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हनुमान नगर से भागने के क्रम में सीतामढ़ी के माधोपुर गांव में सीताराम सिंह और श्यामनंदन सिंह पकड़े गये। भीड़ के द्वारा सीताराम सिंह के ऊपर भाले से हमला किया गया, जो इनकी दायीं छाती में लगा। लाठी-डंडा से पिटाई की गयी। गिरफ्तार करके मुजफ्फरपुर जेल में रखा गया। बाईस वर्ष तीन माह की सजा हुई। बाद में सीताराम सिंह, श्यामनंदन सिंह, नारायण सिंह और अमीर सिंह को क्रिमिनल जेल बक्सर भेज दिया गया। इनके टिकट पर लिख दिया गया- डैंजरस ऐंड डेस्परेट।
राजनैतिक बंदी का दर्जा पाने के लिए इन लोगों ने बक्सर जेल में अनशन शुरू कर दिया था। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह के विशेष आग्रह पर लोगों ने अनशन खतम किया था (सात लोग अनशन पर थे)। कुल पैंतालीस दिनों तक अनशन चला था। दुर्भाग्य से उसी रात श्यामनंदन सिंह की मृत्यु हो गयी। इसके बाद इन लोगों को हजारीबाग जेल भेज दिया गया।
आजादी के बाद सीताराम सिंह डॉ. लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। आजादी के बाद भी सीताराम सिंह किसानों-मजदूरों-छात्रों की लड़ाई लड़ते हुए बार-बार कारावास गये। बिहार आंदोलन में भी सीताराम सिंह ने सक्रिय भाग लिया था। 1970-76 तक सीताराम सिंह राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
18 मई 2018 को सीताराम सिंह सौवें साल में प्रवेश कर गये थे। समाजवादी जन परिषद, बिहार ने उस दिन हाजीपुर के गांधी पुस्तकालय सभागार, गांधी आश्रम में उनका नागरिक अभिनंदन किया। विश्रुत समाजवादी लेखक-विचारक सच्चिदानंद सिन्हा ने विशेष आभार वक्तव्य-दिया था। प्रदेश अध्यक्ष डॉ संतू भाई संत की अध्यक्षता व नीरज के कुशल संचालन में करीब तीन सौ लोगों की उपस्थिति थी।
कायदे से कृतज्ञ राष्ट्र-समाज को सीताराम सिंह जी की जन्मशती विस्तृत फलक पर मनानी चाहिए थी। ऊपर हमने चटगांव शस्त्रागार कांड की चर्चा की है। 2010 में उस कांड के अभियुक्त विनोद बिहारी चौधरी का शताब्दी वर्ष इस्लामिक राजधर्म वाले बांग्लादेश ने नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनुस की सदारत में धूमधाम से राजकीय तौर पर मनाया था। धर्मनिरपेक्ष भारत को पड़ोसी बांग्लादेश से सीखना चाहिए था। अलबत्ता, इतना अवश्य हुआ कि शताब्दी समारोह की खबर छपी तो ठीक अगले दिन बिहार के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने सीताराम सिंह से मुलाकात की और खोज-खबर ली। दूसरे राजनीतिक दलों ने भी बाद में सुध ली।
अगस्त क्रांति का मूल्यांकन समग्रता में अभी तक नहीं हुआ है। लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्त शहीदे आजम भगतसिंह पर कई फिल्में बन चुकी हैं। जहां तक मुझे स्मरण है, पहली फिल्म के नायक शम्मी कपूर, दूसरी फिल्म मनोज कुमार की ‘शहीद’, तीसरी अजय देवगन की ‘द लीजेंड ऑफ भगतसिंह’, चौथी बॉबी देवल और पाँचवीं सोनू सूद अभिनीत फिल्में हैं। सच्चिदानंद सिन्हा ने विशेष आभार में सही ही कहा था, “सीताराम सिंह वीरता में भगतसिंह के समकक्ष हैं, फर्क यही है कि भगतसिंह को फाँसी मिली और सीताराम सिंह जी को लंबा यातनापूर्ण कारावास।”
चटगांव शस्त्रागार कांड पर भी दो फिल्में बनी हैं। अभिषेक बच्चन और दीपिका पादुकोण अभिनीत ‘खेलें हम जी जान से’ फिल्म है। दूसरी फिल्म चटगांव है। इसे नासा के वैज्ञानिक वेदव्रत पेन ने बनाया है। वेदव्रत पेन से किसी नौजवान ने मास्टर दा के बारे में दरयाफ्त किया तो वह बगलें झाँकने लगा था। इस घटना ने वेदव्रत पेन को आहत कर दिया। उन्होंने नासा की शानदार नौकरी छोड़ दी और चटगांव फिल्म बनायी। यह देश और जमाने का दुर्भाग्य है कि ये फिल्में कब आयीं और कब गयीं- किसी को खबर तक हुई।
1942 की क्रांति पर कोई फिल्म नहीं बनी है। आजादी पूर्व का यह निर्णायक मुक्ति संग्राम उपेक्षित रहा। जबकि बिहार से कई नामचीन फिल्मकार हुए हैं।
सीताराम सिंह आखिरी समय तक समाजवादी मूल्यों के प्रति समर्पित रहे। शरीर पर किसी तरह का गंडा-ताबीज या ग्रह-शमन विषयक किसी तरह की अंगूठी नहीं दिखी। भाजपा की फासीवादी नीतियों के वह मुखर आलोचक थे। 30 नवंबर 2018 को अगस्त क्रांति के अग्रदूतों में एक सीताराम सिंह का सौ वर्ष की आयु में हाजीपुर में निधन हो गया। उनकी छोटी बेटी प्रो. अर्पणा सुमन ने मुखाग्नि दी। मरणोपरांत राजकीय सम्मान दिया गया। श्राद्ध कर्म में मुख्यमंत्री पूरे लाव-लश्कर के साथ शामिल हुए। सीताराम सिंह के ऊपर एक किताब छपी है, ‘राज्यसभा में सीताराम सिंह’। सीताराम जी इस किताब का विमोचन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से करवाना चाहते थे। मगर इसके लिए मुख्यमंत्री जी के पास वक्त ही नहीं था।
(यह लेख श्रद्धांजलि के तौर पर लिखा गया था और पहली बार सामयिक वार्ता के अप्रैल 2019 के अंक में छपा था)