— प्रेम सिंह —
अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर माने जानेवाले भारत छोड़ो आंदोलन की 78वीं सालगिरह 9 अगस्त 2020 को है। (यह लेख पिछले साल लिखा गया था, आज अगस्त क्रांति की 79वीं सालगिरह है) भारतीय जनता की स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा से प्रेरित इस महत्त्वपूर्ण आंदोलन की 75वीं सालगिरह 9 अगस्त 2017 को मनायी गयी थी। उस मौके पर प्राय: सभी राजनीतिक पार्टियों ने अगस्त क्रांति के शहीदों की याद में कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया था। अभी तक इसकी सही जानकारी नहीं है कि अगस्त क्रांति में कितने लोग शहीद हुए थे। डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा वायसराय लिनलिथगो को लिखे पत्र के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत ने पचास हजार देशभक्तों को मारा था और उसके कई गुना ज्यादा लोग घायल हुए थे।
75वीं सालगिरह के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत छोड़ो आंदोलन की चेतना (स्पिरिट) को फिर से जिंदा करने का आह्वान करते हुए गांधी के नारे ‘करो या मरो’ को बदल कर ‘करेंगे और करके रहेंगे’ नारा दिया। यह नारा उन्होंने 2022 तक ‘नया भारत’ बनाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए दिया था। यह कहते हुए कि 2022 में भारत की आजादी के 75 साल पूरे होंगे और भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं सालगिरह की याद का उपयोग आज़ादी की 75वीं सालगिरह तक नया भारत बनाने के लिए किया जाना चाहिए।
ऐतिहासिक तथ्यों, जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का विरोध भी शामिल है, के आधार पर विवेचना करें तो प्रधानमंत्री के नये भारत और उसके लिए किये गये आह्वान की भारत छोड़ो आंदोलन की चेतना के साथ कोई संगति नहीं बैठती। क्योंकि बार-बार महिमामंडित किये जानेवाले नये भारत की सोच का भारत छोड़ो आंदोलन की मौलिक चेतना के साथ कोई रिश्ता नहीं है।
प्रधानमंत्री का नया भारत एक उधार के कच्चे-पक्के डिजिटल सेटअप में एकठहरी हुई मानसिकता को फिट करना है, जिसे अकसर ‘मनुवाद’ कह दिया जाता है। यह नया भारत देश के संविधान, संप्रभुता और संसाधनों की कीमत पर बनाया जा रहा है। जबकि देश का संविधान, संप्रभुता और संसाधन औपनिवेशिक सत्ता से आजादी पाकर हासिल गये किये थे। भारत छोड़ो आंदोलन अनेक कुर्बानियों से हासिल की गयी उस आजादी का प्रवेशद्वार कहा जा सकता है।
प्रधानमंत्री के लिए यह सोचना स्वाभाविक है कि भारत छोड़ो आंदोलन सहित आजादी के संघर्ष की चेतना का तभी कोई अर्थ है, जब उसका इस्तेमाल नया भारत बनाने में किया जाए। ऐसा आजादी की चेतना को नव-उपनिवेशवादी गुलामी की चेतना में घटित करके ही संभव है। उनके आह्वान में यह स्पष्ट अर्थ पढ़ा जा सकता है कि आजादी के संघर्ष की ‘गलत’ चेतना को सही (करेक्ट) करने का समय आ गया है; कि आरएसएस दूरदर्शी था, जिसने एक ‘गलत चेतना’ से प्रेरित आजादी के संघर्ष का उसी दौरान विरोध किया था!
भारत के कम्युनिस्टों को इस मामले में ईमानदार कहा जाएगा कि उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था तो उसकी चेतना और उसमें भाग लेनेवाली भारत की जनता और नेताओं से भी उनका सरोकार नहीं था। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने बाद में भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए गांधी और कांग्रेस से माफी मांग ली थी। लेकिन आज भी ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपनी विरोधी भूमिका के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का तर्क देते पाये जाते हैं। वे 1947 में भारत की आजादी को आजादी की इच्छा से प्रेरित भारतीय जनता के संघर्ष और कुर्बानियों का परिणाम कम, अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम अधिक मानते हैं।
इस लेख में भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी करनेवाली भारत की जनता की आजादी की चेतना पर लोहिया के हवाले से विचार किया गया है। लोहिया ने आजादी की चेतना की जगह ‘आजादी की इच्छा’ पद का प्रयोग किया है। विभिन्न स्रोतों से आजादी की जो इच्छा और उसे हासिल करने की जो ताकत भारत में बनी थी, उसका अंतिम प्रदर्शन भारत छोड़ो आंदोलन में हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन ने यह बताया कि आजादी की इच्छा में भले ही नेताओं का भी साझा रहा हो, उसे हासिल करने की ताकत निर्णायक रूप से जनता की थी।
यह आंदोलन देश-व्यापी था, जिसमें बड़े पैमाने पर भारत की जनता ने हिस्सेदारी की और अभूतपूर्व साहस और सहनशीलता का परिचय दिया। लोहिया ने रूसी क्रांतिकारी चिंतक लियो ट्राटस्की के हवाले से लिखा है कि “रूस की क्रांति में वहां की महज एक प्रतिशत जनता ने हिस्सा लिया, जबकि भारत की (अगस्त) क्रांति में देश के 20 प्रतिशत लोगों ने हिस्सेदारी की।”
8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ; अरुणा आसफ अली ने गोवालिया टैंक मैदान पर तिरंगा फहराया; और 9 अगस्त की रात को कांग्रेस के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये। नेताओं की गिरफ्तारी के चलते आंदोलन की सुनिश्चित कार्य-योजना नहीं बन पायी थी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व सक्रिय था, लेकिन उसे भूमिगत रहकर काम करना पड़ रहा था। ऐसे में जेपी ने क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन और हौसला अफजाई करने तथा आंदोलन का चरित्र और तरीका स्पष्ट करनेवाले दो लंबे पत्र अज्ञात स्थानों से लिखे। कहा जा सकता है कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जनता खुद अपनी नेता थी।
लोहिया ने भारत छोड़ो आंदोलन की पच्चीसवीं सालगिरह पर लिखा, नौ अगस्त का दिन जनता की महान घटना है और हमेशा बनी रहेगी। पंद्रह अगस्त राज्य की महान घटना थी। … नौ अगस्त जनता की इस इच्छा की अभिव्यक्ति थी – हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे। हमारे लंबे इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों ने आजादी की अपनी इच्छा जाहिर की। … बहरहाल, यह 9 अगस्त 1942 की पच्चीसवीं वर्षगांठ है। इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगांठ इस प्रकार मनायी जाएगी कि 15 अगस्त भूल जाए, बल्कि 26 जनवरी भी पृष्ठभूमि में चला जाए या उसकी समानता में आए।’’
अगस्त क्रांति की पचासवीं सालगिरह देखने के लिए लोहिया जिंदा नहीं थे। उनकी यह धारणा कि लोग मरने के बाद उनकी बात सुनेंगे, मुगालता साबित हो चुकी है। अगस्त क्रांति की पचासवीं वर्षगांठ 1992 में आयी। उस साल तक नयी आर्थिक नीतियों के तहत देश के दरवाजे देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के लिए खोल दिये गये थे; और एक पांच सौ साल पुरानी मस्जिद को भगवान राम के नाम पर ध्वस्त कर दिया गया। तब से लेकर नवउदारवाद और संप्रदायवाद की गिरोहबंदी के बूते भारत का शासक-वर्ग उस जनता का जानी दुश्मन बना हुआ है, जिसने भारत छोड़ो आंदोलन में साम्राज्यवादी शासकों के दमन का सामना करते हुए आजादी का रास्ता प्रशस्त किया था और भारत को एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया था।
पिछले तीन दशकों के नवउदारवादी दौर में भारतीय गणराज्य की संवैधानिक नींव लगभग खोखली हो चुकी है। उसका एक नतीजा है कि अयोध्या में 5 अगस्त 2020 को उच्चतम न्यायालय की सहमति से देश के प्रधानमंत्री के हाथों धर्म-आधारित नये भारत की नींव रखी गयी है। इस नए भारत का भूत इस कदर सिर चढ़कर बोलता है कि श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महंत नृत्यगोपाल दास भी कहते हैं कि मंदिर का निर्माण नये भारत का निर्माण है!
प्रधानमंत्री जो नया भारत बनाने का आह्वान करते हैं, उसका आगाज़ 1991-92 में हुआ था। पिछले करीब तीन दशकों में देश से उसकी संप्रभुता और संसाधन, तथा जनता से उसके संवैधानिक अधिकार छीन लिये गये हैं। यह काम संविधान का तख्ता-पलट करके किया गया है।
भारत छोड़ो आंदोलन सहित आजादी के संघर्ष की चेतना का इस्तेमाल धड़ल्ले से नया भारत बनाने में किया जा रहा है। ‘लोहिया के लोग’ भी उसमें शामिल हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की सौवीं सालगिरह आने तक नये भारत की तस्वीर काफी-कुछ मुकम्मल हो जाएगी। ऐसा न हो, तो लोहिया के शब्द लेकर संकल्प करना होगा कि नए भारत से ‘हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे’। लोहिया से ही सूत्र लेकर कहा जा सकता है कि भारत को फिर से प्राप्त करने की यह क्रांति 9 अगस्त 1942 की तरह भारत की जनता ही करेगी।