21 अगस्त। ‘गोवा मुक्ति संघर्ष के 75 बरस और वर्तमान गोवा’ पर समाजवादी समागम की ओर से 21 अगस्त को आयोजित एक राष्ट्रीय चर्चा में सुझाव रखा गया कि इसके राष्ट्रीय उत्सव के समापन पर 18 जून, ’22 तक (क) गोवा विश्वविद्यालय में डॉ. लोहिया-डॉ. कुन्हा अध्ययन पीठ की स्थापना की जाए, तथा (ख) गोवा मुक्ति संघर्ष समेत पुर्तगाली और फ्रांसीसी कब्जे वाले भारत की आजादी के बारे में देश की नयी पीढ़ियों को पढ़ाया जाए। उपनिवेशीकरण और वि-उपनिवेशीकरण के एक वैश्विक उदाहरण के रूप में गोवा के अतीत, वर्तमान और भविष्य के अध्ययन-विश्लेषण-साहित्य प्रकाशन को प्रोत्साहित करने के लिए वार्षिक वैश्विक सम्मेलन की शुरुआत भी की जाए। इसमें गोवा की प्रकृति, संस्कृति, राजनीति, समाज, आर्थिकी और साहित्य पर विशेषज्ञों के बीच नियमित संवाद का अवसर मिले।
इस राष्ट्रीय परिचर्चा में यह इंगित किया गया कि भारत की आजादी को राजनेता 15 अगस्त, ’47 से ही मानते हैं जबकि देश की नयी पीढ़ी को जानने की जरूरत है कि इसके आगे भी पुर्तगाल के फासिस्ट शासन के कारण गोवा की गुलामी बनी रही। 18 जून, ’46 से डॉ. लोहिया के साहस और सत्याग्रह से निर्णायक मुक्ति संघर्ष की शुरुआत हुई। 1954-’55 में गोवा के लोगों के आत्मबल, समाजवादियों की पहल और शेष भारत के सभी दलों के सहयोग से जबरदस्त सत्याग्रह चला। इस आन्दोलन में फासिस्ट पुर्तगाल सरकार के बर्बर दमन के कारण कई लोगों की जाने गयीं और सैकड़ों लोगों को गोवा, पुर्तगाल और अफ्रीका की जेलों में बरसों तक बंदी-जीवन बिताना पड़ा। गोवा मुक्ति के लिए बलिदानों और त्याग की 15 बरस लम्बी श्रृंखला बनाने के बाद ही 19 दिसम्बर, ’61 को भारत को विदेशी राज से पूर्ण मुक्ति मिली थी। यह जरूरी है कि इस रोमांचक इतिहास का सम्पूर्ण विवरण मौजूदा उत्सव-वर्ष के दौरान संकलित हो और कम से कम कोंकणी, मराठी, हिंदी, व अंग्रेजी में प्रकाशित किया जाए।
इतिहासकार सुशीला सावंत मेंडेज ने गोवा में 450 बरस के पुर्तगाली राज को ‘उपनिवेशवादी आधुनिकीकरण के जरिये सांस्कृतिक मिश्रण’ का उल्लेखनीय उदाहरण बताते हुए यह याद दिलाया कि लम्बे आधिपत्य के बावजूद स्थानीय गोवावासियों ने विदेशी राज के खिलाफ प्रतिरोध की परम्परा बनायी थी। इसमें 1755-1912 के बीच सिर्फ राणे विद्रोहों के 55 उदाहरण रहे हैं। ब्रेगेंज़ा जैसे ‘फ्री थिंकर’ और डॉ. त्रिस्ताओ कुन्हा जैसे असाधारण नायकों के योगदान का गहन अध्ययन कर चुकी डॉ. सुशीला ने कहा कि डॉ. लोहिया ने 1946 में सत्याग्रह का साहस दिखाकर गोवा मुक्ति संघर्ष को नया जनाधार और नयी दिशा दी। गोवा की आजादी के समर्थकों में एकता का आधार बनाया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के महानायकों और समाजवादियों को गोवा मुक्ति संघर्ष के निर्णायक दौर से मजबूती से जोड़ दिया।
शोधकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार सन्देश प्रभुदेसाई ने इतिहास के उदाहरणों से यह स्पष्ट किया कि गोवा में पुर्तगाली शासन रंगभेद और धार्मिक अन्यायों के कारण से दुहरे असंतोष का जनक था। विदेशी राज ने पारंपरिक ‘गौकारी’ व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके भूमि-प्रबंधन में अराजकता फैला दी। इसी तथ्य को डॉ. कुन्हा ने अपने बेमिसाल विश्लेषण में गोवावासियों का ‘अराष्ट्रीयकरण’ (डी-नेश्नलाइज़ेशन ऑफ़ गोअंस) की संज्ञा दी थी। अगर धार्मिक उत्पीडन के कारण हिन्दू और अन्य गैर-ईसाई गोवावासी असंतुष्ट रहे तो चर्च-व्यवस्था में पुर्तगाली और स्थानीय के गहरे भेद के कारण ईसाई समाज में भी कास्त्रो (1638) से लेकर फादर पिंटो (1822) तक विद्रोह के ईसाई नायक बने। लोहिया के द्वारा प्रेरित 18 जून,’46 के जन-आन्दोलन से लेकर 1954-55 के सत्याग्रह में भी सैकड़ों ईसाई स्त्री-पुरुषों का ऐतिहासिक योगदान रहा।
समाजशास्त्री श्रुति ताम्बे ने कहा कि गोवा मुक्ति संघर्ष शेष भारत के जनसाधारण में फैल रही स्वतन्त्रता की भूख की ही एक धारा थी। इसीलिए इसमें और हैदराबाद में हुए प्रजा-आन्दोलन के बीच अनेकों समानताएं देखी जा सकती हैं। लेकिन यह जरूरी है कि इन सभी मुक्ति-संघर्षों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। गोवा की चर्चा में यह जोड़ना जरूरी है कि यह अपने मूल में पुर्तगाली शासन और स्थानीय प्रभुत्वशाली समूहों द्वारा पोषित रूढ़ियों दोनों से स्वतन्त्रता का संघर्ष था। हमें स्थानीय जनसाधारण में धर्म-परिवर्तन, भूमि स्वामित्व और जाति व्यवस्था से जुड़े प्रश्नों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। इसे गोवा के बहुलता आधारित सांस्कृतिक स्वरूप से अलग करके समझना भी कठिन है क्योंकि भाषा, धर्म, प्राकृतिक बनावट और राजनीतिक विमर्श की बहुलता ने गोवा को किसी भी सपाट दृष्टिकोण के लिए अनुपयुक्त बनाया है।
लोहिया शोध संस्थान के निदेशक अभिषेक रंजन ने गोवा मुक्ति संघर्ष के सूत्रधारों की विविधता को महत्त्वपूर्ण बताते हुए इसके कई महत्त्वपूर्ण उदाहरण दिये। बंगाल के लोकप्रिय जननेता और रेवोलुशनरी सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक तथा लोकसभा के सदस्य रहे त्रिदिब चौधरी का उदाहरण देते हुए याद दिलाया कि उनकी किताब गोवा मुक्ति संघर्ष के राष्ट्रीय आधार का सटीक वर्णन है। लेकिन बांग्ला में लिखे जाने के कारण गोवा के लोगों को भी इस खूबी का अनुमान नहीं है।
परिचर्चा के संचालक कुमार कलानंद मणि (संस्थापक, द पीसफुल सोसायटी) ने गोवा के वर्तमान सवालों को सामने रखते हुए बढ़ते आप्रवास, ‘हिन्दू’ दबाव और ईसाइयों की भूमिका के बारे में उठाये जा रहे प्रश्नों को पुर्तगाल से मुक्ति के बाद की चिंताजनक प्रवृत्तियों में गिनाया। उन्होंने गोवा में बदल रहे सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को हिन्दू-ईसाई ध्रुवीकरण की बजाय स्त्री-विमर्श और बहुजन-विमर्श के नजरिये से समझने के महत्त्व को रेखांकित किया।
इन पांच उच्चस्तरीय प्रस्तुतियों के बाद प्रश्नोत्तर के सत्र में समाजशास्त्री अरविन्द हाल्दान्कर (गोवा), राजनीतिशास्त्री शशि शेखर (नयी दिल्ली), समाजवैज्ञानिक मेघा देशपांडे (पुणे) और समाजकर्मी ज्योति गगनरास (गोवा) ने महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं।
परिचर्चा को समेटते हुए संवाद-अध्यक्ष समाजशास्त्री आनंद कुमार ने गोवा मुक्ति और आज के गोवा के अध्ययन-विश्लेषण को अत्यंत उपयोगी मानते हुए याद दिलाया कि यह विदेशी शासन और पश्चिमी आधुनिकीकरण दोनों की असफलताओं से पैदा जनसंघर्ष मना जाना चाहिए। पुर्तगाल के लम्बे शासन ने गोवा में एकसाथ सामाजिक (धार्मिक व भाषाई) भेदभाव, आर्थिक दोहन और राजनीतिक बेबसी को फैलाया। फिर भी सामाजिक आन्दोलनों के अध्येताओं के लिए यह अबूझ पहेली बनी हुई है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद को पराजित करनेवाले सत्याग्रहियों को फासिस्ट सालाजार की बर्बरता के आगे सफलता क्यों नहीं मिली? दूसरी तरफ यह भी रोचक तथ्य है कि अपनी लघुता और विलंबित स्वतन्त्रता के बावजूद आज का गोवा भारतीय संस्कृति का एक आकर्षक प्रतीक बनता जा रहा है जहां लोकतांत्रिकरण, विकास और वि-औपनिवेशीकरण (‘डीकोलोनाइजेशन’) की प्रक्रियाएं आपस में होड़ कर रही हैं।
गोवा मुक्ति संघर्ष उत्सव संवाद का समापन समाजवादी समागम के महामंत्री डॉ. अनिल ठाकुर द्वारा धन्यवाद प्रकाश से हुआ।