— मनोज वर्मा —
आपातकाल के विरोध के लिए संभावनाओं की तलाश में किशन पटनायक जी दिल्ली आ रहे थे। मैं सुबह-सुबह उनको लेने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा। बात 6 अगस्त 1975 की है। गाड़ी में विलंब था। सतर्कता को लेकर वर्दीधारी पुलिस की भरमार थी। मुसाफिर तो सहज ही आ जा रहे थे। मगर स्टेशन का माहौल देखकर मैं सहमा हुआ था। पकड़े जाने की आशंका से भयभीत था। जो भी व्यक्ति मुझे जरा ठहरी निगाह से देखता उस पर मुझे खुफिया विभाग का आदमी होने का शक होता। लगता था जैसे वह मुझे शक की नजर से घूर रहा है।
खैर, जैसे-तैसे समय बीता। गाड़ी आयी। मैं किशनजी के साथ अनिल अग्रवाल (विज्ञानकर्मी, जिन्होंने ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट’ की स्थापना की) के घर पहुंचा। किशनजी को उन्हीं के यहां गुलमोहर पार्क में ठहरना था। उसके बाद मैं अपने भाई के घर आर.के. पुरम सेक्टर 9 चला गया। शाम को फिर उनसे मिलने गया। अनिल अग्रवाल से मेरा पहले से कोई परिचय नहीं था। उनसे पहली बार भेंट हुई। इसके पहले हम एक दूसरे को जानते भी नहीं थे। किशनजी से ही मेरी मुख्य रूप से कुछ बातें हुईं। दूसरे दिन तीन-चार बजे के आसपास मैं किशनजी से कनाट प्लेस में मिला।
कनाट प्लेस के सुपर बाजार से हम लोग लूडलो कैसल रोड में गुजराती समाज धर्मशाला के लिए चल दिए। धर्मशाला में एक कमरा आरक्षित था, जहां रात में इमरजेंसी विरोधी कार्यकर्ताओं की बैठक होनी थी। बैठक में जॉर्ज फर्नांडीज साहब भी शामिल होनेवाले थे। किसी भी बात में उन्हें डॉक्टर कहकर संबोधित किया जाता था।
जब हम लोग गुजराती समाज धर्मशाला पहुंचे तो शाम हो चुकी थी। वहां पर जनसंघ के अजय राणा मिले। वे आकर्षक व्यक्ति थे। लगता था कि इस बैठक के वह मुख्य कर्ता-धर्ता थे। बैठक में विलंब हो रहा था। किशनजी को रात में उधर ही कहीं ठहरना था। इस कारण मैं बैठक शुरू होने से पहले ही भाई के घर वापस चला गया।
दूसरे दिन फिर हम लोग कनाट प्लेस के सुपर बाजार के बस स्टैंड पर मिले। मैं वहां पहले से था। किशनजी के साथ मैं भाई के घर चल दिया। रास्ते में किशन जी ने बताया कि सुबह नौ-दस बजे के करीब वे गांधी शांति प्रतिष्ठान गये थे। बीच में वे और कहां-कहां गये, इस पर कोई बात नहीं हुई।
भाई के घर अच्छी-खासी अनौपचारिक वार्ता हुई। वहां लोकसभा की अध्यक्ष वर्तमान अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार के पति मंजुल कुमार भी आ गये। वे मेरे अंतरंग हैं। जब भी मैं दिल्ली में होता तो वे मेरे पास प्रायः ही शाम को आया करते। उनके अतिरिक्त, भाई के एलआईसी की किसी शाखा के प्रबंधक कृष्णन भी आ गये। अब उनका पूरा नाम याद नहीं है। संयोगवश उसी समय भाई के एक दोस्त भी आ गए। वे सेना में मेजर थे। भाई से उनको कोई निजी काम था। कृष्णन अपने छात्र जीवन में किसी साम्यवादी छात्र संगठन से जुड़े रहे थे। आम राजनैतिक गपशप में अच्छा समय निकल गया।
किशन जी जाने को हुए। दूसरे दिन के लिए मंजुल कुमार ने हम दोनों को अपने घर खाने पर बुलाया। कोई स्पष्ट चर्चा नहीं हुई, पर ऐसा लगता था कि वहां पर कोई गोपनीय बात की जानकारी मिलेगी। उन दिनों वे बाबू जगजीवन राम जी से अलग रहा करते थे।
दूसरे दिन उनके घर जाने की नौबत ही नहीं आयी। मंजुल और अन्य लोगों के निकलने के थोड़ी देर बाद ही हम लोग पकड़े गये। घर के पीछे ही बस स्टैंड था। बस स्टैंड से थोड़ी ही दूर पर संगम सिनेमा हॉल था। इसी बीच हम लोग टहलते हुए बातें कर रहे थे। अचानक मुझे लगा कि हमारे पीछे-पीछे कोई चल रहा है। मैंने मुड़कर देखा तो एक मोटा नाटा आदमी था। हाव-भाव से खुफिया के आदमी होने की शंका हुई। अभी हम लोग बस स्टैंड से कुछ ही दूर थे कि तीन मुहानी के तीनों रास्ते से चार-पांच पुलिस की गाड़ियां बड़ी तेज गति आयीं और एक झटके के साथ हमारे पास आकर रुक गयीं। ऐसा लगा जैसे हम लोग टकराते-टकराते बचे हैं।
आनन-फानन में किशन जी को जीप के अंदर कर दिया। मुझे नीचे ही घेर कर खड़े रहे। आधे-पौन घंटा हमें वहीं रखा। जब उनकी एंबेसेडर कार आ गयी तब उसमें आये अफसरों से बात करके पुलिसवाले हमें लेकर चले। मेरी जीप के आगे एक जीप और उसके पीछे एक जीप। फिर किशन जी वाली जीप। उसके पीछे एक और जीप।
हमें नजफगढ़ थाना लेकर आए। रास्ते में वे बात कर रहे थे। इमरजेंसी ड्यूटी से वे तंग आ गये थे। सुबह ड्यूटी पर आ जाना होता था और देर रात छुट्टी मिलती थी। उन्होंने मुझे बताया, हमारी किस्मत खराब थी। वे निराश होकर जानेवाले थे, तब तक हमलोग दिख गये।
गांधी शांति प्रतिष्ठान के आसपास खुफिया वाले बराबर घूमते रहते थे। वहीं उन लोगों ने किशनजी को देख लिया था। वहीं से वे उनका पीछा कर रहे थे। किंतु रास्ते में थोड़ी-थोड़ी देर के लिए किशनजी आंखों से ओझल हो जाते थे। किशनजी को बीच-बीच में बस बदलना पड़ता था। जब हम भाई के घर पहुंचे उस समय भी पुलिसवाले भ्रमित हो गये। आर.के. पुरम सेक्टर 9 के बदले पुलिस वाले सेक्टर 8 को घेरे हुए थे।
नजफगढ़ थाने में हमें आम हवालात में बंद किया गया। एक बड़े कमरे के बीच में दीवार उठाकर दो कमरे बना दिये गये थे। हम एक-दूसरे को छड़ वाले फाटक से देख सकते थे। मेरे कमरे में पहले से एक ऑटो रिक्शा चालक बंद था। एक आदमी और भी था। पता नहीं वो कौन था। किशनजी शायद अपनी हवालात में अकेले थे। मेरे वाली हवालात में सोने-बैठने के लिए एक पुरानी चटाई थी। वह कई जगह से उधड़ी हुई थी। पेशाब करने के लिए एक बड़ा घड़ा था। घड़े से असहनीय दुर्गंध फैल रही थी।
हम जब भी आपस में बात करना चाहते तो संतरी कड़ाई से रोक देते थे। छड़ वाले फाटक से सिर्फ एक दूसरे को देख भर सकते थे। कुछ देर बाद हवालात की बत्ती से हलकी रोशनी आती थी।
रात को 2 बजे मुझे राजेन्द्र नगर मूर्ति के पास पुलिसवालों ने अपने वाहन से छोड़ा। वहां से मैं अपने भाई के दोस्त राज के साथ मोटर साइकिल से घर आया।
दूसरे दिन सुबह मैं, पत्नी और मेरी दस माह की बेटी नारायणा में अपने ममेरे भाई राजीव वर्मा के घर चले गये।
तीन बजे दिन में पुलिस के साथ खुफिया वाले मेरे भाई के घर आर के पुरम आये। मुझे वहां नहीं पाने के बाद भाई को पकड़कर महारानी बाग में एक निर्जन बंगले में ले गये। वहीं कृष्णन और अनिल अग्रवाल को ले आये। इन लोगों से काफी पूछताछ हुई। किसी को शारीरिक यातना नहीं दी गयी। फिर भी सभी बुरी तरह से दहशत में थे। केवल भाई को तरह-तरह से भयभीत कर रहे थे वे कि मेरा पता बता दें। भाई टूट गये और उन्होंने मेरा पता बता दिया। खुफिया वाले नौ बजे रात को मुझे नारायणा से महारानी बाग ले आये। मुझे देखते ही भाई, कृष्णन और अनिल अग्रवाल एक तरह से बिलखते हुए मुझसे गिड़गिड़ाने लगे कि मैं सच-सच सब कुछ बता दूं। मैंने खुफिया वालों को काफी विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि इन लोगों का किसी तरह से राजनीति से संबंध नहीं है। मुझसे बहुत जिरह करने के बाद उन लोगों ने मेरी बात मान ली। इन लोगों को घर छोड़ दिया गया।
करीब आधी रात को मुझे दरभंगा हाउस ले गये। वहां एक अजीब चेहरे वाले, पतले-दुबले, ढलती उम्र के आदमी के हवाले मुझे कर दिया गया। वहां मुझे एक बड़े हॉल में बंद कर दिया। हॉल में बैठने-सोने को कुछ भी नहीं था। मैं फर्श पर ही लेट गया। पर वह बूढ़ा मुझे चैन से नहीं रहने देता था। नींद आने का तो सवाल ही नहीं था। थोड़ी-थोड़ी देर में वह बूढ़ा खिड़की से उलटी-सीधी बातें करता रहता था। उसके बकवास से मन और ऊब जाता।
सुबह वह मुझे पंडारा रोड मार्केट में रोड साइड की चाय दुकान पर ले गया। चाय पिलायी। वापस आते समय रास्ते में खूब सहानुभूति भरी सांत्वना देता रहा। वह मुझे अपने को ईश्वर पर छोड़ देने को कहता। सच बातें बता देने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। मुझे अच्छी आर्थिक मदद दी जाएगी। अन्यथा ऐसा न हो कि कहीं मेरा बहुत बुरा हो जाए। उसकी बातों से बहुत चिढ़ होती। पर चुप रहकर सहने के सिवा कोई उपाय नहीं था।
(किशन पटनायक के निकट सहयोगी रहे मनोज वर्मा का पिछले साल नवंबर में सत्तर साल से कुछ अधिक उम्र में निधन हो गया। वह रामनगर, पश्चिम चंपारण के रहनेवाले थे। समाजवादी आंदोलन से जुड़े थे, बिहार आंदोलन में भी सक्रिय रहे। आपातकाल के बारे में उनका यह संस्मरण पहली बार सामयिक वार्ता के जनवरी-फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)
(बाकी हिस्सा कल)