वह उजली हंसी

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पदमा सचदेव (17 अप्रैल 1940 - 4 अगस्त 2021)

— सूर्यनाथ सिंह —

द्मा जी इतनी जल्दी चली जाएंगी, उम्मीद न थी। सरदार जी (उनके पति और मशहूर शास्त्रीय गायक सिंह बंधु में से छोटे भाई सुरिंदर सिंह) ज्यादा बीमार रहते थे। दो-तीन बार उनका दिल का ऑपरेशन हो चुका था, स्टंट डले थे। अकसर गंभीर रूप से बीमार हो जाते। इसलिए उन्हें लेकर मन में आशंका तो बनी रहती थी, पर पद्मा जी को ऐसी कोई गंभीर बीमारी भी नहीं थी। जोड़ों में दर्द जरूर रहता था, जिसका इलाज चलता था।

कई दिनों से बात नहीं हो पायी थी। सोच रहा था कि बात करूंगा। पर, किसी न किसी वजह से फोन करना रह जाता। फिर खबर आयी कि वे नहीं रहीं।… जैसे ही सर्दी बढ़ती थी, वे दोनों मुंबई चले जाते थे, बेटी के पास। उनकी बेटी वहां किसी टीवी चैनल में बड़ी अधिकारी है। उसके विवाह को लेकर वे चिंतित रहती थीं। कहती थीं, शादी की एक उम्र होती है, उसी में हो जाए तो अच्छा, वरना शादी का कोई मतलब नहीं रह जाता। जैसे मांएं अपने बच्चों का परिवार बढ़ता देखना चाहती हैं, वे भी वैसे ही सपने देखा करती थीं। पूरी सर्दी वे दोनों वहीं रहते। दिल्ली की सर्दी उन्हें बहुत कष्ट देती थी। पिछले के पिछले साल सर्दी में वे लोग वहीं गये हुए थे कि कोरोना ने पांव पसारना शुरू कर दिया था। तब से वहीं थे।

उनसे पहली बार कब मिला था, याद नहीं। पर जेएनयू का वह अंतरराष्ट्रीय सेमिनार याद है, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं और दुनिया की विभिन्न भाषाओं के विद्वान जुटे थे। वे डोगरी पर बोलने आयी थीं। अलग-अलग जगहों पर वक्तव्य चल रहे थे। हिंदी वाला हिस्सा अलग चल रहा था। उसमें भोजपुरी पर मुझे भी बोलना था। मैं बोलने के लिए खड़ा ही हुआ था कि अचानक वे प्रकट हुई थीं और सबको शुभकामनाएं देती हुई पोडियम तक पहुंची थीं और मुझे खूब-खूब अशीषा था। फिर हंसती हुई निकल गयी थीं। उनके दमकते गोरे चेहरे पर चमकते मोती-से दांतों की हंसी खूब फबती थी। हंसी ऐसी कि छतफाड़। वे हंसें तो आप दूर से पता लगा सकते हैं कि आसपास पद्मा जी उपस्थित हैं। बेलाग, निश्छल हंसी।

उसके बाद जब मैं जनसत्ता से जुड़ा तो नियमित बातें होने लगी थीं। अकसर वही फोन करती थीं। जरूरी नहीं कि किसी काम के लिए करें, कुछ छपवाने के लिए बात करें। अकसर हालचाल जानने के लिए फोन करती थीं। फिर ढेर-ढेर आशीर्वाद देतीं। उनके मुंह से अकसर निकलता था- जीते रहिए। अपने ऊपर मजाक बनाना भी उन्हें खूब आता था। वे अपने पर ही कटाक्ष करके खुद ठहाका मार कर देर तक हंसती रहतीं। सरदार जी तो उनके सदा सुलभ और आसान लक्ष्य थे ही कटाक्ष के। सरदार जी भी उतने ही हंसमुख और पद्मा जी का ध्यान रखनेवाले। एक-दूसरे से जैसे नालबद्ध। दोनों पद्म सम्मान से विभूषित।

उन्हें दूसरों की चिंता सदा बनी रहती। जिसे भी वे जानती थीं, सबकी खोज-खबर लेती रहतीं। जिनसे उनका पहले का कोई परिचय नहीं, उनकी भी पीड़ा महसूस करके विचलित हो उठतीं। सुदीप बंद्योपाध्याय साहित्य अकादेमी में आये थे साहित्य महोत्सव के लिए। कड़कड़ाती दिल्ली की सर्दी वाले दिन। सुदीप बंद्योपाध्याय कंपकंपाने लगे थे। तब पद्मा जी पास में ही बंगाली मार्केट में रहती थीं। उन्होंने ड्राइवर को बुलाया, घर गयीं और शॉल लेकर आ गयीं। सुदीप को बिना बताये। उन्हें शॉल दी और कहा- ओढ़ लीजिए, सर्दी भाग जाएगी। इस तरह वे न केवल दूसरों का खयाल रखतीं, बल्कि उसपर पूरा अधिकार भी जतातीं। अगर वे किसी को कुछ दे रही हों और वह लेने से मना करे, तो वे उसे जोर से डांट भी देतीं।

हर किसी से बड़े या छोटे के हिसाब से कोई रिश्ता बनाकर ही वे मिलतीं। इस तरह पहली बार में ही वे किसी की बड़ी या छोटी बहन, तो किसी की मां बन जातीं। वह चाहे कितने बड़े ओहदे का अधिकारी या नेता हो, उससे बात करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। बेधड़क, बेलौस बतियातीं- बिलकुल बराबरी के भाव से। जहां जो खरी बात कहनी होती वहां वह भी कह देतीं। डॉक्टर कर्ण सिंह और फारूक अब्दुल्ला उन्हें छोटी बहन की तरह प्यार करते थे और दिल्ली में उनके घर उनका आना-जाना लगा रहता था। ऐसे ही मुंबई की फिल्मी दुनिया के कई बड़े सितारों से उनके घरेलू संबंध थे।

लता मंगेशकर के साथ तो उनका गहरा बहनापा था। उन्हें मैंने लता मंगेशकर को कभी नाम से पुकारते नहीं सुना। हमेशा दीदी ही कहतीं। दरअसल, पद्मा जी ने लंबे समय तक ऑल इंडिया रेडियो के लिए काम किया था। कुछ फिल्मों के लिए गीत भी लिखे थे। उनके पति तो थे ही मशहूर गायक। इस तरह उस दुनिया के लोगों से भी खूब उनका राब्ता था। मेहमाननवाजी में तो उनका सानी नहीं।

उनकी पहचान डोगरी की कवयित्री के रूप में थी, पर हिंदी में भी उनकी पैठ और पहचान उतनी ही थी। कई लोगों को तो यह जानकर हैरानी होती कि वे डोगरी में लिखती हैं, हिंदी में नहीं। डोगरी उनका पहला प्यार थी। वे पहले डोगरी में ही लिखती थीं, फिर खुद उसका भाषांतरण हिंदी में करतीं। मुझे लगता है कि उन्हें हिंदी ने डोगरी की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही प्यार दिया होगा। वे कभी किसी खेमे में नहीं शामिल हुईं। वे स्त्री मुक्ति की पैरोकार थीं, पर वे उसकी बात किसी धड़े में बंध कर नहीं करती थीं। इस तरह शायद ही कोई उनका दुश्मन या विरोधी रहा होगा।

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