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सन 1857 के गदर के बाद तीन महत्त्वपूर्ण और निर्णायक चरण राष्ट्रीय आंदोलन के हैं। पहला लाहौर षड्यंत्र केस, जिसमें शहीदे आजम भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा हुई थी। दूसरा मास्टर सूर्यसेन के नेतृत्व में हुआ, चटगांव के शस्त्रागार पर उनके सुप्रशिक्षित साठ शिष्यों ने धावा बोल कर कब्जा कर लिया था। जलालाबाग की पहाड़ी पर ब्रिटिश फौज के साथ भीषण संग्राम हुआ था, जिसमें 12 किशोर क्रांतिकारी शहीद हुए थे। तीसरा अगस्त क्रांति है। 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने मुंबई में ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। उसी दिन गांधी समेत तमाम दिग्गज कांग्रेसी नेता बंदी बना लिये गये थे। युवा समाजवादी नेताओं- जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफअली और दीगर क्रांतिकारियों ने इसे राष्ट्रव्यापी बनाया था। इसी क्रांति का नतीजा था कि महाराष्ट्र का सतारा, उत्तर प्रदेश का बलिया और बंगाल का तामलुक कुछ अरसे के लिए ब्रिटिश दासता से मुक्त हो गया था।इसी अगस्त क्रांति के एक अग्रणी सेनानी सीताराम सिंह जी थे।
यूं तो असंख्य स्वाधीनता सेनानी हुए मगर कुछ सेनानी विशेष कांडों के लिए सदैव स्मरणीय बने रहेंगे। सीताराम सिंह इसी विशेष कोटि में आते हैं।
सीताराम सिंह, हाजीपुर जिला स्थित कुशहर खास गांव के निवासी थे। हाजीपुर के संदर्भ में जिक्र करना अवांतर लेकिन प्रासंगिक है कि बांग्लादेश के राष्ट्रकवि नजरुल इस्लाम के पुरखों की यह धऱती है। फणीन्द्र घोष की मुखबिरी से शहीद भगतसिंह को फाँसी की सजा मिली थी। हाजीपुर के ही बैकुंठ शुक्ल ने फणीन्द्र घोष की हत्या करके फाँसी की सजा पायी थी। भगतसिंह ने कुछ अरसे तक हाजीपुर में गुप्त प्रवास भी किया था। हाजीपुर के ही योगेन्द्र शुक्ल, बसावन सिंह व किशोरी प्रसन्न सिंह, भगतसिंह के सक्रिय सहयोगी थे।
सीताराम सिंह की गिरफ्तारी 11 अगस्त 1942 को ही हो गयी थी। 14 अगस्त 1942 को बाहरी व भीतरी शक्ति की मदद से जेल तोड़कर सीताराम सिंह व दूसरे क्रांतिकारी बाहर आ गये थे। ब्रिटिश दमन भी बेतहाशा बढ़ गया था। जयप्रकाश नारायण के निर्देश पर ‘आजाद दस्ता’ का गठन किया गया था। सीताराम सिंह आजाद दस्ता में शामिल हो गये थे। सेना से बगावत करके भागे नित्यानंद सिंह आजाद दस्ता के सेनानियों को नेपाल के जंगल में ‘सैन्य प्रशिक्षण’ दे रहे थे। उसी ट्रेनिंग कैम्प का निरीक्षण करने जयप्रकाश और राममनोहर लोहिया नेपाल आ रहे थे। खुफिया विभाग ने इन क्रांतिकारियों का पता लगा लिया था। जब वे दोनों सूखी हुई मोरंग नदी को पार कर रहे थे तो नेपाली कर्नल द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये।
जेपी और लोहिया को नेपाल के हनुमान नगर जेल में डाल दिया गया था। ब्रिटिश हुकूमत ने जेपी और लोहिया को पकड़ने के लिए भारी रकम इनाम के रूप में घोषणा की थी।
गिरफ्तारी की सूचना गुलाबचंद्र गुलाली उर्फ गुलाली सोनार (जो भगतिसंह और चंद्रशेखर आजाद के भी साथी थे) ने कैम्प में पहुंचायी- साहेब गिरफ्तार हो गये। साहेब, जयप्रकाश जी का छद्म नाम था। तकरीबन पच्चीस की संख्या में आजाद दस्ता के सेनानियों ने हनुमान नगर जेल की ओर कूच करने का निर्णय लिया। करीब बीस मील की दूरी पर कैम्प से हनुमान नगर जेल था। 23 मई 1943 की सुबह इन पच्चीस युवा क्रांतिकारियों का जत्था सूरज नारायण सिंह (जेपी को हजारीबाग जेल से भगाने में भी इनकी अहम भूमिका थी, जेपी के हनुमान के रूप में विश्रुत सूरज बाबू को कांग्रेसी हुकूमत में रांची में उषा मार्टिन के मजदूरों के पक्ष में अनशन करने के कारण सत्ताधारी गुंडों ने बर्बर हमला करके मार डाला था) के नेतृत्व में चला। पांच सेर मिश्री (जमायी हुई चीनी) ही इन लोगों को पाथेय था। दलबहादुर सिंह मार्गदर्शक थे।
पूरा दिन और आधी रात पैदल सफर करके लगभग डेढ़ बजे रात ये लोग हनुमान नगर जेल पहुंचे। कांटे वाली तार को कंबल बिछाकर काटा गया। ध्यान बँटाने के लिए सरकारी गोदाम में आग लगा दी गयी। जेल के मुख्य द्वार पर सूरज नारायण सिंह और गुलाली सोनार थे। दूसरे गेट पर सीताराम सिंह, बेचन शर्मा व अमीर सिंह थे। इसी बीच इन लोगों ने हमला बोल दिया। दो-तीन संतरी मारे गये। सीताराम सिंह ने दो बंदूकें छीनीं। एक गोली सीताराम सिंह के बायें पाँव को छेदते हुए निकल गयी। गोलीबारी में पहले ही निकल आये जयप्रकाश जी। डॉ लोहिया गोलीबारी के बीच अपना चश्मा ढूंढ़ रहे थे। इससे क्रुद्ध होकर पटना के देवी सिंह ने लोहिया को एक धौल जमाया। डॉ लोहिया ने सहज भाव से कहा था, “हमको क्यों मारते हो, हम तो चश्मा ढूंढ़ रहे हैं।”
इस तरह सुरक्षित जेपी और लोहिया को निकाला गया। जयप्रकाश जी से चला नहीं जा रहा था। एक बारात जा रही थी, जिसमें दूल्हा घोड़ा पर सवार था। घोड़ा छीनकर जयप्रकाश जी को उसपर बिठाया गया। जेपी और लोहिया अलग-अलग दिशा में निकले।
(बाकी हिस्सा कल)