कांग्रेस के राज में कैसे स्कूली किताबों का हिस्सा बनी ‘इमरजेंसी’

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— योगेंद्र यादव —

‘आपको पक्का यकीन है, प्रोफेसर साहब? क्या देश इस बात के लिए मन बना चुका है?’

र साल मैं इस कहानी को याद करता हूं और इंदिरा गांधी की लगायी इमरजेंसी की बरसी पर अपने से यह सवाल पूछता हूं। यह कहानी इमरजेंसी के बारे में नहीं है। दरअसल, कहानी तो उस वाकये के बारे में है जब इमरजेंसी का प्रकरण पहली बार राष्ट्रीय स्तर की सरकारी पाठ्यपुस्तक में दाखिल हुआ और वह भी तब, जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में हुकूमत चल रही थी।

वो सन 2007 का साल था। शिक्षाविद और चिंतक प्रोफेसर कृष्ण कुमार उस वक्त राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद (एनसीईआरटी) के निदेशक थे और स्कूली पाठ्यपुस्तकों के संपूर्ण कायाकल्प के एक जतन की अगुआई कर रहे थे। प्रोफेसर सुहास पलशीकर और मुझे न्योता मिला कि आप दोनों को नौवीं से बारहवीं कक्षा तक की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन करना है। वो बड़ी सरगर्मी का दौर था, शिक्षाशास्त्रीय सोच में बुनियादी बदलाव की सोच से भरा हुआ वक्त।

हमने तय किया कि स्कूली पाठ्यक्रम में जिसे सिविक्स (नागरिक शास्त्र) कहा जाता है, उसके तर्ज-तेवर, रंग-रूप और कलेवर को एकदम से बदल देना है। हमारे बीच तय यह हुआ कि हाई स्कूल के छात्रों को बच्चा मानकर चलने की जरूरत नहीं है और राजनीति विज्ञान की स्कूली पाठ्यपुस्तक का राजनीति से परहेज बरतना कतई जरूरी नहीं। यह नहीं हो सकता कि पाठ्यपुस्तक तो राजनीति विज्ञान की हो लेकिन राजनीति के असहज करते सवालों से अपना दामन बचाकर चले।

प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने एनसीईआरटी में जो माहौल तैयार किया था उसमें हमें काम करने की पूरी आजादी मिली। समाज-विज्ञान की पाठ्यपुस्तक के लेखन की देखरेख कर रहे, विनम्र स्वभाव के धनी प्रोफेसर हरि वासुदेवन का इस काम में सहयोग मिला और प्रोफेसर मृणाल मिरी तथा जी.पी. देशपांडे के नेतृत्व में बनी उदार दृष्टि-सम्पन्न नेशनल मॉनिटरिंग टीम का भी।

कक्षा बारहवीं की राजनीति विज्ञान की पुस्तक का नाम है ‘स्वतंत्र भारत में राजनीति’ और इस किताब के लिए आपातकाल पर जब पाठ तैयार किया जा रहा था तो ऊपर लिखी तमाम बातों की एक तरह से परीक्षा हो गयी।

निर्णायक महत्त्व का एक अध्याय

एक तो राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में ‘स्वतंत्र भारत में राजनीति’ नाम की किताब को शामिल करना ही किसी सेंधमारी से कम नहीं था। इससे पहले का चलन तो यही था कि स्कूली पाठ्यपुस्तक में भारत की आजादी तक के दौर की चर्चा की जाती थी और उसके बाद का वक्त पाठ्यपुस्तकों में आने से रह जाता था।

दूसरे शब्दों में कहें तो छात्रों से उम्मीद पाली जाती थी कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जो कुछ हुआ उसे जाने बगैर वे इक्कीसवीं सदी की राजनीति की अपनी समझ बना लेंगे। हर कोई हमारी इस राय से सहमत था कि जो छात्र बारहवीं कक्षा में राजनीति विज्ञान पढ़ने का विकल्प चुनते हैं उनके पढ़ने के लिए भारतीय राजनीति का इतिहास बताती एक पूरी पाठ्यपुस्तक तो होनी ही चाहिए। हमने प्रोफेसर उज्ज्वल कुमार को न्योता दिया कि वे ऐसी पाठ्यपुस्तक लिखनेवाली टोली की अगुआई करें।

बात इस मुकाम तक सुभीते से चली आयी लेकिन असल अड़चन तो तैयार की जानेवाली पाठ्यपुस्तक में लिखी जानेवाली बातों को लेकर खड़ी होनी थी। यों विवाद पाठ्यक्रम की घोषणा के साथ होते ही शुरू हो गया था। प्रस्तावित पाठ्यपुस्तक का अभी एक भी शब्द लिखा नहीं गया था लेकिन मीडिया में लगी सुर्खियां चीख-चीख कर बताने लगी थीं कि ‘एनसीईआरटी की किताब में तैयार किया जा रहा है गुजरात दंगे पर पाठ।’

हमलोगों ने जब किताब लिखना शुरू किया तो आपस में तय हुआ कि राजनीतिक विवाद पैदा करनेवाली बातों से निपटने के लिए कुछ ठोस उपाय अपना लेना ठीक होगा। सो, हमने किताब लिखने की शैली वर्णनात्मक रखी, लगा कि कोई मुद्दा विवादपरक हो सकता है तो उसपर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार रखें और जोर इस बात पर रखा कि जो भी तथ्य किताब में दर्ज किये जा रहे हैं, कोई चाहे तो बा-आसानी उसकी सच्चाई परख ले। लगा कि कोई बात सीधे-सीधे शब्दों में बता पाना कठिन है तो ऐसी बातों को कहने के लिए हमने तस्वीरों और कार्टून्स का सहारा लिया।

राजनीति विज्ञान की बारहवीं कक्षा की किताब के छठे अध्याय, ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट’ में हमने यही तरीका अपनाया। यह अध्याय आपातकाल और उसके तुरंत पहले से लेकर बाद तक की राजनीति पर केंद्रित है। पाठ में लिखी जानेवाली हर बात प्रामाणिक हो, इसके लिए हमने अतिरिक्त सतर्कता बरती लेकिन किसी बात को छिपाने की कोशिश नहीं की। इस तरह, उस पाठ में वैसी तमाम बातें आ गयीं जिनके बारे में कहा जा सकता था कि सत्ताधारी पार्टी निश्चित ही नहीं चाहेगी कि ऐसी बातें देश की अगली पीढ़ी के लोग याद रखें, जैसे : इंदिरा गांधी का निजी संकट को राष्ट्रीय संकट में तब्दील करना, इमरजेंसी का ऐलान कर देने के बाद मंत्रिमंडल को सूचित करना, मीडिया पर नकेल कसना, संजय गांधी का खुद को कानून और संविधान से ऊपर मानकर बर्ताव करना और इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों की तफसील।

इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों में दो घटनाएं अकसर चर्चा में आती हैं। इनमें एक है पुरानी दिल्ली के तुर्कमान गेट पर हुआ विध्वंस और केरल में पी. राजन की पुलिस हिरासत में हुई मौत। किताब के छठे अध्याय में विशेष खाने बनाकर इन दो घटनाओं के बारे में विद्यार्थियों को बताया गया है। आपातकाल के दौरान एक चलन चाटुकारिता का था और सत्ता की यह भी कोशिश थी कि लोग अपनी जबान बंद रखें। चाटुकारिता और मौन साध रखने की इस संस्कृति को भी छठे अध्याय में कुछ तीखे कार्टूनों और तस्वीरों के जरिए दिखाया गया है।

कैसे लिखा गया छठा अध्याय

अगली चुनौती थी कि किताब के मसौदे को सरकारी तंत्र की हरी झंडी मिल जाए। तीन प्रसिद्ध विद्वानों- रामचंद्र गुहा, सुनील खिलनानी तथा महेश रंगराजन- ने किताब का शुरुआती मसौदा पढ़ा था। रुटीनी तौर पर होनेवाली बारीक जांच और निगरानी की व्यवस्था तो थी ही, एनसीईआरटी ने एक खास उपाय और भी किया था- पांडुलिपि को पढ़ने के लिए विशेष समिति बनायी गयी थी। छठे अध्याय का एक-एक शब्द जोर-जोर से बोलकर पढ़ा गया, उसपर बहस हुई और मंजूरी मिली।

हर कोई जानता था कि असल मुद्दा पाठ में लिखी बातों की सच्चाई का नहीं है। असल मुद्दा है, कांग्रेस के राज में लगी इमरजेंसी की घटनाओं की सच्चाई बताने, खासकर पाठ्यपुस्तक में ऐसी बात बताने का राजनीतिक निहितार्थ। तो यों समझिए कि दांव पर सिर्फ छठा अध्याय या ‘स्वतंत्र भारत में राजनीति’ नाम की किताब ही नहीं बल्कि पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन का पूरा उद्यम लगा हुआ था और समझें तो प्रोफेसर कृष्ण कुमार की नौकरी (निदेशक, एनसीईआरटी) भी दांव पर लगी थी।

लेकिन यह श्रेय तो प्रो. कृष्ण कुमार को देना ही होगा कि उन्होंने हमें काम से विरत करने वाली एक भी बात नहीं कही। जब सारी समितियों ने किताब के मसौदे को हरी झंडी दे दी तो उन्होंने एक निवेदन किया- ‘प्रेस में जाने से पहले किताब के मसौदे को एक बार मंत्री को दिखा लिया जाए तो क्या आपको ठीक लगेगा?’ हमने हामी भर दी। आखिर, किताब में हमने जो कुछ भी लिखा था, उसके बारे में संसद में सवाल उठने पर उत्तर तो मंत्री को ही देना था। मंत्री ने पांडुलिपि को पढ़ने के लिए एक हफ्ते का समय मांगा।

ठीक एक हफ्ते बाद, प्रोफेसर कुमार ने मुझे और प्रोफेसर यशपाल से कहा कि शास्त्री भवन में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह से मिलना है, आप लोग चले आइए। सच कहूं तो उस घड़ी मुझे कुछ चिंता हुई क्योंकि अर्जुन सिंह की छवि एक चतुरी (विली पॉलिटीशियन) नेता की थी। नपे-तुले शब्दों में बात करने वाले अर्जुन सिंह ने तुरंत ही मुद्दे की बात पर आते हुए कहा : ‘मैंने पढ़ ली, मुझे कुछ खास नहीं कहना. मगर इन्हें कुछ पूछना था..‘

यहां ‘इन्हें’ से उनका मतलब अपने निजी सचिव (एक आईएएस) से था जो निश्चित ही मंत्री जी के मन की बात पूछनेवाले थे। निजी सचिव ने इमरजेंसी पर केंद्रित पाठ निकाला और पूछताछ शुरू कर दी : ‘सर, इन लोगों ने लिखा है कि इमरजेंसी विवादास्पद थी।’ निजी सचिव को जवाब ना देकर मै मंत्री की ओर मुखातिब हुआ : ‘सर, क्या आप अपने लंबे राजनीतिक जीवन के एक घटनाक्रम के रूप में इमरजेंसी को विवादास्पद नहीं मानते?’ जवाब में मुझे सोच में डूबी हुई एक ‘हां’ की ध्वनि सुनायी दी।

अगला सवाल : ‘सर, पाठ में शाह कमीशन की कही हुई बातों का हवाला दिया गया है लेकिन शाह कमीशन का तो कांग्रेस ने बहिष्कार किया था।’ मैंने एक तकनीकी नुक्ता रखते हुए बचाव का तर्क दिया : ‘लेकिन सर, आप भी इस बात को मानेंगे कि इमरजेंसी के बारे में यही एक आधिकारिक दस्तावेज है जिसे संसद में रखा गया और कभी निरस्त नहीं किया गया।’ सवाल-जवाब की शक्ल में बात ऐसे ही कोई आधा घंटा चली और पूरी बातचीत छठे अध्याय पर केंद्रित रही। एक नौकरशाह और प्रोफेसर के बीच चल रही इस बातचीत में मानो मंत्री की भूमिका किसी रेफरी की थी।

मेरा धीरज अब बस चुकने ही वाला था कि अर्जुन सिंह ने हाथ उठाकर अपने निजी सचिव को रुकने का इशारा किया। वे मेरी तरफ मुड़े और पूछा, ‘प्रोफेसर साहब, आपको लगता है, हमारा देश इसके लिए तैयार है?’ जवाब मेरे पास पहले से ही तैयार था : हमारा लोकतंत्र अब प्रौढ़ हुआ, इस (इमरजेंसी) वाकये पर सोच-विचार करना व्यवस्था को मजबूत बनाने का काम है, बारहवीं कक्षा के विद्यार्थी जल्दी ही वोट डालने जाएंगे, इसलिए उनका बातों को जानना तो बनता ही है। मैंने देखा कि मंत्री के होंठों पर एक तिरछी मुस्कान बस तैरने ही वाली है। मेरी बात को बीच में ही रोकते हुए अनुभव-वृद्ध प्रोफेसर यशपाल ने चहकते हुए स्वर में कहा : ‘सर, अब इन पंछियों को खुले आसमान में उड़ने दीजिए।’ मंत्री के होंठों पर कायम हो चली अकुलाहट अब उतनी ही चौड़ी मुस्कान में बदल चली जितने कि अर्जुन सिंह सरीखे तपे हुए नेता के रूखे चेहरे पर हो सकती है।

बैठक खत्म हुई, इबारत अब साफ हो चली थी कि हमने अपने हिस्से का काम कर दिया है, अब मंत्री के जिम्मे है कि वे इस बात को संसद और पार्टी में सँभालें। उन्होंने ठीक यही किया लेकिन मुझे नहीं पता कि आखिर कैसे किया। छठे अध्याय या यों कहें कि पूरी किताब से न एक शब्द हटाया गया न बदला गया। इमरजेंसी का प्रकरण जस का तस सरकारी स्कूल की पाठ्यपुस्तक में दाखिल हुआ और वह भी कांग्रेस के शासन के सालों में।

लेकिन आइए, अब पुरानी बात को छोड़कर साल 2021 के इस वक्त में आते हैं। अर्जुन सिंह आज नहीं हैं, ना ही आज हमारे बीच प्रोफेसर यशपाल, हरि वासुदेवन और जी.पी. देशपांडे मौजूद हैं। ऊपर की कहानी आज पांच दशक पुरानी जान पड़ती है। एनसीईआरटी स्वतंत्र भारत में राजनीति सहित अन्य पाठ्यपुस्तकों को हटाने में लगी है, कोशिश तो ये चल रही है कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की पूरी रूपरेखा को ही बदल दिया जाए। पाठ्यपुस्तक के पन्ने पलटते हुए मेरी नजर इसकी प्रस्तावना में लिखे शब्दों पर गयी जहां कहा गया है कि ‘पुस्तक भारतीय लोकतंत्र के प्रौढ़ होने का प्रमाण है।’

मैं अपने माथे पर बल डाले अर्जुन सिंह के सवाल को फिर से याद कर रहा हूं। भारत और बाकी कई मुल्कों में चली अधिनायकवाद की आंधी में मेरे उत्तर निस्तेज और जर्जर होकर आज चिन्दी-चिन्दी बिखर रहे हैं। उनका सवाल बड़ा सरल सा था लेकिन उस सवाल के अर्थ आज बड़े गहरे हो चले हैं।

(द प्रिंट से साभार )

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