1.
इससे तो अच्छा था !
इस जीवन से अच्छा था!
मैं पैदल गांव जा रहे किसी मजदूर के
नंगे पैरों का जूता हो जाता!
या मैं एक राह भटके यात्री की प्यास का
पानी हो जाता
या एक धू धू दोपहर में
राख हो रही किसी बच्ची को घर पहुंचाने वाली
बस या बैलगाड़ी हो जाता
उसके घने घुंघराले बालों वाले सिर पर
नन्हीं गोल टोपी हो जाता
एक भूखी स्त्री के
पेट भरने का अन्न हो जाता
उबला हुआ भुना हुआ या कच्चा अन्न!
या उसके मलिन महावर वाले पैरों के नीचे
हरी दूब हो जाता!
जीवन ऐसे अकारथ जाए एकदम
चूक जाए इस पृथ्वी पर आना
इससे तो अच्छा था
किसी झूठे शासक को बांधने की
बेड़ी हथकड़ी हो जाता!
सड़क पर
एक हुंकार हो जाता।
इससे तो कहीं अच्छा था
मैं किसी सरकार की चिता की
लकड़ी हो जाता!
धधक कर
एक हाहाकार हो जाता।
2.
प्रतीक्षा है !
बहुत सारी रुलाइयां
दूर दूर से आकर घेर ले रही हैं
एक एंबुलेंस अभी अनेक सिसकियों को
समेट कर ले जा रहा है!
पूरा लंबा रास्ता द्रवित है एंबुलेंस के विषाद से
वह स्वयं क्यों जा रहा है रोता हुआ
किसे ले गए लोग?
क्यों ले गए लोग?
कौन लोग हैं जो रोना नहीं भूल पाए
अब तक इस भौतिक संसार में?
खिड़की खोल कर देखता हूं
बेमियादी कैद से
बाहर झांकने की यह एक नई सीमा है।
इस रुदन की कोई एक भाषा नहीं
सारे व्याकरण ध्वस्त हो गए हैं
फिर भी रुलाई का व्याकरण समझने को
क्यों परेशान हूं अभी तक?
दुख और यातना का कारण जान भी लूं
तो भी क्या कर लूंगा
फिर भी
किसे और क्यों ले गए लोग
यह ठीक ठीक जानने को आतुर
झांकता हूं बार बार बाहर!
यह मेरी विकलता मेरी विफलता है?
बाहर जाने की टूटी हुई कुंडी है मेरी उदासी?
मेरे भीतर बार-बार कोई कहता है
कि यह उदासी और आँसू का सूत्र है जीवन
जो हर बार मुझे सोते से जगा देता है
कहता हुआ कि समेट लो सामान
बुझा दो स्मृतियों को
मूंद दो पोथियों की आंखें
देख लो उस पौधे को जिसे लगाया पिछले
शुक्ल पक्ष के पखवारे में
कुछ देर में या अगली किसी रात में
तुमको ले जाने आए कोई
एंबुलेंस नए रुदन का समन करने!
खिड़की नहीं करता बंद
किताब नहीं रखता अलमारी में
नहीं समेटता सामान
खड़ा रहता हूं कितनी ही देर
न जाने किस प्रतीक्षा में
एक अनजानी रुलाई से लिपटा घिरा।
3.
आत्म निर्भरता !
पृथ्वी आत्म निर्भर है और सूर्य भी
यह कहा जा सकता है
लेकिन कोई नहीं है आत्म निर्भर
न चंद्रमा न बादल न समुद्र न तारे
सब टिके हैं एक दूसरे के सहारे!
पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी है उनका संबल
सूर्य देता है चंद्रमा को अपनी चमक अपनी रोशनी
समुद्र से जल लेते हैं बादल
और उसे पृथ्वी को लौटा देते हैं
थोड़े सुख दुख जोड़ कटौती के साथ!
पृथ्वी को लौटाना भी समुद्र को ही लौटाना होता है
नदियों को लौटाना भी समुद्र को लौटाना होता है।
कपडे निर्भर हैं धागों पर
धागे रुई कपास पर
कपास खेत पर
खेत सूर्य के ताप मेघ और जल पर
जल समुद्र पर
समुद्र टिका है पृथ्वी की गोद में
पृथ्वी टिकी है सूर्य चंद्र के खिंचाव और दुत्कार पर!
उदाहरण अनेक हो सकते हैं
पराए पर निर्भर होने के
तुम एक आत्म निर्भर का उदाहरण दे सकते हो क्या?
फेफड़े निर्भर हैं हवा पर
खून निर्भर है अन्न पर
शरीर निर्भर है पता नहीं कितनी चीजों पर
शब्द निर्भर हैं अक्षरों पर
अक्षर ध्वनियों पर
और ध्वनियां वायु और शून्य के विस्तार पर!
बहुत कुछ निर्भर है तुम्हारे देखने और न देखने पर
बहुत कुछ निर्भर है तुम्हारे सुनने और न सुनने पर
बहुत कुछ निर्भर है तुम्हारे बोलने और चुप रहने पर
तवा निर्भर है आंच पर
वह खुद गर्म नहीं हो सकती इतनी स्वयं से कि सेंक दे एक रोटी खुद के ताप से
बटलोई अन्न नहीं जुटा सकती और
हल खुद नहीं जोत सकते खेत
लोहा निर्भर है
हाथ भट्ठी और हथौड़े पर और उस निहाई पर कि वह हंसिया बने या कुछ और
और इस निर्भरता में भाथी और उसके उस चमड़े को न भूल जाएं जिस पर निर्भर है यह सब कुछ गला देने का व्यापार!
और उस पशु को भी नहीं भूलें जिसकी खाल से बनती है भाथी और उस हाथ और छुरे को भी नहीं जो उतारता है खाल
और बनाता है भाथी!
वह अकेला पेड़ भी आत्म निर्भर नहीं है
वह जितना पृथ्वी पर निर्भर है
उतना ही पृथ्वी की नमी पर
और उस हवा पर भी जो नहीं दिखती
न तुम्हें न उस पेड़ को!
तुम जो कुछ और जहां तक देख रहे हो या नहीं भी देख रहे हो सब निर्भरता का खेल है यह
निर्भरता सृष्टि का जल है!
जहां निर्भरता का जल नहीं वहां कोई लोरी नहीं कोई झिल मिल नहीं
कोई गीत नहीं!
पैदल जाते लोगों के घाव पर निर्भर है यह जनतंत्र
तुम इनसे आत्म निर्भर होकर दिखाओगे क्या?
तुम हजार जन्म लेकर भी आत्म निर्भरता का
कोई एक उदाहरण बताओगे क्या?
4.
हमारे पास मत आओ !
लोग जा रहे हैं
लाखों लोग जा रहे हैं
पैदल उदास
भूल कर भूख प्यास
दिशा समय धूप छाले
भूल कर चलते जा रहे हैं!
मैं कुछ दूर भाग कर चलता हूं उनकी दिशा में
जैसे मृतक के साथ चलने का रिवाज है
मैं चलता हूं चालीस कदम उनकी ओर
कुछ एक को देना चाहता हूं कंधा
किन्तु यह सब किए बिना
लौट आता हूं खुद तक!
खुद को कंधा देता हुआ पाता हूं!
वे सब मेरे भाई हैं
वे सब मेरे गांव के हैं
वे सब मैं हूं!
वह भीड़ मैं हूं!
वे छाले मेरे पैरों में हैं
वह पानी पीने को अंजुलि पसारे बैठा मैं ही हूं
वह रास्ते में रो रही है मेरी मां
वह दूर गिरा है मेरे बेटे का शरीर निर्जल
वह मेरी बेटी एक राख के चट्टान पर शून्य बैठी है!
उसकी दृष्टि में धूल और राख भरी है
वह रोती है राख के आंसू!
वह देखो अपने गर्भ को सम्हाले जा रही है मेरी मां!
उससे जन्म लूंगा मैं पैदल यात्रा में मरने के लिए!
रास्ते में कोई नहीं गाएगा मेरे जन्म मरण का सोहर!
इस तीन रंग वाले चक्रधारी झंडे के देश में
ऐसे जाने का कोई निशान नहीं मिलता
न राम ऐसे गए थे
न पांडव न सिद्धार्थ गौतम
हम एक ऐतिहासिक दृश्य हो गए हैं
सुखी लोगों को चमत्कृत करते
समाचारों के लिए ऊब
और सरकारों के लिए सूखी दूब हम!
बहुत दूर है अपनी अयोध्या
बहुत दूर है अपनी मिथिला
रावण खर दूषण के जंगल में घिर गए हैं हम
के निहत्थे हम पैदल हम भूखे हम
हमारे धनुष बाण हमने खुद खोए हैं
यह वनवास हमने खुद लिया था
यह वापसी हमारी अपनी है
हम हारे हुए राम हैं भाई
हमारे पुष्पक विमान रावनों की कैद में हैं
कितने विभीषण कितने हनुमान कितने बालि कितने सुग्रीव सभी रावनों से संधि करके पा गए हैं राज्य!
अब नहीं जलती लंका
उसके चौकीदार हम ही थे
उसी लंका से खदेड़े हुए हम
निष्कासित हम
पैदल पैदल अपनी अयोध्या जा रहे हैं!
छालों के जूते पहन कर
उदासी का मुकुट बांधे
पराजय का प्रशस्ति पत्र गले में लटकाए
अश्वमेध के बलि अश्व की तरह
अपनी भूमि की ओर खिसक रहे हैं हम।
हम लाखों लोग
हम अबोध बच्चे हम बूढ़े लोग
हम युवतियां हम बहुएं हम पराजित पुरुष
हम बिके हुए अवध मिथिला के लोग
हम प्राण बचाते निर्लज्ज अपना घाव दिखाते
यहां वहां धक्का खाते
पेट बजा कर पैसा पाते
घिसट घिसट पैर बढ़ाते
लाखों लोग जा रहे हैं!
हम भीड़ की फोटो हैं
हम पराजय के प्रतीक हैं
हम एक देश की शव यात्रा हैं!
हमें जाते हुए देखो
और उदास हो जाओ
हमें दूर से देखो
हमारे पास मत आओ!
5.
जा पाते तो !
पत्तियां सब छोड़ कर चली गईं
जा पाते तो पेड़ भी जाते
उनके साथ
उनकी अंगुली पकड़े।
वे वहीं रुके रहे कि अगर बिछुड़ी हुई अनेक पत्तियों में से कोई लौट आई
अपनी टहनियों और डालों को खोजती तो
उसका क्या होगा?
अगर खो गईं परछाइयां लौट आईं तो
उन को खड़े होने के लिए छाया कौन देगा
यह सोच कर वर्षों वहीं खड़े रहे निपात पेड़!
कई बार तो वे पेड़ भूल गए कि
वे एक चौराहे पर खड़े हैं
वे यह भी भूल गए कि लोगों को उनका वहां खड़ा रहना सहन नहीं हो रहा
लेकिन छाल छिल जाने पर भी
ढीठ खड़े रहे
डाल कट जाने पर भी
काठ हो कर भी
खड़े रहे।
वे खड़े रहे कि
अगर अपनी तरंगों को खोजती वापस
आती है हवा
तो वह किसे हिला कर अपना आना बताएगी
वह किस कोटर में अपना डेरा जमाएगी?
पेड़ तब जाते हैं कहीं
जब उनसे पृथ्वी की उदासी
बादलों की बेरुखी
और तारों का शोक सहन नहीं होता।
एक चूहा रहता है जर्जर जड़ों में
वह निराश्रित हो जाएगा
पेड़ के चले जाने पर
यह सोच कर युगों तक
खड़े रहे पेड़ एक जगह
चूहे के पहले जड़ में रहता था एक नाग
उसके पहले एक नेवले का पता थे पेड़
उस नाग और चूहे के साथ एक बगुले का स्थायी पता थी उनकी जड़।
पेड़ इसलिए भी खड़े रहे कि
उनके कहीं और चले जाने से चींटियां भूल जाएंगी घर की राह
वे अचल खड़े रहे
मार खाते काटे छाटे जाते।
कई बार वे जाना चाहते थे चुपचाप
लेकिन उस समुद्र की सोच कर रुक जाते रहे
जो उनसे कुछ ही दूरी पर पड़ा है युगों से
कराहता विलपता!
उन्होंने तय किया जब खारी समुद्र को मिल जाएगा दूसरा घर दूसरी पृथ्वी दूसरा तट
तब जाएंगे वे कहीं और।
पेड़ों के खड़े रह जाने की अनेक बुनियादी बातें हैं
जो या तो पेड़ों को पता हैं या पानी की उन बूंदों को जिनसे पिछली बरखा में पेड़ों ने वादा किया था कि “हम उस दिन सूख जाएं
जिस दिन जल और बूंदों को भूल जाएं”
पेड़ तब जाते हैं कहीं
जब पखेरू उन पर बसेरा करना छोड़ देते हैं
सूर्य उनकी पीठ सेंकने से इंकार कर देता है
क्षीण हो गया चंद्रमा
अपनी अमावस्या की गुफा में जाने के पहले
“हे विटप लौट आऊंगा” कह कर नहीं जाता
जब लकड़हारों को उन पर कुल्हाड़ी चलाने का कोई पछतावा नहीं होता
तब जाते हैं कहीं और
उदास अकेले पैदल पैदल पेड़!
नहीं तो तुम ही बताओ
तुमने किसी पेड़ को स्वयं से
कहीं जाते देखा है?