क्रांति का बिगुल : तीसरी किस्त

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— अनिल सिन्हा —

समानांतर सरकारें

न बयालीस के आंदेालन की एक खास बात यह थी कि ब्रिटिश शासन से अपने को स्थानीय स्तर पर मुक्त करने के लिए आंदोलनकारियों ने प्रति-सरकारें यानी समानांतर सरकारें बनायीं। ऐसी सरकारें अलग-अलग तरीकों से कई जगहों पर बनीं, लेकिन तीन सरकारें ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने में असरकारी सिद्ध हुईं। इनमें सबसे प्रभावी और अधिक समय तक टिकनेवाली सरकार नाना पाटिल के नेतृत्व में बनी महाराष्ट्र में सतारा की समानांतर सरकार थी जो करीब चार साल टिकी रही और अप्रैल, 1946 में केद्र में अंतरिम सरकार बनने के बाद ही भंग हुई। उत्तर प्रदेश के बलिया में बनी सरकार की खासियत यह थी कि उसने स्थानीय सरकार का रूप देने के बदले बलिया को आजाद घोषित कर दिया और लोगों ने ऐसी बहादुरी दिखायी जिसने आंदोलन को जोश से भर दिया। तीसरी सरकार बंगाल के मेदिनीपुर में बनी। एक ऐसी ही सरकार मुंगेर के तारापुर में चली, लेकिन यह अधिक देर तक नहीं चल पायी और इसे सेना की मदद से कुचल दिया गया।

सतारा की प्रति-सरकार

सतारा में सितंबर, 1942 में गठित हुई सरकार के पीछे जिले में लगातार चल रही राजनीतिक गतिविधियां थीं और क्षेत्र में पैदा हुई सजगता थी। वहां 1930 की सिविल नाफरमानी के समय से ही राजनीतिक कार्य जारी थे और 1938 से ही स्थानीय कांग्रेस में वामपंथी समूह हावी रहे हैं। इनमें समाजवादी, रायवादी और कम्युनिस्ट तीनों शामिल थे। वहां के कम्युनिस्ट भी शुरू में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे। इसके अलावा, जिले में राष्ट्र सेवा दल भी काफी सक्रिय था। जिन इलाकों में प्रति-सरकार का गठन हुआ, उन इलाकों में उनकी इकाइयां थीं। बाद में भी प्रति-सरकार के सशस्त्र संगठन तूफान सेना के साथ-साथ सेवा दल की यूनिट भी काम कर रही थी। लड़ाई की शुरुआत से ही सतारा में प्रतिरोध का सिलसिला चल रहा था। व्यक्तिगत सत्याग्रह भी यहां प्रभावशाली ढंग से किया गया। प्रति-सरकार के नायक व्यक्तिगत सत्याग्रह के आंदोलन के समय ही आगे आए।

बंबई में सात-आठ अगस्त, 1942 को आयोजित कांग्रेस महासमिति की उस बैठक में जिसमें भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित हुआ था, उसमें यशवंत राव चह्वाण समेत जिले के कई नेताओं ने भाग लिया था और क्रांति की घोषणा होने पर इसे अपने इलाके में सफल बनाने के इरादे से अपने इलाके में लौट आए थे। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी होते ही सतारा में विरोध के कार्यक्रम शुरू हो गये थे।

प्रति-सरकार की प्रमुख हस्ती किशन राव की आत्मकथा से पता चलता है कि भूमिगत गतिविधियों को केंद्रीय संचाालक मंडल के सदस्य अच्युत राव पटवर्धन का मार्गदर्शन मिल रहा था और प्रति-सरकार का स्वरूप तय करने में उनकी उनकी अहम भूमिका थी। उन्होंने सलाह दी थी कि माओ के लांग मार्च की तर्ज पर मोर्चा हर गांव से गुजरता हुआ तहसील कार्यालय तक आए। इसे संभव होता हुआ नहीं देखकर आंदोलनकारियों ने सीधे तहसील कार्यालयों पर मोर्चा निकाला। पटवर्धन यहां की भूमिगत गतिविधियों का मार्गदर्शन अंत तक करते रहे क्योंकि वही ऐसे नेता थे जो बयालीस के आंदेालन में कभी गिरफ्तार नहीं हुए। उनकी सलाह से ही 1944 में सतारा भूमिगत आंदोलन के कुछ लोगों ने अपने को गिरफ्तार कराया क्योंकि वे इन गतिविधियों से मुक्त होना चाहते थे।

सतारा की प्रति-सरकार को औंध (पुणे के समीप) के राजा की काफी मदद मिली। इसका केंद्र कुंडल भी उनकी रियासत का हिस्सा था। राजा अप्पासाहेब पंत प्रगतिशील विचारों के थे और उन्होंने 1940 में अपने राज्य में लोकतांत्रिक संविधान लागू किया था। वह अच्युत राव के निकट के मित्र थे।

यहां दो बार पुलिस फायरिंग हुई जिसमें क्रमशः नौ और दो लोग मारे गए। अगस्त में सीधे प्रतिरोध के कार्यक्रम चले। सितंबर में भूमिगत आंदोलन शुरू हुआ और यही 1943 की शुरुआत में प्रति-सरकार के गठन में बदल गया।

प्रति-सरकार गांवों के स्वशासन का बेहतरीन उदाहरण थी और व्यापक जनसमर्थन के कारण वे टिके रहे। उन्होंने भूमिगत गतिविधि के समाजवादी तरीके और गांधीजी के ग्राम स्वराज के दर्शन का अच्छा मिश्रण किया था। उन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रतीकों और संचार साधनों पर हमले कर उन्हें बेकार कर दिया था और सरकारी इमारतों, डाक सेवा और पुल नष्ट कर दिये थे। उन्होंने पैसों के लिए बैंक और सरकारी वेतन ले जानेवाली ट्रेनों को लूटा।

प्रति-सरकार ने सामाजिक ओर आर्थिक परिवर्तन के कार्यक्रम अपनाये जिनमें साक्षरता, अस्पृश्यता निवारण और भूमि सुधार के कार्यक्रम शामिल थे। उन्होंने गांव के आपराधिक और दीवानी मामलों के निपटारे की अपनी व्यवस्था भी अपनायी थी। प्रति-सरकार ने किसी को भी मृत्युदंड की सजा नहीं सुनायी।

सतारा को कुचलने के लिए फरवरी, 1946 में यूरोपीय सेना भी बुलायी गयी थी। लेकिन अप्रैल, 1946 में अंतरिम सरकार के गठन के साथ ही सारे वारंट रद्द कर दिये गये और पकड़े गए लोगों को रिहा कर दिया गया।

अपनी रिहाई के तुरंत बाद जुलाई, 1946 में जयप्रकाश नारायण सतारा आए और लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि प्रति-सरकार को जैसी सफलता यहां मिली, वैसी सफलता कहीं और नहीं मिली।

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