गांधीजी के आध्यात्मिक मार्गदर्शक

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– आनंद कुमार –

हात्मा गांधी की 150वीं जयंती के उपलक्ष में पूरे साल देश-विदेश में अनेक पहलें की गईं। कई पुस्तकें भी सामने आईं। लेकिन सुज्ञान मोदी द्वारा संपादित ‘महात्मा के महात्मा’ पुस्तक एक विशिष्ट योगदान है। क्योंकि यह महात्मा गांधी के आध्यात्मिक आत्म-दर्शन और हिंदू धर्म संबंधी आत्ममंथन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेकिन सबसे कम जाने गए पक्ष अर्थात गांधी और उनके ‘मार्गदर्शक’, ‘आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधानकर्ता’ और ‘धार्मिक द्वंद्व से मुक्ति दिलाने वाले’ श्रीमद् राजचंद्र (9 नवंबर 1867– 9 अप्रैल 1901) के अद्भुत संबंधों पर प्रकाश डालती है। अत्यंत मनोयोग से किए गए इस संकलन–संपादन में दोनों विभूतियों की विशिष्ट निकटता के बारे में अबतक लगभग अचर्चित जानकारी व्यवस्थित तरीके से सामने आई है।

इसकी शुरुआत ‘महात्मा गांधी की दृष्टि में श्रीमद् राजचंद्र’ शीर्षक से गांधीजी के हवाले से लगभग 80 पृष्ठों की सामग्री से हुई है। यह उल्लेख भी जरूरी है कि इस अनोखी किताब के अंतिम हिस्से में समापन की सुगंध के रूप में प्रामाणिक आलेखों के जरिये दोनों के विचार-परिचय का मूल्यवान परिशिष्ट है – श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत के चयनित अंश (पृष्ठ 265–274), ‘आत्मसिद्धि शास्त्र’ (275-–304) और सत्य तथा अहिंसा संबंधी महात्मा गांधी के विचार (305–317)। इसके बीच के चार भागों में अनुयायियों द्वारा अनुस्मरण और परवर्ती पीढ़ियों द्वारा मूल्यांकन का संतुलित समन्वय इसे पठनीय और संग्रहणीय बनाता है।

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गांधीजी की दृष्टि में श्रीमद् राजचंद्र भारत में आधुनिक काल के ‘सर्वोत्तम धार्मिक दार्शनिक’ और ‘दयाधर्म की मूर्ति’ थे (देखें पृष्ठ 38, 40–47)। श्रीमद् राजचंद्र जी में वैष्णव और जैन दोनों संस्कारों का सिंचन था। इसलिए उनके चिंतन में आस्तिक और नास्तिक दर्शन की चेतना थी जिससे धर्म संबंधी समन्वय दृष्टि के बीज का आरोपण हुआ था। उनका जीवन समन्वय दृष्टि, तत्त्व-मीमांसा और वैराग्य के संगम का प्रतीक था। सोलह वर्ष की आयु में रचित ‘मोक्षमाला’ आज भी मुमुक्षु की परम यात्रा के प्रारंभ करने के लिए मूल्यवान मानी जाती है। वह संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में दक्ष तथा ज्योतिष, अंगविद्या और सामुद्रिक ज्ञान विद्या में निपुण शतावधानीसिद्ध थे। ‘श्री आत्मसिद्धि’ उनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है जिसमें षट्दर्शन की समन्वयात्मक प्रस्तुति है (देखें श्री बेन प्रभु का लेख, पृष्ठ 113–119)। गांधीजी की उनसे पहली मुलाकात 22 बरस की आयु में इंग्लैंड से शिक्षा पूरी करके स्वदेश वापस आते ही 1891 में डॉ प्राणजीवन मेहता के सौजन्य से हुई और अगले दस बरस में श्रीमद् राजचंद्र के 1901 में देहांत तक लगातार सघन होती चली गई।

गांधीजी इस विशिष्ट ‘जीवंत संगति’ और उसके प्रभाव का अपनी आत्मकथा से लेकर जेल डायरी, पत्राचार और अंतिम दिनों की प्रार्थना सभा तक में उल्लेख करते रहे। गांधीजी ‘श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत’ का नियमित स्वाध्याय करते थे और उनकी आध्यात्मिक रचना ‘आत्मसिद्धि शास्त्र’ के कई पदों का गांधीजी की प्रार्थना-सभा के भजनों में गायन होता था। यह किसे नहीं मालूम कि गांधीजी के जीवन में तीन व्यक्तियों का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा है- उन्हें कवि राजचंद (1867 – 1901) से जीवंत संबंध, विश्वविख्यात रूसी मनस्वी लियो टॉलस्टॉय (1828–1910) के जीवन दर्शन और ब्रिटिश चिंतक जॉन रस्किन (1819–1900) की सभ्यता दृष्टि ने दिशा दी। दूसरी तरफ, श्रीमद् राजचंद्र ने जब सन 1900 में श्री वीतरागश्रुत के प्रकाशन तथा प्रचार के लिए ‘श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल’ की स्थापना की तो गांधीजी से आग्रह करके उनको इस ट्रस्ट का संस्थापक अध्यक्ष बनाया। गांधीजी भी 1901 और 1940 के बीच बारंबार श्रीमद् राजचंद्र की स्मृति से जुड़े आयोजनों में अपने भरसक हिस्सा लेते रहे। उनके द्वारा श्रीमद् राजचंद्र का अंतिम उपलब्ध स्मरण जनवरी, 1947 का है।

इस ग्रंथ में गांधीजी की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के बारे में श्रीमद् राजचंद्र द्वारा दिए गए तीन पत्रों का प्रकाशन इसकी महत्ता को बढ़ाता है (देखें- सर्वाधिक चर्चित पत्रोत्तर, जिसमें गांधीजी की विविध सत्ताईस आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का विस्तृत उत्तर है (श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत पत्रांक– 530, (20 अक्टूबर,1894 का पत्रोत्तर) (पृष्ठ 67–77); पत्रांक–570, (तिथि अज्ञात, नहीं) (पृष्ठ 78–79); तथा पत्रांक 717 (9 अक्तूबर 1896 का पत्र))। पच्चीस बरस के गांधीजी के 1894 के बहुचर्चित पत्र में कुल सत्ताईस प्रश्न थे। आत्मा, ईश्वर और मोक्ष से जिज्ञासा शुरू होती है। अगली शंकाएं वेद, गीता, आर्यधर्म और यज्ञ में पशुवध के बारे में थीं। फिर ईसा मसीह, बाइबिल और ईसाई धर्म के बारे में प्रश्न करते हुए पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, नीति-अनीति-सुनीति, भक्ति और मोक्ष, दुनिया की अंतिम स्थिति और प्रलय के बारे में पूछा गया। महात्मा बुद्ध के मोक्ष के बारे में एक दिलचस्प प्रश्न है। फिर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, रामावतार और कृष्णावतार के बारे में प्रश्नों से पत्र पूरा हुआ था।

गांधीजी और श्रीमद् राजचंद्र के संबंधों में निर्मलता, सरलता और सहजता थी। इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1894 के पत्र में गांधीजी की पहली समस्या तो थी कि ‘आत्मा क्या है?’ और इसी स्तर के अन्य पच्चीस प्रश्नों के बाद अंतिम प्रश्न में इंग्लैंड से कानून की उच्च शिक्षा प्राप्त करके हाल ही में स्वदेश लौटे युवा गांधी ने अपने से कुल दो बरस ज्यादा आयु के श्रीमद् राजचंद्र से यह भी जानना चाहा था कि, ‘जब मुझे सर्प काटने आए तो मुझे उसे काटने देना चाहिए या मार डालना चाहिए? उसे दूसरी तरह से दूर करने की शक्ति मुझमें न हो, ऐसा मानते हैं।’ इसके बारे में श्रीमद् का उत्तर क्या था? इस प्रश्न के उत्तर में भी दार्शनिक और आध्यात्मिक गहराई थी और ‘देह की अनित्यता’ और ‘आत्महित की इच्छा’ जैसी दो शाश्वत कसौटियों पर ‘अपनी देह छोड़ देना ही योग्य है’, का रास्ता बताया गया।

इस प्रकार के पत्रों के गंभीर और विस्तृत उत्तरों से श्रीमद् राजचंद्र ने गांधीजी के चित्त में पनपी दुविधाओं को दूर किया ऐसा गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है। गांधीजी के समक्ष हिंदू धर्म की दो मुख्य त्रुटियाँ आँख के आगे थीं- (1) अस्पृश्यता; अनेक सम्प्रदाय और जातिव्यवस्था के कारण वह हिंदू धर्म की ‘सम्पूर्णता’ और ‘सर्वोपरिता’ के बारे में अनिश्चित हो चुके थे, (2) अकेले वेदों के ईश्वर-प्रणीत होने का क्या अर्थ है? अगर वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, तो बाइबिल और कुरआन क्यों नहीं? ईसाई और मुसलिम उनको प्रभावित करने के लिए प्रयत्नशील थे। डरबन में एक अरसे तक वह हर रविवार को गिरजाघर जाया करते थे। यह अलग बात है कि वहां के प्रवचन ‘शुष्क जान पड़े’ और ‘प्रेक्षकों में भक्तिभाव के दर्शन नहीं हुए’। गांधीजी ने लिखा है कि, ‘यह ग्यारह बजे का समाज मुझे भक्तों का नहीं, बल्कि कुछ दिल बहलाने और कुछ रिवाज पालने के लिए आए हुए संसारी जीवों का समाज जान पड़ा। कभी-कभी इस सभा में मुझे बरबस नींद के झोंके आ जाते। इसमें मैं शरमाता। पर अपने आसपास भी किसी को ऊंघते देखता, तो मेरी शरम कुछ कम हो जाती।’

जीवन-दिशा बदलने वाले इस दौर के बारे में गांधीजी ने अपनी आत्मकथा के दो अध्यायों में चर्चा करना जरूरी समझा था। पहले उल्लेख में (भाग 2, अध्याय 15) लिखा है कि, ‘मैंने अपनी कठिनाइयाँ रायचंद भाई के सामने रखीं। हिंदुस्तान के दूसरे धर्मशास्त्रियों के साथ भी पत्र-व्यवहार शुरू किया। उनकी ओर से उत्तर भी मिले। रायचंदजी के पत्र से मुझे बड़ी शांति मिली। उन्होंने मुझे धीरज रखने और हिंदू धर्म का गहरा अध्ययन करने की सलाह दी। उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था- “निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई है कि हिंदू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं है.।” ‘…कवि (श्रीमद् राजचंद्र) के साथ (पत्र-व्यवहार) तो अंत तक बना रहा। उन्होंने कई पुस्तकें मेरे लिए भेजीं। मैं उन्हें भी पढ़ गया। उनमें ‘पंचीकरण’, ‘मणिरत्नमाला’, योगवाशिष्ठ का ‘मुमुक्षु प्रकरण’, हरिभद्रहरि का ‘षड्दर्शन समुच्चय’ इत्यादि पुस्तकें थीं… ” (पृष्ठ 59)। उन्होंने पुन: आत्मकथा में आध्यात्मिक आत्म निरीक्षण के इस दौर की दूसरी बार (भाग 2, अध्याय 22) विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा कि, ‘“मैं तो यात्रा करने, काठियावाड़ के षड्यंत्रों से बचने और आजीविका खोजने के लिए दक्षिण अफ्रीका गया था। पर पड़ गया ईश्वर की खोज में, आत्म दर्शन के प्रयत्न में। ईसाई भाइयों ने मेरी जिज्ञासा को बहुत तीव्र कर दिया था।…धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन के लिए जो फुर्सत मुझे प्रिटोरिया में मिल गई थी, वह अब असंभव थी। पर जो थोड़ा समय बचता, उसका उपयोग मैं वैसे अध्ययन में करता था। मेरा पत्र-व्यवहार जारी था। रायचंदभाई मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे.।..”

लेकिन यह चकित करनेवाला तथ्य है कि गांधीजी के बारे में लिखी गई लगभग 250 पुस्तकों में ‘सभी को मिलाकर’ भी श्रीमद् राजचंद्र के बारे में चालीस पंक्तियाँ भी नहीं मिलती हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट (दिल्ली) द्वारा प्रकाशित और श्री यू. एस. मोहनराव द्वारा संकलित-संपादित ‘शब्दचित्र और श्रद्धांजलियाँ– गांधीजी’ (2012) में देश-विदेश के 68 व्यक्तियों के बारे में गांधीजी द्वारा लिखे आलेखों के बीच भी श्रीमद् राजचंद्र के बारे में कोई उल्लेख या आलेख नहीं है। इस विचित्र कमी को दूर करना ही इस सुरुचिपूर्ण संकलन की पृष्ठभूमि का सबसे उल्लेखनीय तथ्य है। इस संदर्भ में पहले सुज्ञान मोदी ने श्रीमद्जी के 149वें जन्मदिन, कार्तिक पूर्णिमा, 14 नवंबर, 2016 को ‘श्रीमद् राजचंद्र और गांधीजी’ नाम से एक फेसबुक समूह का निर्माण किया। इसके देश-विदेश में कुल 13,455 सदस्य हैं। इसी क्रम में अगले योगदान के रूप में सुज्ञान जी ने श्रीमद् जी की 152वीं जयंती पर 12 नवंबर को किताबघर (जोधपुर) के विज्ञान मोदी के प्रकाशकीय सहयोग से ‘महात्मा के महात्मा’ प्रस्तुत की है।

इसकी ‘भूमिका’ के अनुसार, “…पुस्तक को प्रकाशित करने का उद्देश्य यह है कि गांधीजी के बारे में लिखनेवाले लेखकों, शोधार्थियों और गांधीजी के बारे में सामान्य जिज्ञासुओं को भी उनके अध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक श्रीमद् राजचंद्र जी के बारे में जानकारी मिले। इसके अलावा एक उद्देश्य यह भी है कि अन्यान्य देश-विदेश में फैले श्रीमद् राजचंद्र जी के समर्पित लाखों साधकों-मुमुक्षुओं को भी गांधीजी और श्रीमद् राजचंद्र के आपसी संबंधों के बारे में जानने को मिले।”

गांधीजी के जीवन की आध्यात्मिक नींव बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान करनेवाले जैन सिद्ध श्रीमद् राजचंद्र (9 नवंबर 1867– 9 अप्रैल 1901) को केंद्र में रखकर संपादित यह आकर्षक किताब कुल 6 भागों में तैयार की गई है- (1) गांधीजी की दृष्टि में श्रीमद् राजचंद्र (कुल 78 पृष्ठ), (2) महान व्यक्तियों द्वारा श्रीमद् राजचंद्र की प्रशस्ति (श्री लघुराजस्वामी, काका कालेलकर, विमला ठकार, व डॉ. भगवानदास मेहता के लेख; 7 पृष्ठ), (3) श्रीमद् राजचंद्र की सिद्धियों का परिचय (पूज्य श्री बेनप्रभु, फूलचंद शास्त्री व सुज्ञान मोदी के आलेख; 32 पृष्ठ), (4) महान व्यक्तियों द्वारा महात्मा गांधी की प्रशस्ति (विनोबा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू व डॉ. राधाकृष्णन के लेख; 17 पृष्ठ), (5) श्रीमद् राजचंद्र एवं महात्मा गांधी विषयक महत्त्वपूर्ण आलेख (सोलह आलेख; कुल 99 पृष्ठ) तथा (6) परिशिष्ट (श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत के चयनित अंश, ‘आत्मसिद्धिशास्त्र’ के 142 पद, सत्य-अहिंसा संबंधी गांधी विचार और गांधीजी का वसीयतनामा; कुल 43 पृष्ठ)।

हमारे देश के दो महात्माओं के परस्पर संबंधों के साथ ही दोनों की अपनी अपनी विस्मयकारी जीवन साधना से संबंधित बहुमूल्य तथ्यों, पत्रों, भाषणों, विवरणों, संस्मरणों और आलेखों का सुज्ञान मोदी द्वारा तैयार यह संकलन श्रीमद् राजचंद्र के चिंतन-लेखन के गहन शोध और गांधी-वांग्मय के व्यापक अध्ययन से संभव हुआ है। इसको पठनीय बनाने का भी ध्यान रखा गया है। इस प्रकार यह गांधी जी के हिंदू धर्म व अन्य धर्मों संबंधी आत्म-मंथन और आध्यात्मिक ऊहापोह के दौर के बारे में श्रीमद् राजचंद्र की भूमिका की संपूर्णता की समझ देनेवाली पहली रचना के रूप में पाठकों के हाथ में है। यह श्रीमद् राजचंद्र के महत्त्व को गांधीजी समेत अनेक प्रशंसकों के माध्यम से सामने लाती ही है, दोनों विभूतियों के बारे में ध्यानाकर्षण करानेवाले नए-पुराने लेखों के कारण यह सहज और सरल प्रवेशिका जैसी भी बन गई है। इससे गांधी-विमर्श में सर्वव्यापी और बहुचर्चित ‘ईश्वर तत्त्व’ और ‘धर्म पक्ष’ को समझने में सुविधा होगी। इन्हीं खूबियों के कारण ‘महात्मा के महात्मा’ अपने उद्देश्यों के अनुकूल एक अति-उपयोगी किताब हो गई है।

महात्मा के महात्मा : श्रीमद् राजचंद्र और महात्मा गांधी

संकलन-संपादन-  सुज्ञान मोदी

(जोधपुर, किताबघर)

मूल्य- 250 रु.

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