किसी भी देश की न्याय व्यवस्था की गुणवत्ता की पहली कसौटी उसकी तटस्थता या निष्पक्षता को माना जाता है और उसकी निष्पक्षता की गारंटी इस बात में होती है कि वह कितनी स्वतंत्र है। दूसरे शब्दों में, अदालतों का किसी भी प्रकार के प्रभाव से मुक्त होना उनकी स्वतंत्रता की गारंटी समझा जाता है। इसलिए अधिकतर आधुनिक संविधानों में- और हमारे संविधान में भी- न्यायालयों को कार्यपालिका यानी सरकार के ही नहीं, बल्कि प्रकारान्तर से विधायिका यानी संसद तक के नियंत्रण से मुक्त रखने तक की व्यवस्था की गयी है। यह इसी बात से प्रमाणित है कि संविधान की व्याख्या का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया है और इस नाते यह अधिकार भी स्वयमेव ही उसको मिल जाता है कि विधायिका द्वारा पारित कानूनों या कार्यपालिका द्वारा लिये गये निर्णयों की संवैधानिकता का निर्णय भी वह कर सकता है। इसी कारण उसके आदेश कानून की हैसियत प्राप्त कर लेते हैं।
ऐसे कई फैसले उद्धृत किये जा सकते हैं जिन में सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों ने ही नहीं, सत्र न्यायालयों ने भी सरकार के निर्णयों को गलत या गैर-कानूनी माना है और सर्वोच्च न्यायालय ने तो संसद द्वारा संवैधानिक संशोधन के अधिकार तक को यह निर्णय देकर सीमित कर दिया है कि वह उसके मूलभूत ढाँचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। आरक्षण के अनुपात को लेकर दिये गये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भी विधायिका के अधिकार की व्याख्या करनेवाला फैसला माना जा सकता है जिसमें कहा गया है कि विधायिका को पचास प्रतिशत से अधिक आरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार नहीं है। न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनकी सेवामुक्ति आदि के मामलों में भी एक निष्पक्ष प्रक्रिया तय की गयी है तथा सरकार और विधायिका के निर्णयों के विरुद्ध फैसला देने के लिए किसी भी न्यायाधीश को किसी भी प्रकार से दंडित नहीं किया जा सकता है।
ये सब व्यवस्थाएँ न्यायालय की स्वतंत्रता की गारंटी देती हैं जो उसकी निष्पक्षता के लिए आवश्यक शर्त है। क्या तब भी हमारी न्याय-व्यवस्था को वास्तविक अर्थों में ऐसा निष्पक्ष कहा जा सकता है जिसमें किसी के साथ अन्याय सम्भव नहीं है?
निष्पक्षता का वास्तविक उद्देश्य नागरिक को अन्याय से बचाना है। यहाँ अदालत से बाहर होनेवाले अन्याय की बात नहीं की जा रही। अभी अन्याय से हमारा तात्पर्य अदालती कार्यवाही के अन्तर्गत मिलनेवाले न्याय से है। क्या यह कहा जा सकता है कि अदालती फैसले सदैव न्याय ही करते हैं?
शायद इसीलिए अदालती प्रक्रिया में अपीलों का प्रावधान किया गया है ताकि निचली अदालत के फैसले से न्याय न मिल पाने पर उससे ऊँची अदालत में जाया जा सके और इस प्रक्रिया का अंतिम सोपान सर्वोच्च न्यायालय है, जिसकी प्रतिष्ठा को लेकर समाज में व्यापक स्वीकृति है कि उसके निर्णय किसी से भी अप्रभावित और निष्पक्ष होते हैं। निश्चय ही, सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं, सामान्यतया उच्च न्यायालयों की भी ऐसी प्रतिष्ठा को चुनौती नहीं दी जा सकती।
लेकिन तब हमें पहले इस पर विचार करना होगा कि निष्पक्षता से हमारा क्या तात्पर्य है? क्या निष्पक्षता और स्वतंत्रता एक ही बात है? क्या निष्पक्ष और निर्दोष होना समानार्थी है? बड़ी संख्या में न्यायालयों के ऐसे निर्णय हमारे सामने आते हैं जिनमें विभिन्न न्यायालयों द्वारा एक-दूसरे के निर्णयों से भिन्न या विपरीत निर्णय दिये जाते हैं। निर्णयों की यह भिन्नता अथवा वैपरीत्य किसी बाहरी प्रभाव के कारण नहीं, बल्कि विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा संबंधित कानून की भिन्न व्याख्या या साक्ष्य की प्रामाणिकता के बारे में भिन्न विचार के कारण होता है। कह सकते है कि संबंधित निर्णय एक प्रकार से निष्पक्ष है क्योंकि वह किसी भी एक पक्ष को लाभ अथवा हानि पहुँचाने की दृष्टि से नहीं किया गया है। लेकिन यदि वह व्याख्या अथवा विचार अपने में ही अनुचित या विवादपूर्ण है तो क्या यह कहना सर्वथा संगत होगा कि उससे संबंधित पक्ष को वह न्याय मिल पाया है जिसका न केवल उसे पूरा हक है, बल्कि जो अदालत के अस्तित्व ही का मूल प्रयोजन है?
ऐसे बहुत-से मामले सामने हैं जिनमें सत्र न्यायालय के फैसलों को उच्च न्यायालय द्वारा संशोधित किया अथवा उलट दिया गया है और उच्च न्यायालय के फैसलों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा। तीनों ही अदालतों के फैसलों को स्वतंत्र और निष्पक्ष तो कहा जा सकता है, लेकिन निर्दोष नहीं। यदि निचली अदालत के फैसले को चुनौती नहीं दी जाती तो क्या संबंधित पक्ष को न्याय मिल सकता था? इन्दिरा गांधी की हत्या के मुकदमे और संसद पर हुए आतंकवादी हमले के मामले में दिये गये भिन्न स्तरीय न्यायालयों के निर्णयों को ज्वलन्त उदाहरण की तरह पेश किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि एक न्यायालय के निर्णय से असन्तुष्ट होने पर कोई भी उससे उच्च स्तर के न्यायालय में अपील कर सकता है। लेकिन क्या असंतुष्ट होने मात्र से अपील की जा सकती है?
भारत के सामान्य नागरिक के लिए अपील की यह प्रक्रिया इतनी महँगी और जटिल होती है कि वह उसे उसी तरह अपने सामर्थ्य से परे मानता है जिस तरह गाँव का एक गरीब बीमार अथवा उसके रिश्तेदार एम्स या एस्कोर्ट तो क्या, अपने नजदीकी कस्बे या शहर के अस्पताल को।
इन्दिरा गांधी की हत्या या संसद पर हमले के आरोपियों को कई कारणों से यह सुविधा हासिल थी कि वे सर्वोच्च न्यायालय तक जा सके। क्या यह सुविधा हर किसी नागरिक को उपलब्ध है? और यदि नहीं है तो क्या यह कहा जा सकता है कि हमारी न्याय-व्यवस्था निष्पक्षता के बावजूद न्याय कर पाने की गारंटी है?
दरअस्ल, सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को भी तकनीकी तौर पर तो अंतिम कहा जा सकता है- और निष्पक्ष भी- लेकिन पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे सदैव निर्विवाद रहे हैं। विवाद निष्पक्षता को लेकर नहीं, बल्कि किसी भी कानून की व्याख्या अथवा साक्ष्य की प्रामाणिकता की स्वीकृति-अस्वीकृति पर आधारित हो सकते हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि ये विवाद अदालत से बाहर समाज में उठ रहे हों या वकीलों द्वारा अदालत के अंदर। कई बार यह विवाद या कहें कि मत-वैभिन्न्य एक ही अदालत के न्यायाधीशों में दिखायी देता है। ऐसे कई मामले सर्वोच्च न्यायालय तक की खण्डपीठ अथवा सम्पूर्णपीठ तक के सामने आये हैं जिनमें मान्य न्यायमूर्तियों के फैसलों में पर्याप्त भिन्नता रहती है- बल्कि एक ही प्रकार का फैसला देनेवाले न्यायमूर्तियों के तर्कों में भी पर्याप्त भिन्नता देखी जा सकती है- और फैसला अंततः किसी एक तर्क या साक्ष्य की असंदिग्ध स्वीकृति पर नहीं, बल्कि बहुमत के आधार पर किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान सन्बन्धी मामलों में दिये गये निर्णयों में इसी प्रक्रिया को अपनाया गया है।
इसी प्रकार यदि एक तर्क अथवा साक्ष्य की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के फैसले में कुछ संशोधन करता है- जैसा कि संसद पर आतंकवादी हमले के मामले में भी हुआ है- तो तकनीकी तौर पर इसका अधिकारी होते हुए भी क्या यह नहीं माना जा सकता है कि उक्त संशोधन न्यायमूर्ति-विशेष की निष्पक्षता के बावजूद दंड सम्बन्धी उनकी निजी सैद्धान्तिकी पर अधिक आधारित रहा है? यह सैद्धान्तिकी कठोर दंड के पक्ष में भी हो सकती है और विपक्ष में भी। मृत्युदंड को लेकर होनेवाली बहस और फैसलों में ऐसी सैद्धान्तिकी की ही सक्रियता देखी जाती है।
सवाल यह है कि यदि अन्तिम निर्णय बहुमत के आधार पर ही होना हो- चाहे न्यायमूर्तियों के बहुमत के आधार पर ही सही- तो व्यवहार में लागू करने की मजबूरी होते हुए भी- उसे सैद्धान्तिक अथवा नैतिक तर्क की कसौटी पर न्यायपूर्ण कैसे माना जा सकता है? न्यायालय की निष्पक्षता का वास्तविक प्रयोजन न्याय की पक्षधरता है और यदि सर्वोच्च स्तर के न्याय में- किन्हीं भी कारणों से- इस पक्षधरता का सर्वमान्य स्वरूप नहीं बनता तो इस बारे में संदेह बना रहना स्वाभाविक है कि पीड़ित पक्ष को निष्पक्षता के बावजूद वास्तविक न्याय नहीं मिला है।
ऐसे भी कई उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्वयं न्यायालयों ने ही अपने अपने दिये निर्णयों को बाद में बदल दिया है- हालाँकि ऐसा सज़ा दिये जाने के काफी अरसे बाद हुआ है। इस संशोधन का पीड़ित पक्ष पर कोई व्यावहारिक प्रभाव तो नहीं पड़ता, मगर इस तर्क की पुष्टि तो हो ही जाती है कि न्यायालयों के निर्णयों का तकनीकी तौर पर अंतिम होते हुए भी नैतिक स्तर पर असन्दिग्ध होना प्रमाणित नहीं माना जा सकता।
इसी तरह सैद्धान्तिक मामलों में भी न्यायालय अपने पूर्व-निर्णयों पर पुनर्विचार करते और उनमें संशोधन-परिवर्तन करते रहते हैं। निश्चय ही, इस प्रक्रिया में न्यायमूर्ति भी बदलते रहे हैं। लेकिन यदि न्यायमूर्तियों के बदल जाने से न्याय बदल जाता हो तो ऐसे न्याय की कसौटी पर हमेशा प्रश्नचिह्न लगा रहेगा और तब तक न्याय-व्यवस्था को निर्दोष मानना मुश्किल होगा- कम से कम सैद्धान्तिक-नैतिक स्तर पर। क्या हमारे विधि-शास्त्रियों, विधि-निर्माताओं और विधि-शासकों के पास इसका कोई समुचित समाधान है? क्या इस समाधान के अभाव में न्याय के लिए संघर्षरत आंदोलनों के खिलाफ न्यायिक सज़ा सुनाया जाना न्यायपूर्ण या नैतिक है?