— हिमांशु जोशी —
अगर आप ऐसी किसी ख़ालिस किताब के बारे में सोच रहे हैं जो आपको साहित्यिक पाठ पढ़ाए या आपकी राजनीतिक विचारधारा को बदले तो आप गलत जगह हैं।
सड़क पर आप कई बार खाकी की तरफ से खुद को रोके जाने पर उससे भिड़े होंगे। नाटकों में बिन दाढ़ी बनाए इन्स्पेक्टर के ‘सिपाही साहब के लिए कुर्सी लगाओ’ आदेश पर खुद को वही इंस्पेक्टर समझ इतराए होंगे या अस्तव्यस्त वर्दी पहने फ़िल्मी आईपीएस के दो कारों के बीच टांग फैलाने से खुद को राबिनहुड या दबंग समझे होंगे पर सच यह है कि आप वास्तविकता को नहीं जानते।
उत्तराखंड पुलिस के डीजीपी की पहली किताब जो उनकी डायरी से निकले अनुभवों से बनी आत्मकथा के रूप में है, आपको मेरी तरह सात से आठ घण्टे लगातार बाँधे रह सकती है। जिसके लिए अशोक कुमार कहते हैं कि इसे लिखने के लिए उन्हें वी.सी.गोयल की पुस्तक ‘द पॉवर ऑफ इथिकल पुलिसिंग’ से प्रेरणा मिली और इस पुस्तक को सजाने के लिए वह हिंदी के प्रसिद्ध लेखक लक्ष्मण सिंह बटरोही को धन्यवाद देते हैं। यह ऐसी किताब है जिस पर वास्तविक हालात को दिखाते हुए ‘दबंग’ से ज्यादा हिट हिंदी फिल्म बनायी जा सकती है।

गांव से आईआईटी का सफ़र तय करनेवाले अशोक के मन में भारत के अमीर-गरीब की दूरी को पाटने का एक ही समाधान सिविल सर्विसेज था और वह उससे जुड़ गए। किताब में लेखक ने अपनी इसी नौकरी के अब तक मिले अनुभवों को सोलह भागों में बांटा है। वह अपनी नौकरी के शुरुआती दिनों में आयी मुश्किलों से आगे बढ़ते धीरे-धीरे खुद को समाज-हित में समर्पित कर देते हैं।
हर पाठ की शुरुआत किसी मशहूर कविता, गद्य काव्य या लेखक की डायरी में लिखी कुछ पंक्तियों से की गयी है जो यह स्पष्ट कर देती हैं कि आनेवाला पाठ किस ओर रुख मोड़ेगा, उदाहरण के तौर पर भूमाफियाओं पर तंज कसने के लिए टॉलस्टॉय की कहानी के किरदार पाहोम के लिए इस्तेमाल की गयी पंक्ति।
पहले ही पाठ में लेखक अपने ही सिस्टम से लड़ते पीड़ित को जिस तरह न्याय दिलाते हैं वह अन्य युवा अधिकारियों के लिए भी उदाहरण है। आगे लेखक पुलिस के अंदर अंग्रेज़ी शासन के प्रभाव और एक आम आदमी को साहेब बना देने पर भी चर्चा करते हैं।
ट्रेनिंग में किताबों से वास्तविक परिस्थितियों से परिचय कराता सफ़र लेखक को बहुत कुछ सिखाता है और वह उसे जनता को भी समझाना चाहते हैं, जैसे रजिस्टर नम्बर आठ का वर्णन।
‘कहीं-कहीं तो बैलों की जगह जुता हाड़मांस का पिंजर इंसान’ जैसी पंक्तियां साहित्यिक तो वहीं आम बोलचाल की भाषा की जस की तस लिखी ‘यदि अधिकारी बनकर तने रहोगे तो जिंदगी पर कुछ नही सीख पाओगे’ पंक्तियां दिल को छू जाती हैं।
अपहृत की स्थिति बताने के लिए प्रयोग की गयी पंक्ति ‘पानी की कमी से उनके होंठों पर पपड़ियां जम गयी थीं और उनके चेहरे पर मौत का खौफ़ साफ़ झलक रहा था’ अपहृत की स्थिति का वास्तविक चित्रण करती है। महिलाओं के प्रति होनेवाले अपराधों की बहुत सी घटनाओं पर लिखा गया है और साथ ही उसमें प्रयोग की जानेवाली धाराओं से परिचय भी कराया गया है।
पंचायत के फरमान पर सोलह लोगों द्वारा एक महिला से किये गये सामूहिक बलात्कार की घटना हमारे समाज में आजादी के इतने वर्षों बाद भी हो रही तालिबानी हुकूमत को दिखाती है। छोटी लड़की के साथ हुए घृणित कार्य वाले किस्से में समाज में रक्तदान को लेकर व्याप्त भ्रांतियों को दूर करते हुए सामाजिक सन्देश देने की कोशिश भी की गयी है।
वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में तीन दशक पूर्व शुरू हुए आतंकवाद को ख़त्म करने के अपने अनुभवों को याद करते लेखक बताते हैं कि जनता और पुलिस एक दूसरे के सहयोग बिना अधूरी है। आतंकियों के परिवार या आतंक का रास्ता छोड़ चुके इंसान पर पुलिस की तलाशी का क्या फर्क पड़ता है और खुद पुलिस तब क्या सोचती है यह आप किताब पड़ जान सकेंगे। साथ ही आतंकवादी रह चुके आदमी से मिलते समय उसके और उसके परिवार के बीच पैदा हुआ खौफ़ लेखक को अपने शहीद पुलिस अधिकारी के परिवार की याद दिलाता है, यह वृतांत भावुक करता है।
हरिद्वार हो या मथुरा की कहानी, लेखक अपने अनुभवों को जिस तरह लिखते हैं वह रोचकता तो बनाये ही रखते हैं, साथ ही समाज में पुलिस की भूमिका को भी स्पष्ट करते हैं। क़िताब पाठकों को बाँधे रखती है। किसी भी नए पाठ, विषय या घटना को शुरू करने से पहले लेखक ने उसकी पृष्ठभूमि भी भलीभांति समझायी है।
कविता से शुरू हुआ अंतिम पाठ साहब और सन्तरी के बीच की दूरी तथा पुलिस और समाज के संबंध को पूरी तरह से हमारे सामने रख देता है।
अकसर पुलिस के भ्रष्टाचारी कहलाने पर पर अशोक कुमार पुलिस का पक्ष रखते हैं जो प्रभावित करता है। ठुल्ला, निठल्ला जैसे तंज सुनते रहने का वह पुलिस की कठिन ड्यूटियों का हवाला देते जवाब देते हैं तो पुलिस पर पड़ रहे राजनीतिक प्रभावों पर भी पूरी तरह से स्थिति स्पष्ट कर देते हैं।
किताब का उद्देश्य है कि आम आदमी पुलिस के अंदर झांक उसके बारे में सब समझ सके। यह किताब आपको रह- रहकर बिकरु कांड की याद दिलाएगी तो अपने थाने-चौकियों में लगे चक्कर भी आपको याद आ जाएंगे।
उस ख़ाकी में इंसान को जिसके पास कोई जाना नहीं चाहता पर उसकी जरूरत हर किसी को है जानने के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
लेखक- अशोक कुमार ,साथ में लोकेश ओहरी।
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