किसान विकल्प के तकाजे को जनाधार देता है तो युवा इसमें नयी ऊर्जा भर सकता है

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— राकेश सिन्हा —

(दूसरी किस्त)

जैसे-जैसे समाज में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और बड़ी संख्या में कृषि से जुड़ी आबादी के लोग भी शहरों में नौकरी खोजने लगे हैं, आरक्षण पर राजनीति बढ़ती जा रही है। दलित और पिछड़े तबकों को तो ठीक से आरक्षण मिल नहीं पा रहा, सामाजिक रूप से मजबूत जातियों के एक हिस्से को आर्थिक आधार पर आरक्षण मिल गया है। आरक्षण के माध्यम से सामाजिक न्याय को बढ़ाने की मुहिम पर यह एक बड़ा आघात है। निश्चित रूप से दलित और पिछड़े वर्गों की सामाजिक न्याय की लड़ाई इससे कमजोर हुई है। इससे कमजोर तबकों के खिलाफ प्रशासनिक दुरुपयोग की समस्या बढ़ेगी। सरकार को इस समस्या को सुलझाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए लेकिन इसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे।

आरक्षण को केंद्र बनाकर चलायी गयी राजनीति के कारण युवा वर्ग में जिस प्रकार का वैमनस्य बन गया है, उसे समाप्त कर देश के छात्र-युवा वर्ग में एकता स्थापित करने के लिए प्रयास जरूरी हैं। इसके लिए सबसे पहले तो हमारे युवा वर्ग को यह बात बिलकुल स्पष्ट रूप से समझ लेनी होगी कि सरकारी नौकरियों की कुल संख्या को देखते हुए, इसके माध्यम से युवाओं में बेरोजगारी की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता।

दूसरी बात उच्च शिक्षा और उससे जुड़ी अपेक्षाओं से संबंधित है। देश के सभी युवाओं का हक है कि वे अपनी रुचि के विषय में जितना चाहे ज्ञान प्राप्त कर सकें। यह समाज के भी हित में है कि समाज में ज्ञान और बौद्धिक क्षमता तथा उससे जुड़ी मानवीय चेतना जितना संभव है, बढ़े। इस ज्ञान-प्राप्ति के लिए जरूरी अध्ययन की सुविधा भी होनी चाहिए जिसके माध्यमों में औपचारिक शिक्षा भी एक है। लेकिन इस प्रकार की शिक्षा हमारे युवा वर्ग को अकर्मण्य बना दे जो सिर्फ सरकारी या अन्य प्रकार की कागज कलम वाली नौकरी में ही अपना आर्थिक आधार खोज सकें, यह बात स्वीकार्य नहीं है।

किसी भी देश का मुख्य आर्थिक आधार उत्पादन से जुड़ा होता है। मूल आधार तो भोजन का उत्पादन ही है और उसी के ऊपर औद्योगिक उत्पादन होता है। इस उत्पादन के आधार पर ही सेवा क्षेत्र निर्भर करता है। इन तीनों क्षेत्रों के काम में श्रम प्रमुख होता है।

हमारे समाज में व्याप्त जाति-व्यवस्था वाली मानसिकता शिक्षा-प्राप्त व्यक्ति को श्रम-विमुख बनाती है। अर्थव्यवस्था में ऐसे रोजगारों का अनुपात बहुत कम होता है जो मुख्य रूप से शारीरिक श्रम से न जुड़े हों। इसलिए हमें मानसिक रूप से शिक्षा और रोजगार को एक दूसरे से अलग करके देखना होगा।

इसके साथ ही हमें समाज में श्रम की गरिमा को स्थापित करना होगा और सकल घरेलू उत्पाद में श्रमिकों की हिस्सेदारी को बढ़ाना होगा। इसकी जिम्मेदारी समाज की भी है और सरकार की भी। भारत में आत्मनिर्भर तकनीकी विकास तभी होगा जब देश के इंजीनियर फैक्टरी में अपने हाथ और कपड़े गंदे करने के लिए तैयार होंगे।

हम यह देख सकते हैं कि दुनिया में जो भी विकसित और खुशहाल देश हैं उनकी अर्थव्यवस्था उनकी पूरी आबादी के हिसाब से उत्पादन और रोजगार सुनिश्चित करती है। एक विकसित आत्मनिर्भर भारत के लिए हमें भी इसी प्रकार की व्यवस्था की जरूरत है। स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक हमारे देश में भी सरकारों का ध्येय पूरी आबादी के लिए विकास सुनिश्चित करना था भले ही सही नीतियां न होने से उन्हें इस काम में सफलता न मिली हो।

लेकिन अस्सी के दशक से शुरू होकर तो सरकारों के काम करने की दृष्टि और दिशा ही बदल गयी। अर्थव्यवस्था के निजीकरण और निजी मुनाफे को बढ़ाने और इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोलने के लिए देश की आबादी का आर्थिक बहिष्करण शुरू हो गया है। सरकार के हाल के निर्णयों से इसी काम को और तेजी से करने की प्रतिबद्धता दिखाई देती है।

इस स्थिति को समझने के लिए हमें अपने लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति को समझना होगा। लोकतंत्र के त्रिकोण का सबसे अहम कोना, आम जनता, जिसके हाथ में लोकतंत्र का नियंत्रण होना चाहिए और जिसे लोकतांत्रिक गतिविधियों के केंद्र में होना चाहिए, उसकी भूमिका पांच साल में एक बार वोट देकर अपना शासक चुनने और फिर अगले चुनाव तक मूकदर्शक बनकर बैठे रहने तक सीमित हो गयी है। इस त्रिकोण का दूसरा कोना राजनीतिक दलों का है जिन्हें अपने सिद्धांतों, नीतियों और कार्यक्रमों के निर्धारण में सक्रिय होना चाहिए लेकिन जो सिर्फ चुनाव लड़ने की मशीन बनकर रह गए हैं। लेकिन जिन संगठनों के पास इस तरह की मजबूत चुनावी मशीन नहीं है वे चुनाव जीतना तो दूर, ठीक से चुनाव लड़ पाने की आशा भी नहीं कर सकते।

पार्टियां वैसे तो सिर्फ चुनाव के समय ही सक्रिय होती हैं लेकिन चुनावों के बीच के समय भी इन्हें पालना-पोसना और चुस्त बनाये रखना होता है। इस प्रकार के संगठन को बनाकर रखने के लिए भारी पूंजी की जरूरत होती है जिसके लिए ये राजनीतिक दल मुख्य रूप से पूंजीपतियों पर निर्भर होते हैं। जहां कहीं विपक्ष की सरकार बन जाती है उसे अस्थिर करने और गिराने के लिए भी हर तरह की खरीद-फरोख्त होती है और इसके लिए जरूरी फंड का स्रोत भी यही पूंजीपति होते हैं। इस तरह की पार्टियां पूंजीपतियों पर बहुत हद तक निर्भर होती हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें इन्हीं पूंजीपतियों के हित में काम करना पड़ता है।

लोकतंत्र का तीसरा कोना, सरकार यानी सत्ता प्राप्त करनेवाले दल का शीर्ष नेतृत्व भी कई तरह के दबावों में काम करता है। एक बड़ा दबाव तो उन पूंजीपतियों का ही होता है जिनकी आर्थिक सहायता के बल पर वे सत्ता में आए हैं और जिनकी मदद की जरूरत उन्हें पार्टी चलाते रहने और आगे के चुनाव लड़ने के लिए भी होनेवाली होती है। दूसरा बहुत बड़ा दबाव उस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का होता है जो विश्व की राजनीति, अर्थव्यवस्था और विभिन्न क्षेत्रों की सैन्य सुरक्षा की स्थिति को नियंत्रित करती है। इस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में अपनी जगह बनाने की कीमत हमारे केंद्रीय नेतृत्व को वो नीतियां और कानून बनाकर देनी पड़ती है जो अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं आगे बढ़ाने को कहती हैं।

ये नीतियां और कानून पश्चिमी देशों के हित साधने के लिए जरूरी होते हैं और केंद्रीय नेतृत्व छिपाने की कितनी ही कोशिश कर ले, इन नीतियों का देश के किसान, मजदूर और आम जन के लिए घातक स्वरूप सामने आ ही जाता है। ऐसी ही स्थिति हमें आज बनती हुई दिखाई दे रही है। जहां भारत का किसान खुलकर नये केंद्रीय कानूनों के खिलाफ संगठित हो चुका है और देश का आम जन भी धीरे-धीरे उसके साथ खड़ा होता दिखाई दे रहा है।

देश की सरकार देश के हित में नीतियां और कानून बनाए, न कि विदेशी कंपनियों और देश के पूंजीपतियों के हित साधने के लिए, यह भारत की जनता का लोकतांत्रिक अधिकार भी है और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी भी। अस्सी के दशक से लगातार बढ़ रहे नवउदारवाद के दौरान भारत की आर्थिक नीतियां लोकतांत्रिक नियंत्रण के दायरे से बाहर कर दी गयी हैं। सरकार किसी भी दल की हो, आर्थिक नीतियां और कानून अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के निर्देश के अनुसार बनते हैं।

अब आम जनता को यह समझ लेना होगा कि न सिर्फ सरकार को चुनना बल्कि जनता और देश के हित में नीतियां बनाने के लिए उसका नियंत्रण करना भी जनता की ही जिम्मेदारी है। इसके बिना हमारे लोकतंत्र का नियंत्रण चंद पूंजीपतियों और उनके पीछे खड़ी अंतरराष्ट्रीय ताकतों के हाथ में चला जाएगा।

सरकार पर लोकतांत्रिक नियंत्रण कायम करने के लिए आम जनता को राजनीतिक पार्टियों के दायरे के बाहर, स्वतंत्र रूप से संगठित होना पड़ेगा और हमेशा सचेत और सक्रिय रहना पड़ेगा। किसान आंदोलन से इसकी एक शुरुआत हो भी चुकी है। अब आम जनता के अन्य वर्गों को भी उसमें जोड़ना होगा।

किसान इस तरह के नागरिक संगठन को एक व्यापक जनाधार देता है तो युवा इसमें सतत नयी ऊर्जा भर सकता है। देश के युवा को समझना होगा कि उसका भविष्य सरकारी नौकरियों में नहीं बल्कि सही सरकारी नीतियों और देश की परिस्थितियों के अनुकूल अर्थव्यवस्था लागू होने में है। कोई भी छात्र-युवा आंदोलन जो सिर्फ सरकारी नौकरियों में भर्ती का आंदोलन बनकर रह जाता है वह भी व्यवस्था, खासकर अर्थव्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन के साथ जुड़ नहीं सकता और अपने आप में तो वह कभी ज्यादा प्रभावी भी नहीं हो सकता क्योंकि इस तरह के आंदोलन के पास कोई व्यापक जन आधार नहीं होगा।

अगर छात्र-युवा आंदोलन पूर्ण रोजगार का आंदोलन बनता है तो यह किसान आंदोलन के अर्थव्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन से जुड़कर उसमें नयी ऊर्जा भर सकता है। इसी प्रकार संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पास इस व्यवस्था से टकरा पाने लायक जन आधार नहीं है और असंगठित क्षेत्र का मजदूर बहुत छितरा हुआ है। यह बात छोटे दुकानदारों और छोटे व्यापारी वर्ग पर भी लागू होती है।

ये सभी वर्ग किसान आंदोलन से जुड़कर सरकार और उसकी नीतियों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण बनाये रखने के लिए जरूरी एक सतत सक्रिय नागरिक संगठन को एक व्यवस्थित और व्यापक रूप दे सकते हैं। लोकतांत्रिक नियंत्रण की यह निरंतर प्रक्रिया ही देश की समस्याओं का अपनी परिस्थितियों के अनुकूल समाधान खोजने का एक रास्ता बन सकती है।

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