— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
कल 15 अगस्त को भारत ने अपनी ऐतिहासिक स्वतंत्रता का 75वां गौरवशाली दिवस मनाया। विश्व के क्रियाशील लोकतांत्रिक देशों में भारत मतदाताओं की संख्या की दृष्टि से विशालतम लोकतंत्र है किंतु कड़वी सच्चाई यह भी है कि यदि विश्व के लोकतांत्रिक देशों में कुल जन प्रतिनिधियों की संख्या में उनकी व्यक्तिगत आपराधिक पृष्ठभूमि का तुलनात्मक अध्ययन व विश्लेषण किया जाए तो यह भी प्रमाणित हो जाएगा कि भारत आज सबसे अधिक आरोपित-अपराधी जनप्रतिनिधियों वाला लोकतांत्रिक देश है। संसद से लेकर कोई ऐसी विधानसभा नहीं जहाँ गंभीर अपराध के आरोपी जनप्रतिनिधि नहीं। और तो और, कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं, चाहे वह राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, चाहे दक्षिणपंथी हो या मध्यपंथी व वामपंथी, जिसमें अनेकानेक जन प्रतिनिधि आरोपी-अपराधी ना हों। 74 वर्ष की स्वतंत्रता और 71 साल के गणतंत्र के निर्वाचकीय जनतंत्र के इतिहास का यह डरावना राजनीतिक सच है।
कानूनी स्थिति
संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना नहीं की होगी कि भारत में संसद और राज्यों की विधायिका कभी समाज के अपराधियों से भर जाएंगी। तभी देश का संविधान आरोपी-अपराधी पर विधायकीय संस्थाओं के निर्वाचन में उम्मीदवार होने पर किसी प्रकार का कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाता किंतु जन प्रतिनिधि कानून, 1951 के सेक्शन 8 (3) में 2 वर्ष या अधिक सजा-प्राप्त व्यक्ति पर सजा समाप्त होने से लेकर अगले 6 साल के लिए निर्वाचन में शामिल होने पर प्रतिबंध का प्रावधान है। यह प्रावधान पहले से विद्यमान था किंतु इसी के आगे सेक्सन 8 (4) में सांसदों और विधायकों को यह छूट दी गयी थी कि सजा के तीन महीने तक उन्हें सेक्शन 8(3) के तहत संसद या विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य नहीं घोषित किया जाएगा यदि वे इस काल में उच्चतर अदालत में सजा को चुनौती दे देते हैं।
इस छूट का राजनीतिक कुपरिणाम यह निकला कि आजादी के बाद लंबे समय तक निम्न अदालतों से सजा-प्राप्त अपराधी जन प्रतिनिधियों ने राजनीतिक फायदा उठाया और उच्च/उच्चतर अदालतों में निम्न अदालत के द्वारा दी गयी सजा को चुनौती देकर निर्वाचन की राजनीति में हिस्सा लेते रहे और विधायक से लेकर सांसद तक और मंत्री भी बने। इसका मुख्य कारण आरोपी-नेताओं का राजनैतिक दलों से संबंध, राजनैतिक प्रभाव, सत्ता का संरक्षण, अदालतों में न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक विलंब और वकीलों के द्वारा कानूनी दांवपेच से निर्णय में विलंब कराने की साजिश को माना जा सकता है।
आखिरकार विधायिका और कार्यपालिका से निराश सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में एक महत्त्वपूर्ण फैसले में जन प्रतिनिधि कानून, 1951, के सेक्शन 8(4) निरस्त करते हुए यह ऐतिहासिक निर्णय दिया कि यदि किसी व्यक्ति को किसी भी अदालत के द्वारा 2 वर्ष या अधिक सजा मिलती है तो वह सजा समाप्त होने के बाद अगले 6 वर्ष के लिए कोई चुनाव नहीं लड़ सकता। इस ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय के बाद बहुत सारे ऐसे सजा-प्राप्त नेताओं को चुनाव लड़ने से रोका जा सका। इतना ही नहीं, कई सजा-प्राप्त नेताओं को संसद और विधानसभा से भी इस्तीफा देना पड़ा।
यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि ऐसे सजा-प्राप्त नेताओं ने उस समय डॉ मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार पर दबाव बनाया और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त करने की खातिर अध्यादेश लाने के लिए राजनैतिक परिस्थिति से फायदा उठाने की कोशिश की लेकिन जन-दबाव के कारण कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के निर्णायक हस्तक्षेप के कारण अंततः वे सफल नहीं हो पाये। आज भी दो वर्ष या अधिक सजा-प्राप्त अपराधी के लिए यह न्यायिक निर्णय लागू है। हालांकि इस असफल राजनैतिक प्रयास से यह तो प्रमाणित हो गया था कि अपवाद को छोड़कर, राजनीतिक दलों में निर्वाचन की राजनीति में अपराधियों को रोकने में न तो रुचि है और न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति। यही कारण है कि निर्वाचन की राजनीति में अपराधियों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी और न राजनीति का अपराधीकरण ही थमा।
रोकथाम के अपर्याप्त उपाय
सन 1993 में पूर्व गृह सचिव एन.एन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में राजनीति और अपराधियों के गहरे संबंध का विशद उल्लेख था और राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए बहुत सारे सुझाव दिये गए थे किंतु भारतीय राजनीति में ऐसी रिपोर्ट के आधार पर किसी कानून का निर्माण कर अपराधियों को चुनाव में प्रत्याशी होने से रोकने का कोई कानून नहीं बनाया गया। सन् 1918 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को अपने दागी उम्मीदवारों के विषय में लंबित मुकदमों की सूचना देने का आदेश दिया था। फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को आदेश दिया था कि आपराधिक मामलों में आरोपित उम्मीदवारों की सूची, उनकी आपराधिक पृष्ठभूमि और ऐसे आरोपी उम्मीदवारों को चुनने का कारण अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करें, परंतु राजनीतिक दलों ने आदेश का पालन नहीं किया।
इस आदेश के उल्लंघन के संबंध में अदालत की अवमानना की याचिका पर सुनवाई करते हुए कुछ दिनों पूर्व अदालत ने सख़्ती दिखाई और राजनीतिक दलों को आदेश दिया कि आरोपी-अपराधी उम्मीदवार के चयन के 48 घंटे के भीतर जनता को इसकी सूचना वेबसाइट के माध्यम से देना अनिवार्य है। सर्वोच्च अदालत ने बिना उच्च न्यायालय की सहमति के विधायक तथा सांसद के आपराधिक मुकदमों को वापस लेने पर प्रतिबंध लगा दिया। इतना ही नहीं, आठ राजनीतिक दलों को सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का दोषी पाते हुए उन पर विभिन्न प्रकार का आर्थिक दंड भी लगाया। अदालत ने माना कि बिहार विधानसभा के चुनाव में 51 प्रतिशत विजयी उम्मीदवारों पर हत्या, अपहरण तथा बलात्कार जैसे संगीन आपराधिक आरोप हैं।
राजनीतिक अपराधीकरण : लोकतंत्र को चुनौती
प्रश्न यह उठता है कि आजादी के 74 सालों में भारत में लोकतंत्र कैसे राजनीतिक दलों की अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के कारण अपराधीतंत्र में परिणत हो गया है। आजादी के समय ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध बरसों जेलों में शारीरिक और मानसिक यातना सहनेवाले नेहरू, सरदार पटेल , मौलाना आजाद जैसे अनेक नेता सरकार में और अशोक मेहता, राममनोहर लोहिया आदि विपक्ष के महत्त्वपूर्ण नेता रहे। लंबे समय तक स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की विभिन्न पार्टियों का प्रतिनिधित्व किया और राज्यों में भी राजा जी, कामराज, श्रीकृष्ण सिंह, गोविंद बल्लभ पंत, विधानचंद्र राय, सुचेता कृपालानी आदि मुख्यमंत्री तथा अनेक महत्त्वपूर्ण विपक्षी नेता थे किंतु लगभग पिछले 40 वर्षों में सभी पार्टियों ने अपराधियों को टिकट दिये, अपराधी चुनाव में उम्मीदवार बने, दुर्भाग्य से मतदाताओं ने भी बहुत सारे अपराधियों को पार्टियों के उम्मीदवार के रूप में या निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में चुनाव में जिताया।
आज देश की संसद से लेकर विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं, यहां तक कि पंचायती राज संस्थाओं में भी हत्या, डकैती, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों के आरोपी, अन्य संगीन मामलों के मुजरिम और गैंगस्टर जनप्रतिनिधि हैं। राजनीति और अपराध का यह नापाक रिश्ता बहुत गहरा हो गया है जो लोकतंत्र के नाम पर चुनावी राजनीति की बहुत ही भयानक तस्वीर पेश करता है। संविधान द्वारा निर्मित कानून निर्मात्री संस्थाओं में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की उपस्थिति से कानून के प्रति जनता में अविश्वास बढ़ता चला जाता है। इतना ही नहीं, अपराधियों के सत्ता-सुख को देखकर युवाओं में अपराध के प्रति आकर्षण बढ़ता है और राजनीति में सफलता के लिए अपराध और भ्रष्ट आचरण को सीढ़ी समझा जाने लगता है। राजनीतिक दलों के इस अपराधी प्रेम से राजनीति के अपराधीकरण को गति मिलती है।
सच्चाई तो यह है कि भारत में लोकतंत्र राजनीतिक पार्टियों का बंदी बन कर रह गया है। संसद और विधानसभाओं में जन प्रतिनिधियों की अभद्रता और असंसदीय आचरण सामान्य सी बात हो गयी है। इसके पीछे यह कारण है कि राजनीतिक दल अलोकतांत्रिक तरीके से उम्मीदवारों का चयन करते हैं, खुलेआम अपराधियों को टिकट देते हैं, पैसे के बल पर लोग टिकट खरीदते हैं। अपराध और धन का गठजोड़ लोकतंत्र में चुनाव जीतने का ठोस माध्यम बन गया है। मिलन वैष्णव ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘When Crime Pays : Money and Muscle in Indian Politics’ में लिखा है कि जिन्हें जनता चुनाव में कानून बनाने के लिए चुनती है, वे ही कानून के समक्ष अपराधी होते हैं।
तब यह सवाल उठता है कि जनतंत्र में खतरनाक अपराधियों, समाज में हिंसा करनेवालों को चुनाव में उम्मीदवार होने की इजाजत क्यों? क्या लोकतंत्र में राजनीति अपराधियों की कोई शरणस्थली है? सच तो यही है कि अपराधी अपने धनबल और बाहुबल के बूते आसानी से टिकट पा जाते हैं और चुनाव भी जीत जाते हैं। परिणामतः कानून लागू करनेवाली एजेंसियों पर उनका दवाब बन जाता है। विधायक और सांसद या मंत्री होने के नाते वे राजनीतिक प्रभाव और दल के कारण पुलिस तथा प्रशासन पर नियंत्रण करने की बेहतर स्थिति में होते हैं। राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थाओं में अपराधियों की उपस्थिति से कानून लागू करनेवाली एजेंसियां ईमानदारी से काम नहीं कर पातीं।
यह कैसी विडंबना है कि संगीन अपराधों में आरोपित व्यक्ति पार्टियों से टिकट प्राप्त कर चुनाव में जेल से चुनाव लड़ता है और धनबल और बाहुबल के बूते चुनाव जीत जाता है। अगर हम ऐसी संस्थाओं का जो निर्वाचन में सुधार के लिए चुनावी राजनीति में उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि और सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करते हैं जिनमें ‘लोकतांत्रिक सुधार संघ’ (ए.डी.आर.) की रिपोर्ट को देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि निर्वाचित संस्थाओं में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ी है। विगत के कुछ चुनावों का अगर विश्लेषण किया जाए तो साफ पता चल जाएगा कि अपराधियों की उपस्थिति कानून बनानेवाली संस्थाओं में लगातार बढ़ती ही जा रही है।
ए.डी.आर. ने अपने अध्ययन के आधार पर पाया है कि यदि 2009 के लोकसभा चुनाव में दागी और आरोपी-अपराधी उम्मीदवारों का प्रतिशत 15 था तो वो 2014 में 17 प्रतिशत हो गया और अंतिम लोकसभा चुनाव में ऐसे आरोपी-अपराधियों का प्रतिशत बढ़कर 19 हो गया है।
इतना ही नहीं, जितने उम्मीदवारों ने चुनाव में मुकाबला किया उनमें 13 प्रतिशत तो हत्या की कोशिश, अपहरण, बलात्कार तथा महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे भयानक जुर्म के आरोपी थे। ए.डी.आर. का विश्लेषण तो इस राजनीतिक त्रासदी को भी उजागर करता है कि साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार की तुलना में अपराधी-उम्मीदवार की जीत की संभावना अधिक होती है।
वैधानिक समाधान
यदि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद राजनीतिक दलों के द्वारा आरोपी-अपराधियों के अपराध की मतदाताओं को सूचना दे भी दी जाए तो क्या जाति और संप्रदाय, अशिक्षा और गरीबी से ग्रस्त समाज में ऐसी राजनीतिक चेतना आ जाएगी और राजनीति का अपराधीकरण रुक जाएगा या राजनीति में अपराधियों की उपस्थिति कम हो जाएगी? यह इतना सरल नहीं क्योंकि जब समाज में अपराधी धनशक्ति और सत्ता के कारण प्रभावशाली हो जाते हैं और राजनीतिक संस्कृति में अपराध और अपराधी स्वीकार्य हो जाते हैं तो राजनीति को अपराध-मुक्त करना कठिन हो जाता है। इसलिए आज के राजनीतिक वातावरण और वोट की राजनीति में राजनीतिक पार्टियों की कार्यप्रणाली को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि वे स्वत: अपराधियों को टिकट देने से अपने को रोक पाएंगे।
अतः जब नैतिकता राजनीति से विलुप्त हो जाए तो तात्कालिक रूप से ऐसे कानून की नितांत आवश्यकता हो जाती है जो किसी भी संगीन जुर्म के आरोपी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोके और जब तक व्यक्ति उन संगीन जुर्म के आरोपों से मुक्त नहीं हो जाता तब तक उसे राजनीतिक पार्टियों के टिकट पर या निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने से रोक दिया जाना चाहिए।
भारत में जाति व संप्रदाय के नाम पर अपराधी अपने आप को जाति और धर्म के नायक के रूप में पेश करते हैं, अस्मिता की राजनीति का एक नकारात्मक प्रभाव भी अपराधियों को जाति और धार्मिक संप्रदाय का संरक्षण दिलाता है और जातियां तथा संप्रदाय ऐसे अपराधियों को चुनाव में मत देकर उन्हें निर्वाचित करते हैं। जहां एक ओर पार्टियां ऐसे उम्मीदवारों को आपराधिक पृष्ठभूमि के बावजूद टिकट देती हैं वहीं दूसरी ओर जनता जाति और संप्रदाय के आधार पर उन्हें वोट देती है। नतीजा यह निकलता है कि अपराधी चुनाव जीत जाता है। इसमें अपराध का धन और अपराधी की छवि का भय भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं। आम जनता में विधायकों, सांसदों से लाभ पाने की व्यक्तिगत कामना भी सहायक भूमिका निभाती है।
अंत में बात वहीं पहुँचती है कि राजनीति को अपराधियों से मुक्त कैसे किया जाए? अपराधियों को चुनावों में हिस्सा लेने से कैसे रोका जा सकता है? ऐसा क्या किया जाए कि पार्टियां अपराधियों को टिकट ना दे पाएं। यदि पार्टियां अपराधियों को टिकट दें तो जनता उन्हें वोट न दे। आज निर्वाचन की जो प्रक्रिया है उसमें यदि सभी पार्टियां या निर्दलीय उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं या अपराधी हैं तो जनता से यह अपेक्षा करना कि वो अपराधियों को वोट ना दे, यह एक व्यावहारिक उत्तर नहीं देता।
अतः पार्टियां अपराधियों को टिकट नहीं दें इसके लिए कानून के द्वारा इसपर प्रतिबंध लगाया जाए। इसमें जन प्रतिनिधित्व कानून,1951, में आवश्यक संशोधन करके निर्वाचन आयोग को ऐसे अधिकार दिये जायं ताकि संगीन अपराध के आरोपी चुनाव नहीं लड़ सकें। क्योंकि आरोपी- अपराधियों को राजनीति से दूर रखने की इच्छाशक्ति संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में आज के राजनीतिक दलों तथा राजनीतिज्ञों में नहीं है।
जनतंत्र सिर्फ निर्वाचन का नाम नहीं, चुनाव के माध्यम से कोई भी जन प्रतिनिधि चुना जाए यह जनतंत्र का उदेश्य नहीं। जनतंत्र जनता के प्रति उत्तरदायी सरकार और विपक्ष की संयुक्त राजनीतिक अवधारणा है। यही संविधान निर्माताओं का सपना था। इस सामूहिक प्रयास में जनता, नागरिक समाज और जन संचार माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है ताकि राजनीति और जनतंत्र अपराधी-मुक्त हों।