गोवा मुक्ति आंदोलन का एक अध्याय – चंपा लिमये : पहली किस्त

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(यह गोवा की आजादी की आजादी का साठवां साल है और गोवा क्रांति दिवस का पचहत्तरवां साल। एक और महत्त्वपूर्ण संयोग यह है कि यह मधु लिमये की जन्मशती का वर्ष भी है जिन्होंने गोवा मुक्ति में सत्याग्रही के अटूट साहस, तप और सहनशक्ति का परिचय दिया था। 18 जून 1946 को डॉ राममनोहर लोहिया ने गोवा मुक्ति आंदोलन आरंभ किया था। इस आंदोलन का दूसरा चरण 1954-55 का सत्याग्रह था जिसमें मधु लिमये की अग्रणी भूमिका रही। चंपा लिमये ने उन दिनों की कुछ झलकियां शब्दबद्ध की हैं। चंपा जी का यह लेख गोवा लिबरेशन मूवमेंट ऐंड मधु लिमये पुस्तक का हिस्सा है जिसका हिंदी अनुवाद रविवार साप्ताहिक में छपा था, शायद 1987-88 में। रविवार में प्रकाशित वही लेख यहां प्रस्तुत है।)

चंपा लिमये (18 दिसंबर 1928 – 10 नवंबर 2003)

पंद्रह मई, 1955 का दिन। हमारी शादी की तीसरी सालगिरह थी। यह दिन कितना महत्त्वपूर्ण बननेवाला था, इसकी मुझे तनिक भी कल्पना नहीं थी। हम दोनों सागर के किनारे बैठे थे। डूबते सूरज की लालिमा सागर की नीली तरंगों पर नाच रही थी। जलाशय शांत था, लेकिन मधु जी के मनःसागर में बड़ी आंधी बह रही थी और उस वक्त इसका मुझे पता नहीं था।

उसी शाम गोवा आंदोलन में शरीक होने का अपना निर्णय मधु जी ने बताया। देश की स्वतंत्रता के लिए कटिबद्ध लोगों से गोवा की गुलामी कैसे सही जाती? यद्यपि पंडित जी ने उसे ‘भारत माता’ के चेहरे पर ‘मुहांसा भर’ माना था, फिर भी अन्य स्वतंत्रता प्रेमी भारत माता के चेहरे के इस कलंक को धोना चाहते थे। 1946 से डॉक्टर लोहिया जैसे नेताओं ने गोवा के स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों के सहयोग से अनेक प्रयत्न किये थे। 1954 से गोवा आंदोलन ने फिर जोर पकड़ा था। सुधाताई जोशी जैसी वीरांगनाएं भी उसमें सम्मिलित हुई थीं। 1955 में वयोवृद्ध सेनापति बापट, नानासाहब गोरे, शिरुभाऊ लिमये आदि लोगों ने आंदोलन की कमान सँभाली। कई विपक्षी राजनीतिक दल भी उसमें शामिल हो गये।

मधु जी के गोवा सत्याग्रह में शरीक होने के निर्णय के बाद दिन बड़ी तेजी से दौड़ने लगे। वे लगातार दौरे पर थे। समाजवादी दल में बड़ी उथल-पुथल हो रही थी। 11 जुलाई को अनिरुद्ध की पहली वर्षगांठ थी। उसे मनाकर वे जानेवाले थे। दूसरे दिन दादर स्टेशन पर विदा के क्षण उसकी आंखें आंसुओं से छलछला आयीं। अपने नन्हें-नन्हें हाथों से मधु जी के गले से वह लिपट गया।

पूना में प्रसिद्ध शनिवारवाड़ा के सामने विदाई की सभा हुई। काफी भीड़ उमड़ पड़ी थी। पूना से मधु जी अन्य सत्याग्रहियों के साथ बेलगांव गये और वहां से आरोंदा के लिए रवाना हुए। 25 जुलाई की रात को उनका जत्था आरोंदा से निकलनेवाला था। उन दिनों मधु जी बहुत बीमार थे। लगभग एक महीने से वे सांस की बीमारी से परेशान थे। उस दिन सुबह से उन्हें तेज बुखार भी था। ऐसी अवस्था में वे सत्याग्रह न करें, ऐसा उनसे काफी अनुरोध किया गया, लेकिन वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। उनके जत्थे में महाराष्ट्र के कोने-कोने से आए हुए 90 सत्याग्रही थे। उनके साथ मराठवाड़ा से जो जत्था जानेवाला था, उसके नेता थे- काका देशमुख।

रात को मूसलाधार वर्षा हो रही थी, उसी में ये लोग गोवा की सीमा की ओर चल पड़े। आषाढ़ महीने की अँधेरी रात। बारिश के बीच बिजली की चमचमाहट और बादलों की गड़गड़ाहट। इस कारण रात और भी डरावनी लग रही थी। उसी में खाड़ी पार करते वक्त मधु जी का पैर एक नुकीले पत्थर से कट गया। साथ के लोगों ने दवाई लगाकर घाव को रूमाल से बाँध दिया। वे लँगड़ाते हुए चल रहे थे। राष्ट्रध्वज हाथ में लेकर भारत माता की जय-जयकार करते हुए, गोवा की स्वतंत्रता के नारे लगाते हुए सत्याग्रहियों का यह दल आगे बढ़ रहा था। राह दिखानेवाले सुबह तक साथ रहे। सूरज उगते ही आगे का रास्ता समझाकर वे वापस चले गये। इन लोगों के बारे में ऐसा कहा जाता था कि वे पुर्तगालियों से मिले हुए थे, इसलिए सत्याग्रहियों को रात भर चलाकर काफी थका देते थे।

सत्याग्रही जब पेडणे गांव के पास पहुंचे, तब जीपों में पुर्तगाली पुलिस वहां आयी। सत्याग्रहियों की मरम्मत करने के लिए वे एकदम तैयार थे। लाठी-काठी, डंडे, रबर की बेंतें लेकर वे उन पर टूट पड़े। हम कहते हैं, पशुओं की तरह पीटा, लेकिन वास्तव में मवेशियों को भी कोई इतना नहीं पीटता। काफी पिटाई करके बाकी लोगों को उन्होंने ट्रकों में भर दिया। मधु जी के पेट में मिलिटरी जूते से एक जबरदस्त लात मारकर कीचड़ में घसीटते हुए उन्हें जीप में फेंक दिया। उनका सारा बरताव अमानवीय था। सभी सत्याग्रहियों को वे पेडणे पुलिस स्टेशन ले आए और उनके नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगे।

बाद में मधु जी ने मुझे बताया कि मुसलिम और ख्रिस्तान सत्याग्रहियों को पुर्तगाली पुलिस ज्यादा पीटती थी। वे सोचते थे, भारतीय सत्याग्रही यानी हिंदू, मुसलिम और ख्रिस्तान लोग उनका साथ क्यों दें? उनसे उन्हें बड़ी चिढ़ थी, उन सत्याग्रहियों को ज्यादा पीटते थे। इसीलिए अपने जत्थे में जो मुसलिम और ख्रिस्तान लोग थे, उनसे मधु जी ने पहले ही कहा था, ‘अपने असली नाम मत बताओ।’ इसके बावजूद पुर्तगालियों को एक सत्याग्रही के बारे में शक हुआ और उसको उन्होंने बड़ी निर्ममता से पीटा। पेडणे पुलिस स्टेशन पर सत्याग्रहियों को अंदर ले जाकर आयोडीन लगाने का नाटक उन्होंने किया। फिर उन्हें सीढ़ियों पर लाकर कतार में बिठा दिया और एक-एक करके पुलिसवाले आते थे, वे अपनी बेंतों से हरेक के सिर पर प्रहार करते थे। मार-मार कर उनके बेंत टेढ़े हो गये, पर वे उन्हें सीधा करके फिर पीटना शुरू करते थे।

सत्याग्रहियों के सिर पर काफी चोटें आयीं। पेडणे पुलिस स्टेशन के बगल में कुछ पुर्तगाली औरतें खड़ी थीं। ‘और जोर से पीटो’ कहकर वे पुलिस को उकसा रही थीं। कुसुम-कोमल रमणी-हृदय ऐसे समय कितना क्रूर बन जाता है, इसका यह नमूना था। पुलिस ने जब बार-बार पीटना जारी रखा, तब मधु जी गुस्से से उठकर बोले, ‘तुम्हें जितनी भी पीटना है, एक बार दिल भर के पीट लो। बीच-बीच में यह दवाई लगाने का स्वांग किसलिए?’ मधु जी की इस बात से वे शर्मिंदा हुए और उन्होंने पीटना बंद किया।

बाद में मधु जी को पेडणे से म्हापसा पुलिस स्टेशन ले जाया गया और वहां से शाम को उन्हें पणजी कार्तेल (हेड क्वार्टर्स) लाया गया। पूरे दिन न उनको एक बूंद पानी मिला, न एक कौर खाना। पानी मांगते ही पुर्तगाली पुलिस मजाक के स्वर में कहती थी, ‘यहां पानी-वानी कुछ नहीं मिलेगा। यहां सिर्फ कोन्याक या फेणी मिलेगी। वरना पियो जी-भरकर समुंदर का पानी।’ बरसात के दिन थे, इसीलिए इतने घंटे मधु जी पानी के बिना रह सके। हां, बीच-बीच में उन्हें लातों तथा घूंसों का प्रसाद बार-बार खिलाया जाता था।

कार्तेल पर उन्होंने मधु जी को आर्मरी (हथियारों) के कमरे में रखा। शाम के समय अपने-अपने हथियार जमा करने के लिए वहां आनेवाला हर गोरा पुर्तगाली सिपाही अपनी स्टेनगन मधु जी के सीने से लगाकर कहता था, ‘ओ हो! सत्याग्रही? गांदी? (गांधी)’। यह भयानक उत्पीड़न था। मधु जी मन ही मन कह रहे थे, ‘अगर ये लोग मुझ् सचमुच गोली से उड़ा दें, तो अच्छा होगा।’ आखिर सारे गोरे सिपाही तथा नीली वर्दी पहने बाकी के पुर्तगाली लोग भी वहां से चले गये। वहां बाकी रहा एक काला गोवा का पुलिसमैन। उसने चुपचाप सारा कांड देखा था। वह मधु जी से पहले ही बोला था, ‘आप इन लोगों से कुछ मत कहिए, वरना क्या पता ये पागल लोग आपको सचमुच ही गोली से उड़ा दें।’ बाद में उसने मधु जी से खाने-पीने की पूछताछ की। पूरे 24 घंटों से उन्होंने कुछ भी खाया-पिया नहीं था। यह जानने के बाद वह उनके लिए थोड़ी दाल, डबल रोटी और एक कप चाय ले आया। मधु जी के पैसे पहले ही गायब कर दिये गये थे। अंदर की जेब में जो थोड़े-से पैसे बचे थे, वे अब काम आये।

उसके बाद एक मिस्तिझो (अर्ध गोरा) अफसर वहां आया। वह मधु जी को पुलिस लॉकअप में जाते वक्त अपनी पुर्तगाली अंगरेजी में बोला, ‘गोवा नो प्लेस फॉर पॉलीतीक। आज हम तुम्हें बंद कर रहे हैं। कल हम तुम्हारी अच्छी खबर लेंगे।’ इस तरह धमकाकर उसने उनको जगन्नाथराव जोशी की कोठरी में बंद किया। पणजी कार्तेल लाने तक उन्होंने मधुजी को राक्षसी ढंग से पीटा था। किंतु पुलिस लॉकअप में बंद कर देने के बाद वास्तव में उन्होंने उनको छुआ तक नहीं था। जगन्नाथ राव, मधु जी की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि मधु जी के सारे कपड़े खून से रंगे तथा कीचड़ से गंदे हैं, तब उन्होंने प्यार से खद्दर का एक साफ पायजामा तथा खद्दर का ही पीले रंग का एक साफ कुरता उनको पहनने के लिए दिया।

मधु जी के कपड़े मारपीट से फट भी गये थे। वे जब कपड़े बदल रहे थे, तो जगन्नाथराव जी ने देखा कि मधु जी का शरीर बिलकुल काला-नीला पड़ गया है। तब उन्होंने मधु जी को सोने के लिए एक लकड़ी का तखत दिया। थके-मांदे मधु जी उसपर सो गये, लेकिन असीम वेदना से वे रात भर कराहते रहे।

यहां वापस आये सत्याग्रहियों ने बताया कि मधु जी की अवस्था गंभीर है। लहूलुहान मधु जी को जब पेडणे पुलिस लॉकअप में ले गये, तो उनका मन भीषण आशंका से सिहर उठा। उन्हें लगा कि इन दुष्टों ने उनको सचमुच ही मौत के घाट उतारना चाहा होगा। वापस आने पर सत्याग्रहियों ने यहां जो अफवाहें उड़ायीं, उससे भयंकर महाभारत हुआ।

(अगली किस्त कल)

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