सोशलिस्ट मेनिफेस्टो – पाँचवीं किस्त

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(दिल्ली में हर साल 1 जनवरी को कुछ समाजवादी बुद्धिजीवी और ऐक्टिविस्ट मिलन कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसमें देश के मौजूदा हालात पर चर्चा होती है और समाजवादी हस्तक्षेप की संभावनाओं पर भी। एक सोशलिस्ट मेनिफेस्टो तैयार करने और जारी करने का खयाल 2018 में ऐसे ही मिलन कार्यक्रम में उभरा था और इसपर सहमति बनते ही सोशलिस्ट मेनिफेस्टो ग्रुप का गठन किया गया और फिर मसौदा समिति का। विचार-विमर्श तथा सलाह-मशिवरे में अनेक समाजवादी बौद्धिकों और कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी रही। मसौदा तैयार हुआ और 17 मई 2018 को, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के 84वें स्थापना दिवस के अवसर पर, नयी दिल्ली में मावलंकर हॉल में हुए एक सम्मेलन में ‘सोशलिस्ट मेनिफेस्टो ग्रुप’ और ‘वी द सोशलिस्ट इंस्टीट्यूशंस’की ओर से, ‘1934 में घोषित सीएसपी कार्यक्रम के मौलिक सिद्धांतों के प्रति अपनी वचनबद्धता को दोहराते हुए’ जारी किया गया। मौजूदा हालातऔर चुनौतियों के मद्देनजर इस घोषणापत्र को हम किस्तवार प्रकाशित कर रहे हैं।)

कामकाजी वर्ग पर हमला

मोदी सरकार ने पिछले कई दशकों में भारत के मजदूर वर्गों द्वारा अर्जित किये गये सभी लाभों पर एक शातिराना हमला शुरू किया है। यह श्रम कानून सुधारों के नाम पर मौजूदा श्रम कानूनों में सभी श्रम अनुकूल प्रावधानों को हल्का/ संशोधित करने की मांग कर रहा है। इसमें दावा यह किया जा रहा है कि यह आसानी से व्यवसाय करने के लिए  आवश्यक है। और यह सब प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से चर्चा किये बिना ही एकतरफा फैसले लेकर किया जा रहा है। यह अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) सम्मेलनों का स्पष्ट उल्लंघन है। सरकार ने श्रम कानूनों में संशोधन के लिए संसद का रुख किया है, जिसके तहत 10-39 श्रमिकों (पहले10-19) वाली कंपनियों को 19 श्रम कानूनों (पहले 9) में रिटर्न दाखिल करने से मुक्त करने का प्रावधान है- देश में इस तरह के कारखानों की संख्या 70% से अधिक है। इससे इन औद्योगिक इकाइयों में श्रमिकों के शोषण में भारी वृद्धि होगी। इसने निश्चित अवधि कर्मचारी की एक नयी श्रेणी भी अधिसूचित की है जिसमें निगम केवल सीमित अवधि के लिए श्रमिकों को नियोजित कर सकते हैं। यह आईएलओ में भारत द्वारा दी गयी प्रतिबद्धताओं का सरासर उल्लंघन है।

मोदी सरकार 44 विरोधी श्रम कानूनों को खत्म कर केवल चार श्रम कोड को अधिनियमित करने का प्रस्ताव दे रही है। ये 4 मजदूर विरोधी, जन विरोधी और नियोक्ता समर्थक श्रम संहिता हैं। ये हैं- लेबर कोड ऑन इंडस्ट्रीयल रिलेशंस, लेबर कोड ऑन वेजेज, लेबर कोड ऑन सोशल सिक्युरिटी और लेबर कोड ऑन सेफ्टी (अभी तक अंतिम रूप दिया जाना है) है। इन एकतरफा परिवर्तनों का विरोध करनेवाले केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के कारण, भाजपा इन परिवर्तनों को एकमुश्त रूप में लागू करने का प्रयास कर रही है। इसी प्रकार, भाजपा शासित राज्य सरकारों में से कुछ ने आगे बढ़कर कई मौलिक श्रम कानूनों को संशोधित भी कर दिया है। इनमें फैक्ट्रीज एक्ट, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट अधिनियम, कांट्रैक्ट लेबर एक्ट आदि जैसे विभिन्न बुनियादी श्रम कानूनों में संशोधन किया है। ये सब मौजूदा सम्मेलनों का स्पष्ट उल्लंघन है जिसके अनुसार, इन परिवर्तनों को यूनियनों के परामर्श के बाद ही पेश किया जा सकता है।

श्रम कानूनों में यह संशोधन श्रमिकों के यूनियन बनाने को लगभग असंभव बना देगा। वे श्रमिकों के लिए हड़ताल पर जाने या घेराव जैसे विरोध के अन्य रूपों में संलग्न होने को भी लगभग असंभव बना देंगे। वे ज्यादातर उद्यमों में श्रमिकों के लिए नौकरी सुरक्षा को खत्म कर देंगे; वे उद्यमों में औपचारिक श्रमिकों को हटाकर अनुबंध श्रमिकों से काम करने को सक्षम बनाएंगे, और उन्हें इच्छानुसार रखने या हटाने को स्वतंत्र होंगे। इससे निगमों को मजदूरों को कम से कम मजदूरी का भुगतान करने, अमानवीय स्तर पर काम की तीव्रता में वृद्धि करने और उन्हें ओवरटाइम मजदूरी के भुगतान के बिना 10-12-14 घंटे काम करने के लिए मजबूर किया जाएगा। वे एमएनसी के लिए बाल श्रम नियोजित करने के लिए भी संभव बना देंगे- सरकार इसे संभव बनाने के लिए बाल श्रम अधिनियम में संशोधन करने का प्रस्ताव कर सकती है।

ये प्रस्तावित परिवर्तन श्रमिकों के लिए गारंटीकृत पेंशन के प्रावधान सहित श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा को कम करने/समाप्त करने का प्रावधान भी करते हैं और धीरे-धीरे औद्योगिक श्रमिकों के लिए एक महत्त्वपूर्ण जीवन रेखा ईएसआई सेवाओं का निजीकरण करते हैं।

श्रमिकों पर इस बर्बर हमले के पीछे सरकार का उद्देश्य यह है कि सरकार देश को विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों (एसएनसी) को बेचना चाहती है। यह उन्हें भारत में निवेश करने के लिए लुभाने की कोशिश कर रही है। पिछले दो-तीन दशकों में, विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादन को विकासशील देशों में स्थानांतरित कर रही हैं क्योंकि इन देशों में बहुत कमजोर श्रम और पर्यावरणीय कानून हैं, जिससे इन निगमों को बहुत कम लागत पर माल का निर्माण करने में सक्षम बनाया गया है। ये निगम अपने निवेश को भारत में केवल तभी लाएंगे यदि वे चीन/ वियतनाम/बांग्लादेश की तुलना में सस्ती दरों पर भारत में निर्माण कर सकते हैं और अधिक मुनाफा कमा सकेंगे। यह केवल तभी संभव है जब श्रमिकों का अधिक शोषण किया जा सकेगा, जिसके लिए हमारे श्रम कानूनों को खत्म करने की आवश्यकता है।

देश के श्रमिकों का भारी अनुपात असंगठित / अनौपचारिक क्षेत्र में है। देश के लगभग 48 करोड़ कर्मचारियों के कार्यबल में, लगभग 93% अनौपचारिक क्षेत्र में लगे हुए हैं। महिला श्रमिक देश की कुल श्रम शक्ति का लगभग 32% हैं। वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों का इन श्रमिकों पर भयानक प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण प्रणाली इत्यादि जैसे कल्याणकारी सेवाओं पर अपने व्यय को कम कर रही है और उन्हें निजी हाथों में दे रही है (नीचे अधिक विस्तार से चर्चा की गयी है)। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हैं।

इसके अलावा, मोदी सरकार 45वें भारतीय श्रम सम्मेलन (आईएलसी) की कई सिफारिशों को लागू करने से इनकार कर रही है, जो इन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लाभ देनेवाली हैं। इसी प्रकार, यह 15वीं आईएलसी के प्रावधानों और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसलों द्वारा निर्धारित मानदंडों के आधार पर न्यूनतम मजदूरी दर तैयार करने से इनकार कर रही है, जिसके कारण न्यूनतम मजदूरी 50% कम है। यह इस मांग को मानने से भी इनकार कर रही है कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को मजदूरी और लाभ का भुगतान नियमित श्रमिकों के बराबर होना चाहिए। यह 1 करोड़ से अधिक योजना श्रमिकों (विभिन्न केंद्रीय और राज्य सरकार योजनाओं जैसे आंगनवाड़ी कर्मचारियों, आशा-कार्यकर्ताओं, मध्याह्न-भोजन श्रमिकों आदि) को मानने से इनकार कर रही है और इसलिए उन्हें न्यूनतम मजदूरी और न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा लाभ से इनकार किया जाता है। 45वें आईएलसी ने योजना श्रमिकों के नियमितीकरण की मांग की थी।

45वें और 46वें आईएलसी में, एचएमएस समेत ट्रेड यूनियनों ने मांग की कि सरकार पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी के रूप में 15,000 रुपये निर्धारित करे और इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाना चहिए, लेकिन सरकार ने इसे एक बहुत कम स्तर पर निर्धारित किया है।

45वें और 46वें दोनों आईएलसी में, एचएमएस ने अपने जनरल सेक्रेटरी हरभजन सिंह सिद्धू की अगुआई में अन्य ट्रेड यूनियनों के साथ इन मुद्दों को उठाया। सरकार के साथ यूनियनों के साथ बातचीत करने और एकतरफा रूप से अपने श्रमिक एजेंडे के साथ आगे बढ़ने में दिलचस्पी नहीं है, अब उसने अनिश्चित काल तक 47वें आईएलसी को स्थगित कर दिया है जो फरवरी 2018 में आयोजित किया जाना था।

इतना सब ही पर्याप्त नहीं था, तो मोदी सरकार ने दो बार भारत के जीवंत असंगठित क्षेत्र को नष्ट करने के लिए एक जान-बूझकर हमला शुरू किया है, जो देश के जीडीपी का 40हिस्सा देता है- शायद ऐसा करनेवाली स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली सरकार है। नवंबर 2016 में इसने नोटबंदी की घोषणा करके और फिर जुलाई 2017 में जीएसटी को लागू करके किया गया। 

वास्तविक उद्देश्य- अर्थव्यवस्था को निगम बनाना, भले ही संगठित क्षेत्र देश के कर्मचारियों के केवल 7% के लिए रोजगार प्रदान करता हो। मोदी ने अपने वास्तविक इरादे को छिपाने के लिए राष्ट्रवाद के नारे के साथ इन नीतियों को शामिल करने में कामयाब रहे, लेकिन इस मामले में असली तथ्य यह है कि इन नीतियों का भारत के छोटे व्यापारियों, देश के विशाल असंगठित विनिर्माण क्षेत्र और छोटे किसानों पर इसके झटके का असर पड़ा है। जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को अभी भी  उबरने में वक्त लग रहा है।

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