— सुनील दीपक —
आज सुबह कल के स्वतंत्रता दिवस के मोदी जी के भाषण के बारे में पढ़ा तो उनकी ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ की घोषणा के बारे में सोचता रहा। कुछ मित्रों ने इसे ‘बेवजह पुराने घाव कुरेदना’ बताया है। कुछ अन्य कह रहे हैं कि वह केवल समाज की हिंदू–मुसलमान बहसों और आपसी मतभेदों को चुनावों में फायदे के लिए भड़काना चाहते हैं।
कुछ ऐसी ही बहसें जर्मनी में नाजीवाद और यहूदियों को मारने के बाद, इटली में फासीवाद के पीड़ितों के बारे में या दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के साथ भेदभाव के बारे में की जाती थीं और अब भी की जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि पुरानी बातों को कुरादने से क्या लाभ, कुछ अन्य लोग कहते हैं कि अगर बीते कल को भूल जाएंगे तो बार बार उसी भूल को दोहराएंगे।
मेरी माँ का परिवार भी भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय सब कुछ खो कर भारत आया था। नाना रईस परिवार के थे, अपने समय के हॉकी के खिलाड़ी थे, कश्मीर वाले शेख अब्दुल्ला और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली के साथ लाहौर में पढ़े थे और दोनों को भलीभाँति जानते थे। माँ के अनुसार, जब विभाजन हुआ तो वह पाकिस्तान में ही रुकना चाहते थे, क्योंकि वहीं उनका घर, जमीन, मित्र सब कुछ था। कहते थे कि तब उनके मित्र लियाकत अली ने स्वयं उन्हें भारत जाने की सलाह दी थी।
भारत में शरणार्थी बनकर आए तो उनकी सब शानो-शौकत समाप्त हो गयी। लेकिन मैंने घर में कभी किसी को पाकिस्तान के या मुसलमानों के विरुद्ध कुछ कहते नहीं सुना।
जब वे लोग दिल्ली में आए तो माँ अरुणा आसफ अली के साथ एक महिला दल में शामिल हो गयी थीं। एक बार उन्होंने अकेले उत्तेजित भीड़ से एक मुसलमान युवती को बचाया था जिसके लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें सम्मानित किया था। इसी वजह से माँ को शिक्षामंत्री मौलाना आजाद के दफ्तर में टाइपिस्ट की नौकरी मिली थी। उसके बाद वह डॉ. राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गयी थीं और मेरे पिता से विवाह कर लिया था। कई वर्षों के बाद, मेरी छोटी बहन के जन्म के बाद, वह नौकरी की तलाश में वापस नेहरू जी से मदद माँगने गयी थीं तो उनकी सहायता से ही शिक्षका की ट्रेनिंग में भर्ती हो गयी थीं।
बचपन के जीवन में नाना नानी के परिवार के साथ रहते हुए पाकिस्तान में रहा। उनका क्या जीवन था, कैसे मित्र थे, कैसा घर था, ये सब बातें सामने रहती थीं लेकिन उनपर कभी खुलकर बात नहीं होती थी। शुरू के शरणार्थी जीवन में क्या कठिनाइयाँ थीं, इनके बारे में भी कभी बात नहीं हुई। शायद नाना नानी आपस में या अपने भाई बहनों से ये बातें करते हों, पर मैंने कभी नहीं सुना।
इतना बड़ा घाव, इतने लोगों की जानें गयीं, जाने कितने जीवन बरबाद हुए, लेकिन किसी ने कभी बात नहीं की। दिल्ली के शीदीपुरे में जिस घर में नाना नानी रहते थे वह किसी अमीर मुसलमान का था। सब लोग उन्हें हाजी कहते थे, उनका अस्पताल में औजार सप्लाई करने का काम था। पहली मंजिल पर उनका जनाना था, जो बाकी के घर से अलग था और जहाँ हम लोग रहते थे। जबकि नाना नानी का परिवार दूसरी ओर रहता था। उस जनाने की जाली वाली दीवार से बाहर देखते थे तो नीचे कब्रिस्तान दिखता था। तब बचपन में कई बार सोचता था कि उस जनाने में हमसे पहले का जीवन कैसा रहा होगा, अपना घर छोड़ते समय उस हाजी के परिवार को कैसा लगा होगा और अब पाकिस्तान में उनका जीवन कैसा होगा?
पाकिस्तान में छूटे घरों, जमीनों का क्या हुआ, मुझे यह नहीं मालूम। नाना का एक भाई भी वहीं पाकिस्तान में ही रह गया था। कई दशकों के बाद मेरे एक मामा अपने पुराने घर को देखने पाकिस्तान गये थे, लेकिन वह भी इस बारे में बात नहीं करते थे।
जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार बदली और नेल्सन मंडेला जेल से छूटे तो वहाँ रिकॉन्सिलिएशन कमीशन (सामंजस्य या मेलमिलाप आयोग) बैठा। तब सोचता था कि भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के बारे में हमने ठीक किया या नहीं? इस बारे में कभी बात नहीं करना जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं, क्या वह ठीक था या हमें भी रिकॉन्सिलिएशन कमीशन बैठाना चाहिए था जिसमें किसने क्या किया, और किसके साथ क्या हुआ, इसकी बात की जाती। नेल्सन मंडेला ने हमेशा स्पष्ट किया कि उनके कमीशन का काम अतीत को याद करना था, लोगों से बदला लेना नहीं था।
चाहे कितनी भी क्रूरता और बर्बरता की बातें उस कमीशन में बाहर आयीं,मंडेला ने कभी उन अनुभवों को बदले की भावना की ओर नहीं जाने दिया। वह कहते थे कि जो हुआ उसमें हिंसा करनेवाले और हिंसा के शिकार लोगों, दोनों ने अलग अलग तरह से उसकी कीमत चुकायी थी। वह कहते थे कि दक्षिण अफ्रीका के भविष्य के लिए, गोरों तथा अश्वेतों को साथ-साथ प्रेम से रहना सीखना था, अतीत को भूलना नहीं था लेकिन उसे हथियार भी नहीं बनाना था।
इसलिए मेरे लिए असली प्रश्न है कि भारत में विभाजन की पीड़ा को क्यों याद किया जाए? जिन लोगों ने वे पीड़ाएं सही थीं वे लोग तो अब नहीं हैं। अगर हम अतीत से कुछ सीखना चाहते हैं तो क्या हममें वह क्षमता है कि हम उस याद को इस तरीके से करें कि उससे घाव भरने और भविष्य बनाने में सहायता मिले, भारत को और बाँटा न जाए?
दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ लाखों लोगों को जीवन के मु्ख्य प्रवाह से बाहर करके या आपस में झगड़े करवाकर उसने प्रगति की हो। जब जब देशों ने बदले व हिंसा के रास्ते चुने हैं, वे देश पिछड़े बने हैं। लोग अक्सर इजराइल का उदाहरण देते हैं। वहाँ की जनसंख्या एक करोड़ भी नहीं है और जब से वह देश बना है, तब से वहाँ लड़ाइयाँ रुकी नहीं हैं, लोग दीवारों में बंद होकर जीते हैं। आप सोचिए, क्या कोई देश है जहाँ रूढ़िवादियों और कट्टरपंथियों ने किसी का भला किया है? कट्टरपंथ केवल गरीबी और लड़ाई की ओर लेकर जाता है।
भारत को अगर विकसित होना है, गरीबी को हटाना है, तो उसमें सभी धर्मों के स्त्री-पुरुषों को योगदान देना होगा। मेरे विचार में विभाजन की पीड़ा को याद करना अच्छा होगा, क्योंकि अतीत से सीखेंगे नहीं तो वही गलतियाँ फिर से दोहराएंगे, लेकिन भारत में वह नेल्सन मंडेला कौन बनेगा जो सही रास्ता दिखाएगा?