मैं सोशलिस्‍ट कैसे बना – राजकुमार जैन

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न 1957 के आम चुनाव में चाँदनी चौक लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से राधारमण, भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) के वसंतराव ओक तथा समाजवादी पार्टी के मीर मुश्‍ताक अहमद उम्‍मीदवार थे। हमारे घर के पास चौराहे पर एक तख्‍त पर कुछ लोग लाल टोपी पहने हुए झोपड़ी का चुनाव चिह्न वाला झंडा लगाए बैठे थे। उस समय कांग्रेस उम्‍मीदवार के दफ्तर से बच्‍चों की टोलियां बिल्‍ले लेकर नारा लगाते हुए निकलती थीं- ‘काली आंधी आएगी, झोपड़ी उड़ जाएगी’ ‘चूहा बत्‍ती ले गया, दो बैलों की जोड़ी को वोट दो।’ समाजवादी पार्टी का चुनाव चिह्न झोपड़ी था, भारतीय जनसंघ का दीपक (बत्‍ती) और कांग्रेस का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी था। न जाने क्‍यों मेरा मन झोपड़ी के चुनाव चिह्न की ओर आकर्षित हो गया। मैंने लाल टोपी वालों से कहा, मुझे अपना बिल्‍ला दे दो, मैं इसे लगाऊंगा। उन्‍होंने कहा, बेटे, हमारे पास बिल्‍ले नहीं हैं। तुम घर जाकर अपने माँ-बाप से कहो कि गरीबों की पार्टी के झोपड़े निशान पर अपनी मोहर लगाएं। मैं उनके तख्‍त के पास खड़ा होकर उनकी बातें सुनता था।

अखबार पढ़ने का शौक बचपन से था। घर के पास बने ‘सेवादल वाचनालय’ में ‘नवभारत टाइम्‍स’ अवश्‍य पढ़ता था। उसमें डॉ. राममनोहर लोहिया के वक्‍तव्‍य छपते रहते थे। अब तक मैं जान गया था कि लाल टोपी वालों का लीडर डॉ राममनोहर लोहिया ही है। डॉ. लोहिया का सीधा हमला प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर ही होता था, जिसकी वजह आम आदमी की मुफलिसी, मजबूरी तथा गैर-बराबरी वगैरह होते थे। अखबार में क्‍या छपा है इसको लेकर वाचनालय के बाहर बहस होती थी। बहस करने वालों में ज्‍यादातर कांग्रेस व नेहरू जी के समर्थक होते थे। उनमें से दो लोग कांग्रेस विरोधी थे। वे लोहिया के पक्ष में ज़ोर-ज़ोर से बोलते थे। मुझे उसमें बड़ा रस आता था। 1962 के आम चुनाव में डॉ. लोहिया फूलपुर के संसदीय क्षेत्र से नेहरू जी के सामने चुनाव लड़ रहे थे। ‘नवभारत टाइम्‍स’ में डॉ. लोहिया के वक्‍तव्‍य छप रहे थे। डॉ. लोहिया ने घोषणा की कि जितनी बार नेहरू जी अपने चुनाव क्षेत्र का दौरा करेंगे मैं उससे एक कम बार जाऊँगा, हो सकता है कि इस पहाड़ को पहली बार तोड़ न पाऊं, मगर इसमें एक दरार अवश्‍य डाल दूँगा। डॉक्‍टर साहब की ये बातें बहुत विचारोत्तेक लगती थीं। मैं भी अनायास डॉ. लोहिया को पसंद करने लगा।

पुरानी दिल्‍ली रेलवे स्‍टेशन के सामने टाउन हॉल (कम्‍पनी बाग) में लगी गांधीजी की मूर्ति के सामने रोजाना शाम को लंदन के हाइड पार्क की तर्ज़ पर मजमा जुटता था जिसमें हर दल, हर विचारधारा के समर्थक और विरोधी वैचारिक मुठभेड़ के लिए पहुँचते थे। जबानी युद्ध वहाँ चलता था। उस मजमे में डॉ. लोहिया और नेहरू पर ज्‍यादा बहस छिड़ती थी। कांग्रेस वालों को छोड़कर बाकी सब लोग लोहिया के पक्ष में खड़े हो जाते थे। कांग्रेसी बहस का रुख बदलने के लिए आर.एस.एस. की बात उठाते थे तो विपक्षी आपस में बँट जाते थे, वह गजब का मंजर हो जाता था। हालाँकि वहाँ पर जबानी घमासान चलता रहता था पर उस मजमे में दो-तीन ऐसे भी सोशलिस्‍ट आते थे जो बातों में कम हाथापाई में ज्‍यादा यकीन रखते थे। जब कोई
कांग्रेसी डॉ. लोहिया पर कोई कटाक्ष या बुराई करता था तो एक साथी बलवंत सिंह अटकान जो कि पहलवानी शरीर वाले तथा बैल-ठेला यूनियन के सदर भी थे, अक्‍सर उखड़ जाते थे। उन्‍हें वरिष्‍ठ समाजवादी डांट-फटकार कर चुप कराते थे। मेरे मोहल्‍ले के चार साथियों में चंद्रमोहन भारद्वाज सबसे शालीन, पढ़े-लिखे तथा समाजवादी विचारों से ओत-प्रोत थे। नंदकिशोर बिहार के जननायक कर्पूरी ठाकुर के विशेष भक्‍त थे। जय कुमार जैन और मैं अक्‍सर जामा मस्जिद चौक तथा चाँदनी चौक घंटाघर पर होनेवाली सोशलिस्‍टों की सभाओं में ज़रूर शरीक होते थे। उस समय लीथो वाला पोस्‍टर या एक छोटा सा हैंडबिल जिसमें जलसों की सूचना होती थी, उसमें मोटे अक्षरों में एक शीर्षक अवश्‍य छपा होता था- हंगामी जलसा, फलां तारीख को, फलां जगह होने जा रहा है, जिसमें मुल्‍क के मशहूर नेता तकरीर करेंगे। आपसे गुजारिश है कि हज़ारों की तादाद में शामिल होकर इंकलाब की ताईद करें।

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