हमें फ़ख्र है कि हमने उस महामानव से बात की है

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— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —

(पाँचवीं  किस्त)

हिंदुस्‍तान के सोशलिस्‍टों से बादशाह ख़ाँ का बहुत लगाव था। आज़ादी की जंग में सीमांत गांधी देखते थे कि हालात कैसे भी रहे हों, सोशलिस्‍ट हमेशा गांधी के साथ ही खड़े रहे। आज़ादी की जंग के साथ-साथ हमेशा हिंदू-मुस्लिम एकता तथा गरीब, मज़दूर, किसानों के सवाल भी सोशलिस्‍ट उठाते रहे हैं। सोशलिस्‍ट भी गांधीजी के बाद सबसे ज्‍यादा सम्‍मान बादशाह ख़ान को ही देते थे। बादशाह ख़ान के पाकिस्‍तान जाने के बावजूद ये लगातार उनसे अपना संपर्क बनाये रखते थे।

जून 1965 में डॉ. राममनोहर लोहिया एक ख़ास मकसद से अफगानिस्‍तान गये थे। लम्‍बी-लम्‍बी जेल यातनाओं के कारण बादशाह ख़ाँ उन दिनों काबुल में स्‍वास्‍थ्‍य लाभ के लिए रह रहे थे। लोहिया चार दिनों तक बादशाह ख़ाँ के पास रहे थे।

काबुल में बादशाह ख़ाँ से जब लोहिया मिले, तो उस मंजर का जिक्र करते हुए लोहिया ने लिखा था –

पूरे अठारह साल के बाद हमने एक दूसरे को देखा था और यह बड़ा ही दर्दनाक दृश्‍य था। ख़ान अब्‍दुल गफ्फार ख़ाँ हैं तो पठान और लम्‍बे तगड़े पठानलेकिन नर्म दिल भी बहुत है। हमारी भेंट हुई तो उनकी आँखों से आँसू फूट निकले….खाँ साहब आज भी निराश नहीं हैं। उनमें दृढ़ निश्‍चय की भावना इस प्रकार छिपी है जैसे ज्‍वालामुखी में आग छिपी रहती है।… ख़ाँ साहब को हमारी राष्‍ट्रीय लीडरशिप से शिकायत है कि उसने हिंदुस्‍तान का बंटवारा करने की बरतानवी साम्राजी स्‍कीम को स्‍वीकार करके केवल उनके तथा उनके आंदोलन के साथ ही नहींबल्कि पूरी हिंदुस्‍तानी कौम के साथ गद्दारी की थी … मैं उनके सामने शर्मिंदा था। मैं यह महसूस कर रहा था कि उनकी आँखें मुझ से गिला कर रही है कि तुम्‍हारे लीडरों ने मेरे साथ और मेरी पठान कौम के साथ गद्दारी की है।”

सितंबर 1950 में हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान विषय पर बोलते हुए डॉ. लोहिया ने कहा था : “ख़ान अब्‍दुल गफ्फर ख़ाँ जो कई नजरों से जीवित हिंदुस्‍तानियों में सबसे महान हैंपाकिस्‍तान की जेल में हैं और उनके साथी भी कै़द हैं। पठान लोग भयंकर हत्‍याकांडों के शिकार भी हुए हैं जैसा 12 अगस्‍त 1948 को चारसद्दा में और बाद को स्‍याबी में हुए।”

हिंदुस्‍तान के लोग एक बार सीमांत प्रांत और उसके खुदाई-खिदमतगारों के साथ विश्‍वासघात करने की नीचता के अपराधी बन चुके हैं।”

4, 6 एवं 7 जुलाई 1965 में संयुक्‍त सोशलिस्‍ट पार्टी के गाजियाबाद में आयोजित शिक्षण-शिविर में देश-विदेश नीति कुछ पहलू पर व्‍याख्‍यान देते हुए लोहिया ने कहा था : “इस वक्‍त मैं सिर्फ़ सीमा वाली बात कह रहा हूँ।

हिंदुस्‍तान की सरकार ने उत्तरी सीमा पर अपनी थातियों को खोया है, जैसे ख़ान अब्‍दुल गफ्फार ख़ाँ वैसे एक अर्ध वैज्ञानिक शब्‍द का इस्‍तेमाल करना हो तो मैं कह दूँगा पठानिस्‍तान के अब्‍दुल गफ्फार ख़ाँ लेकिन वह सही नहीं होगा। ख़ान अब्‍दुल गफ्फार ख़ाँ तो हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान दोनों के हैं और मेरी राय कोई अभी नहीं बनी है, हमेशा से रही है कि महात्‍मा गांधी के वे सबसे बड़े चेले रहे हैं और शायद दृष्टि का ज़रूर थोड़ा-सा भेद करना पड़ेगा क्‍योंकि एशिया में कम लोग नहीं हैं, लेकिन कम से कम जो जिंदा  लोग हैं, उनमें वो शायद सबसे बड़ा आदमी है। एक अब्‍दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ दूसरे तिब्‍बत के दलाईलामा जो अपनी थाती थी यह थातियां हमने खोयी हैं।”

मोहम्‍मद अली जिन्‍ना, मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद तथा ख़ान अब्‍दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ की तुलना करते हुए डॉ. लोहिया ने कहा था कि-

“इसमें कोई शक नहीं कि मौलाना आज़ाद एक अच्‍छे मुसलमान थे और श्री जिन्‍ना उनके जितने अच्‍छे मुसलमान न थेफिर भी भारत के मुसलमानों ने अपने हित साधन के लिए उसी आदमी (मौलाना आज़ाद) को चुना जिसने उनका काम खूबी से नहीं किया। उन दिनों में भी एक और ऐसा मुसलमान (बादशाह ख़ाँ) था जो इन दोनों से बड़ा थालेकिन वह सिर्फ़ जन्‍म और अकीदे से ही मुसलमान थाराजनीति में मुसलमान न था।”

स्‍वतंत्रता सेनानी सोशलिस्‍ट चिंतक मधु लिमये ने 12 मार्च 1988 को ‘टेलीग्राफ’ के लेख में लिखा कि भारत सरकार द्वारा बादशाह ख़ाँ को दी गयी ‘भारत रत्‍न’ की उपाधि का कोई महत्त्व नहीं है मेरा विश्‍वास है कि अगर वो अचेतन नहीं होते तो वो इसे स्‍वीकार नहीं करते। हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि जो ‘पदवी’ (सम्‍मान) उनके प्रांत की जनता ने उन्‍हें दी है उसकी मिठास के सामने दूसरी कोई सनद टिकती नहीं। बादशाह ख़ाँ या कहें शेष भारत के फ्रंटियर गांधी भारत के स्‍वाधीनता संग्राम एवं एकता के महान सेनानी को हम सलाम करते हैं तथा आशा करते हैं कि किसी दिन उनके सपनों का भारत जिसमें विभिन्‍न धर्मालंबियों की एकता अमली जामा बन जाएगी।

अक्‍टूबर 1967 में डॉ. लोहिया ने अपने अनुयायी सोशलिस्‍ट नेता राजनारायण को ‘भारत-पाक एका’ पर सलाह मशविरा करने के लिए बादशाह ख़ान के पास भेजा। डॉ. लोहिया का यकीन था कि इस विचार को आगे बढ़ाने के लिए सरहदी गांधी से बेहतर और कोई नहीं है परंतु इसी बीच दिल्‍ली के विंलिग्‍डन हस्‍पताल में लोहिया के गंभीर हालत में होने की खबर पाकर राजनारायण जी फौरन वापिस दिल्‍ली चले गये।

बादशाह ख़ान और हरिदेव शर्मा

लोहिया के अंधभक्‍त अनुयायी एवं उनके सचिव रहे डॉ. हरिदेव शर्मा (डायरेक्‍टर, नेहरू मेमोरियल म्‍यूजियम एंड लाइब्रेरी, दिल्‍ली) एवं महात्‍मा गांधी के सचिव रहे प्‍यारेलाल 1967 में बादशाह ख़ान से मिलने के लिए काबुल गये। दस दिनों तक वे उनके साथ रहें। डॉ. हरिदेव शर्मा बताते थे कि बादशाह ख़ान, डॉ. लोहिया को बहुत पसंद करते थे। हरिदेव जी बताया कि बादशाह बीमार थे। डाक्‍टरों ने उन्‍हें रोज अण्‍डा खाने के लिए हिदायत दी थी। परंतु मैं और प्‍यारेलाल जी दोनों शाकाहारी थे, बादशाह ख़ान जानते थे, उन्‍होंने अपने घर पर अण्‍डा आने पर मनाही कर दी, हमने आग्रह भी किया कि आप ज़रूर उसको खाएं, परंतु बादशाह ख़ान ने खुद न अण्‍डा खाया तथा न ही अपने घर पर मीट पकने दिया। उनका कहना था कि जो चीज़ मेरे मेहमान नहीं खाएंगे मैं भी वो नहीं खाऊँगा।

(जारी)

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