी तरह से उजाड़ हुए हैं। विकास की बाढ़ में हमारे गाँव के पाँव उखड़ गए हैं।
हमारे गाँवों में जब आदमी गरीबी और असहायता की यातना से अफना उठता है तो वह गाँव के बाहर के रास्ते की तरफ देखता है। वह देखता है कि वह रास्ता चकााचैंध की राजधानी कलकत्ता की तरफ जाता है। वह चला जाता है। वह वैभव को पा लेने के दुर्दान्त आकर्षण में खिंचा चला जाता है। अपने उत्कर्ष के सपनों के पीछे-पीछे वह चला जाता है। वहाँ जाकर वह आदमी से बैल बन जाता है। घोड़ा बन जाता है। वह सपनों को ढोने वाली गाड़ी में जुट जाता है। फिर देखता है कि सपने गायब हैं। केवल गाड़ी बची है। वह गाड़ी खींचता रहता है।
असल में पिंजड़े केवल लोहे के ही नहीं होते हैं। बाजारवाद के बाजार समय ने आदमी के मन में आवारा आंकाक्षाओं के ऐसे पिंजरे रच दिये हैं कि उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं रह गया है। बसे पहले ये पिंजरे कलकत्ते के बाजार में टँगे देखे गए थे। स्वच्छता, शालीनता और सुन्दरता को पा लेने का जादू सिर पर ऐसा सवार हो जाता है कि आदमी अपनी आदमियत को भूलकर तोता बन जाने को विवश हो जाता है। अपने रागबोध को गाँव में छोड़कर कलकत्ता गया हुआ आदमी आसानी से पिंजड़े में पाला हुआ तोता बन जाता है। आधुनिकता के छल का, पाखण्ड का जादू आसानी से उस पर चल जाता है। आदमी बड़प्पन को, वैभव को, विलास को पा लेने के लिए इतना हड़बड़ाया है, इतना अधीर है कि उस पर कोई भी जादू आसानी से चल जाता है। वह अपनी ही आकांक्षाओं के पिंजरे में कैद हो जाता है। वह किसी की सिखाई गई बानी को दुहराने वाला तोता बन जाता है ओफ! कितना दुर्भाग्यपूर्ण है।
लोहे के पिंजड़े में कैद होकर किसी के पाठ को दुहराने की अवश नियति असहाय जन की अभिशप्त नियति है। पहले इस नियति का केन्द्र केवल कलकत्ता था। आज कलकत्ता समूचे देश में फैल गया है। देश के सारे शहर कलकत्ता में बदल गए हैं। हर शहर में चकाचौंध के चारे चमक रहे हैं। गाँव-गाँव से लोग अपनी असहायता से अफनाये भागे चले आ रहे हैं। अपनी उद्दाम आकांक्षाओं के पिंजड़े में आकर कैद होते जा रहे हैं। तोता बनकर सिखाई हुई बानी को दुहरा रहे हैं। पिंजरे की कटोरी में दूध-भात का जूठन खाकर खुश हो रहे हैं। बाहर निकलने की असफल फड़फड़ाहट में आहत हो रहे हैं। अपने लहूलुहान पंखों की पीड़ा में आँसू बहा रहे हैं। अपने घर से, परिवार से विलग होकर विलख रहे हैं। आदमी की पद मर्यादा से भ्रष्ट होकर जानवर की तरह जी रहे हैं। पक्षी की तरह पल रहे हैं। कुत्ते-बिल्ली की तरह बढ़ रहे हैं। प्रलोभन केे पानी में नमक की तरह गल रहे हैं।
कलकत्ता के यथार्थ से मिथक बनने की यात्रा हमारे लोकतंत्र के विकास की विद्रूप यात्रा भी है। जादू बंगालिने नहीं जानतीं, जादू जानती है, हमारी अभिजात हो जाने की दुर्ललित लालसा। आभिजात्य की हम चाहे जितनी भर्त्सना कर लें मगर हमारे अन्तर में अपने को उच्च बनाने की, उच्च दिखने की, ऐसी अनिवार तृष्णा बैठी हुई है कि वह हमें आदमी से जानवर बनाने पर हमेशा आमादा रहती है। आदमी ऊँचा तो नहीं बन पाता मगर जानवर जरूर बन जाता है। कलकत्ता का सम्मोहन, बंगालिन का जादू आधुनिक सभ्यता के अमानवीय आकर्षण का सम्मोहन है, जादू है। इस सम्मोहन में समूचा देश एक अदृश्य पिंजरे में कैद होता जा रहा है। निजी स्वार्थ और उत्कर्ष के पीछे अन्धा होकर तोता बनता जा रहा है।
हमारे देश में लोकतंत्र की खूँटी में किसिम-किसिम के पिंजड़े टंगे है। धर्म निरपेक्षता का पिंजरा है। राष्ट्रवाद का पिंजरा। पिछड़े और दलित के उत्थान का पिंजरा है। समाजवाद का पिंजरा है। क्षेत्रवाद का पिंजरा है। जातिवाद का पिंजरा है। स्त्रीवाद का पिंजरा है। इसमें आदमी को तोता बनाकर बैठा देने की मुहिम जारी है। आदमी को आदमी बनाने का अभियान कहीं नहीं है।
अब कलकत्ता केवल कलकत्ता में सिमटा नहीं है। वह समूचे देश में फैल गया है। शहर-शहर में प्रवासियों की भीड़ भर गई है। हर कहीं आदमी को पालतू बनाने का जादू पढ़ा जा रहा है।
पहले होली के दिनों में एक फगुआ गाया जाता था-
’‘कलकत्ता कमाये जनि जइहा बलम
बंगालिन करैंली जादू।‘‘
अपनी प्रिया की लाख हिदायतों के बावजूद आदमी है कि कलकत्ता चला ही जाता है। जाना ही पड़ता है। वह निरन्तर चला ही जा रहा है। हमारे गाँवों की सारी सड़कें, रेल की सारी पटरियाँ गाँव की बैरिन ही बनी हुई है। वे आज भी गाँव में जो भी कुछ बचा-खुचा है, उसे गाँव से बाजार की तरफ ले ही जा रही है। गाँव में कुछ ले आने का कोई रास्ता ही नहीं बना है। अभी तक तो बिल्कुल ही नहीं बना है।

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  1. मिथक की बुनावट सदैव इतिहास से सघन होती है। अतएव मिथक की अपनी मजबूत सत्ता हमारे दिलो-दिमाग में स्थापित है। कलकत्ता किसी जमाने में जादू का केन्द्र था, अब बिग बाजार बना हुआ है। लेकिन एक आम ग्रामीण पूर्ववर्ती की दुर्दशा जानते-समझते हुए भी कलकत्ता की ओर खिंचा चला आता है और आता रहेगा भी। उसके सपने उसे धकेलकर कलकत्ता की ओर उन्मुख जो कर देते हैं।
    इस अद्ववितीय निबंध के लिए निबंधकार बड़े भाई आ. डॉ उमेश प्रसाद सिंह जी को कोटिशः नमन।

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