— कश्मीर उप्पल —
यह कथन सत्य है कि जो व्यक्ति या समाज या देश इतिहास से सबक नहीं सीखता तो इतिहास अपने को दोहराता है। यह कथन एक प्रश्नचिह्न बनकर इस कोरोना-काल में खड़ा हो गया है। हर व्यक्ति हर समाज और हर देश के सम्मुख।
व्यक्तियों का सबसे छोटा समूह परिवार, परिवारों का समूह गांव और शहर तथा इनका समूह जिला, राज्य और देश बनाते हैं, जैसे भारत 776 जिलों का एक बड़ा समूह है। यह मानना भूल होगी कि कोरोना से सरकार ही सबक ले और वही कोरोना को रोकने की नीतियां बनाए। हमें याद रखना होगा कि यह महामारी व्यक्तियों को अपना शिकार पहले बनाती है और फिर परिवारों और अंत में सरकारों को। इसीलिए व्यक्ति को अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए सबसे पहले कदम उठाने होंगे। यह बीमारी सामुदायिकता की जगह एक-त्व का संदेश दे रही है। संक्षेप में, घरों में बड़े-बड़े हॉल बनाने के आर्किटेक्ट की जगह परिवार के हर सदस्य का अलग हवादार कमरा होना उचित होगा। इस बीमारी का और ऐसी ही बीमारियों का पलटवार भविष्य में होते रहने की आशंका है।
नगर नियोजन में बाजार के केंद्रीकरण की अवधारणा ‘असफल और आउट ऑफ डेट’ हो चुकी है। अमरीका और यूरोप के कई देशों में नेबरहुड स्कूल व अस्पताल के बाद मार्केट के नेबरहुड होने की शुरुआत हो रही है।
दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिकों की शैली में मोहल्ला स्कूल और मार्केट की ओर लौटना एक जरूरी कदम है। इससे पर्यावरण संबंधी भी कई लाभ मिलने की पूर्ण संभावना है। अमरीका में दूर के स्कूलों में जानेवाले बच्चों में नींद की कमी और थकान से बौद्धिकता का स्तर घटने के प्रमाण मिले हैं। हम गांव और शहर की जब बात करते हैं तो विधायक, नगरपालिका अध्यक्ष, सदस्य तथा पंचायत में पंच और सरपंच की भूमिका नजर आती है। पुराने जमाने के बाजार रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों आदि के समीप होते थे परंतु अब आधुनिक नगर नियोजन ऐसा नजर नहीं आता। सड़कों और यातायात के साधनों ने बाजार व पुराने नगर नियोजन में बहुत क्रांतिकारी बदलाव ला दिए हैं। इस संबंध में हम नगरों के बाहर स्थित ‘मैरिज गार्डन’ आदि के नए स्वरूपों को देख सकते हैं।
कोरोना की तीसरी और अन्य लहरों की चेतावनी के मद्देनजर शहर के दूर स्थानों पर नियोजित कॉलोनियों के अपने बाजार क्यों नहीं हों? इसके लिए सरकारों (केंद्र, राज्य, स्थानीय ) के द्वारा कई तरह के प्रोत्साहन दिए जा सकते हैं।
कॉलोनियों में अपना पानी, अपनी बिजली, अपने क्लीनिक की तरह अपना-बाजार भी हो। हमने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद युद्ध के भय से बचने के लिए एक क्षेत्र में सामाजिक और दूसरे क्षेत्र में मार्केट को रखा था। यूरोपीय-अमरीकी समाज-सौंदर्य की नकल करते हुए हमने भी हवाई हमलों से बर्बाद देशों और नगरों की ही नकल की है। प्राचीन भारतीय नगर नियोजन में महलों और किलों के पास ही आवासीय बाजार होते थे। दिल्ली, जयपुर और आगरा में किलों के पास ही पूजास्थल और पुराने आवासीय-बाजार थे।
कोरोना महामारी ने हर तरह की अतिकेंद्रित व्यवस्था पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
कई यूरोपीय देशों में ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यालयी भवन बनाने की शुरुआत हो चुकी है। दिल्ली में भी निकटवर्ती छोटे नगरों में आवास की मांग बढ़ने लगी है। बहुमंजिला इमारतें एक तरह से धारावी (मुंबई) की झुग्गी बस्ती सी खतरनाक मानी जा रही हैं। झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में एक व्यक्ति, एक परिवार एकसाथ सभी निवासियों के लिए बीमारी का वाहक बन जाता है। बहुमंजिला इमारतों में एक सीढ़ी, एक लिफ्ट और एक ही प्रवेश द्वार खतरनाक माने गए हैं।
हमारे नागरिक समाज की यह परंपरा रही है कि जनकल्याण के किसी भी विचार को आगे बढ़कर अपना लिया जाता है। यह विचार ही हैं जो बीज-रूप में चुप रहकर अपने समाज के भविष्य को आकार देता है। इस महामारी का यही सबसे बड़ा सबक है- सबसे ऊपर समाज-हित है- समाज से ऊपर कोई नहीं है। राजा भी नहीं। राजा का हित सर्वोपरि होता है तो समाज के संकट और बढ़ जाते हैं।
अभिनंदनीय सामयिक सोच.