— इंदुमति केलकर —
(भारत के स्वाधीनता हासिल करने के कोई चौदह साल बाद तक गोवा पुर्तगाल के अधीन रहा। वह आजाद हुआ दिसंबर 1961 में। उसकी आजादी के आंदोलन के प्रणेता डॉ राममनोहर लोहिया थे। उन्होंने 18 जून 1946 को गोवा मुक्ति संग्राम छेड़ा था। भारत की आजादी की लड़ाई में 9अगस्त 1942 का जो महत्त्व है वैसा ही महत्त्व गोवा के मुक्ति संग्राम में 18 जून 1946 का है। आज उस दिवस की पचहत्तरवीं वर्षगांठ है। इसके अलावा यह साल गोवा की आजादी का साठवां साल है। इस ऐतिहासिक संयोग के मद्देनजर कई जलसे होंगे, पर ज्यादा जरूरी है गोवा मुक्ति संग्राम को और गोमंतकों की कुर्बानियों को फिर से याद करना। इसी खयाल से गोवा मुक्ति की कहानी कुछ किस्तों में हम प्रकाशित कर रहे हैं। यहां पेश है चौथी किस्त। गोवा की यह मुक्ति कथा इंदुमति केलकर द्वारा लिखित लोहिया की जीवनी का एक अंश है।)
लोहिया 9 नवंबर को बेलगांव आए। बेलगांव में उन्होंने बताया कि “अग्वाड फोर्ट लाहौर फोर्ट से ज्यादा बुरा नहीं है। लेकिन किले के कई खाने हमेशा भयानक रहते ही हैं। कभी-कभी पुर्तगीज सरकार मेरे साथ ‘विदेशी’ समझकर बर्ताव करती थी तो कभी-कभी उसके उलट।” सार्वभौमत्व का सवाल यहां नहीं था, क्योंकि गोवा में आने-जाने पर प्रतिबंध नहीं था। इस दृष्टि से गोवा प्रवेश का हक जरूर मौजूद था, जैसे पुर्तगीज नागरिक ब्रिटिश भारत में आते-जाते थे। सरकारी बुलेटिन में प्रकाशित हुआ कि “शांति व सुव्यवस्था के हेतु अंग्रेजी भारतीय नागरिक डॉ. राममनोहर लोहिया को 14 जून को गोवा में रहने की मनाही के आधार पर पुर्तगीज हद के बाहर रिहा किया गया था। उनकी कृति शांति को खतरे में लानेवाली और लोगों को बलवे के लिए प्रवृत्त करनेवाली थी। तो भी अफसरों ने उनके साथ भलाई की। उसका दुरुपयोग करके उन्हीं कृत्यों को दुहराने के लिए डॉ. लोहिया फिर गोवा आए। इसलिए उनपर पांच वर्षों तक गोवा-प्रवेश की मनाही का हुक्म लागू किया गया है।”
बेलगांव से लोहिया ने गोवा के प्रधान न्यायमूर्ति को खत लिखा कि “अपनी गिरफ्तारी के समय मैंने गोवा का एक भी कानून नहीं तोड़ा था। मैं शायद तोड़नेवाला था लेकिन यह अप्रस्तुत है। कोलेम में पुलिस अफसर मेरे डिब्बे में आया और कोई भी सवाल न पूछकर उसने मुझे गिरफ्तार किया। आज के अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक पुर्तगीज सरकार किसी भी अप्रिय विदेशी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है। हद पार पहुंचा सकती है। लेकिन निश्चित रूप से किसी विदेशी व्यक्ति को कैदखाने में नहीं रख सकती, जब तक उसने प्रत्यक्ष कानून भंग नहीं किया हो। पुर्तगीज सरकार ने पहले मुझे विदेशी घोषित किया था और अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक मुझे गिरफ्तार किया था। सरकार को मुझसे माफी मांगनी चाहिए और गैरकानूनी जेल में रखने के कारण हर्जाना देना चाहिए अन्यथा उसे गोवा और हिंदुस्तान के अन्य भागों के बीच अंतरराष्ट्रीय कानून लगाने का यत्न छोड़ देना चाहिए। 29 सितंबर से 2 अक्तूबर तक गोवा सरकार ने मुझे ऐसी कोठरी में रखा जहां का वायु संचरण केवल जिंदा रखने तक ही सीमित था। उन्हें उसके लिए भी मुझसे माफी मांगनी चाहिए और इस प्रकार के बर्ताव के लिए हर्जाना देना चाहिए। बाद में भी मुझे अलग कोठरी में यद्यपि जरा अच्छी हालत में रखा गया, लेकिन पत्र-व्यवहार या मुलाकात करने की भी इजाजत नहीं थी। यह भी मेरी सजा के गैरकानूनी रूप को बढ़ानेवाली चीज है।”
लोहिया का खत ‘हरिजन’ में पुनर्मुद्रित करके गांधी ने लिखा कि “यह मामूली खत नहीं है। और डॉ. लोहिया का तर्क भी हँसी उड़ाने लायक चीज नहीं है। यदि डॉ. लोहिया के पीछे ताकत होती तो गोवा के मालिक तुरंत माफी माँगते और हर्जाना भी देते। यह अनोखी चीज नहीं है कि बड़ी ताकत वाले देश साधारण व्यक्तियों के अपमान या नुकसान होने पर हर्जाना माँगते हैं और उसको हासिल भी करते हैं। डॉ. लोहिया मामूली आदमी नहीं हैं और भारत में राष्ट्रीय सरकार है। मुझे विश्वास है कि अन्य किसी के समान भारत सरकार भी अपने सम्मान के प्रति जागरूक है। यदि वह अपना विरोध प्रकट करके गोवा सरकार से अपना रुख सुधारने को कहेगी तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। कुछ भी हो जनमत की शक्ति और सरकार को पीड़ित डॉ. राममनोहर लोहिया के पीछे होना चाहिए। उनके साथ जो अशिष्ट व्यवहार किया गया है वह गोमांतकियों और उनके द्वारा सारे भारत के प्रति किया गया है।”
लोहिया ने एक तरफ आर्थिक बहिष्कार की कल्पना पर जोर दिया। उनके ही प्रस्ताव के मुताबिक फल, मक्खन, मवेशियों इत्यादि का गोवा सरहद के अंदर जाना बंद कर दिया गया। आर्थिक बहिष्कार के उपक्रम से गोवा में मांसभोजी लोगों को अड़चन हुई। गोवा सरकार ने एक से अधिक पशुओं को सरकार के हाथ में देने का अध्यादेश निकाला, जिस कारण लोगों में सरकार के प्रति नफरत पैदा हुई। दूसरी तरफ लोहिया कुशल सेनापति की तरह गोवा लड़ाई का संचालन कर रहे थे। बेलगांव में उसी समय दो-तीन सौ गोमांतकियों की सभा हुई। लोहिया के भाषण के बाद करीब-करीब 75 लोग सत्याग्रह करने को तैयार हो गए। दस दिन के बाद दस लोगों की टुकड़ी के सत्याग्रह करने की योजना बनाई गई। विशेष परिस्थिति के सिवाय लोहिया फिर सत्याग्रह न करें और गोमांतकियों द्वारा ही सत्याग्रह जारी रखा जाए ऐसा भी तय हुआ।
लोहिया ने 21 से 27 नवंबर तक सावंतवाड़ी, कोल्हापुर, करवार आदि सरहद के गांवों का दौरा करके सत्याग्रही व पैसा इकट्ठा करने की कोशिश की। उसी वक्त उनको गांधी ने तार भेजकर मिलने के लिए बुलाया। रास्ते में लोहिया ने बंबई के लोगों को गोवा-लड़ाई गतिमान करने को आह्वान किया। लोहिया दिल्ली पहुंचे। लेकिन गांधी के नोआखाली चले जाने के कारण भेंट नहीं हुई। वे सीधे बेलगांव वापिस लौटे। कार्यकर्ताओं से उन्होंने बातचीत की। हर दिन बाद सत्याग्रह का कार्यक्रम ठीक तरह से चल रहा था। उसी समय संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के लिए पुर्तगाल की अर्जी मंजूर नहीं हुई क्योंकि पुर्तगाल ने गोवा में और अन्य उपनिवेशों में नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा रखे थे। रूस, पोलैंड, मैक्सिको, इंग्लैंड, अमरीका आदि के समर्थन से पुर्तगाल का घमंड कम हुआ था।
इस अवस्था में बेलगांव में 24 नवंबर को गोवा नेशनल कांग्रेस की बैठक हुई। यह बैठक जितनी महत्त्वपूर्ण हुई उतनी ही गोवा आंदोलन की दृष्टि से अभागी निकली। जो लोग 18 जून के पहले लोहिया को आंदोलन रोकने के लिए कहते थे उन्होंने फिर अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया। बैठक में वे लोग आए, और उन्होंने पैसे देकर आंदोलन खरीदने की साजिश की। वे कहने लगे कि चाहे जितने पैसे आंदोलन के लिए लगें वे उतने दे देंगे। लेकिन उसके बदले उनके हाथ में आंदोलन का सूत्र दे दिया जाए। लोहिया ने साफ इनकार किया और उनको बताया कि आप आंदोलन खरीद नहीं सकते। आप संगठन चाहते हैं और यह लड़ाई में से ही पैदा होगा।
उसी बैठक में दो गुट बने और गोवा आंदोलन को खतरा पैदा हो गया। लोहिया चंदा जमा करने का काम कर रहे थे। दिसंबर के शुरू में उनको के.ई.एम. अस्पताल के सर्जन श्री डिमेलो ने गोवा लड़ाई के लिए दस हजार रुपए दिए। खजांची के पास चंदा भेजकर लोहिया गांधी से मिलने कलकत्ता गए। नोआखाली में गांधी की यात्रा चल रही थी। गांधी से उनकी जो बातचीत हुई उसी के आधार पर लोहिया ने ‘गोमांतकियों को पत्र’ खुले में लिखा। गांधी ने लोहिया को गोवा जाने से मना किया था। गोवा की लड़ाई गोमांतकियों के द्वारा ही लड़ी जाए, ऐसी उन्होंने राय प्रकट की थी। गांधी ने ऐसा भी कहा था कि भारत सरकार शासकीय स्तर पर गोवा के सवाल को हल करने का प्रयत्न करती है। लोहिया के गोवा जाने से इस प्रयत्न में शायद रुकावट पैदा होगी। और भी, अंतरिम सरकार को अड़चन में डालने का मौका मुसलिम लीग खोज रही है। ऐसी हालत में लोहिया का गोवा जाना केवल अनुचित नहीं होगा, बल्कि सरकारी प्रयत्न में अड़ंगा डालेगा।
पंडित नेहरू उस समय भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति की मोह-मयी भूलभुलैयों में भटक गए थे। उन्होंने पोप और फ्रांस के साथ अच्छा नाता-रिश्ता जमाने का यत्न किया था और गोवा प्रकरण द्वारा यह न बिगड़ जाए ऐसी उनकी इच्छा थी। यह सब हालत खुले पत्र में लिखना उचित नहीं था लेकिन जितना संभव था उतना अपने पत्र में लोहिया ने लिखा। 24 दिसंबर 1946 के इस पत्र की हजारों प्रतियां बाँटी गईं। उन्होंने अपने पत्र द्वारा शांतिमय मार्ग से आंदोलन जारी रखने का आह्वान किया था। जो बुराइयां आंदोलन में थीं उनका भी जिक्र किया था, खास करके पीछे रहकर दूसरों को हुकुम देनेवाली जो समिति बन गई थी उसकी आलोचना करके कार्यक्रम और कृति द्वारा ही संगठन बनाने की सलाह दी। पुर्तगीज सरकार के गोमांतकियों और बाहरी लोगों में फूट डालनेवाले प्रयत्नों की निंदा करके सामुदायिक प्रतिकार, किसान मोर्चा, अनाज के लिए प्रदर्शन, पलटन-स्काउट आदि का कर चुकाना बंद करने व सरकारी राजशासन स्थगित करने आदि कार्यक्रम पर जोर दिया गया।
गोवा के लोगों की लोहिया फिर गोवा में आएं ऐसी जो ख्वाहिश थी उस संबंध में लोहिया ने साफ-साफ लिखा कि गांधी ने अब रोका है और परराष्ट्र मंत्री पंडित नेहरू को भी उनका गोवा जाना मंजूर नहीं है। नेहरू लिस्बन के साथ खतो-किताबत कर रहे हैं। दो-तीन महीने में इसका नतीजा निकलेगा। अंत में लोहिया ने लिखा कि “जेल में जाइए। लाठी खाइए। मोर्चा-जुलूस निकालिए और यूरोपीयों का सफेद पैर एशिया की भूमि से उखाड़िए।”
(कल पाँचवी और अंतिम किस्त )
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