
हँसकर, गाकर और खेलकर
हँसकर, गाकर और खेलकर पथ जीवन का
अब तक मैंने पार किया है, लेकिन मेरी
बात और है, ढंग और है मेरे मन का;
उसी ओर चलता है जिधर निगाह न फेरी
दुनिया ने। दुखों ने कितनी आँख तरेरी,
लेकिन मेरा क़दम किसी दिन कहीं न अटका –
घोर घटा हो, वर्षा हो, तूफ़ान, अँधेरी
रात हो। अगर चलते-चलते भूला-भटका
तो इससे मेरे संकल्पों को कुछ झटका?
लगा नहीं। जो गिरता-पड़ता आगे बढ़ता
है, करता कर्तव्य है, उसे किसका खटका;
पग-पग गिनकर पर्वत-श्रृंगों पर हूँ चढ़ता।
आभारी हूँ मैं, पथ के सब आघातों का,
मिट्टी जिनसे वज्र हुई उन उत्पातों का।
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