खबरों का ‘तालिबानीकरण’ यानी प्रतिरोध को नपुंसक बनाने का षड्यंत्र !

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कार्टून E.D.Times से साभार


— श्रवण गर्ग —

देश के नागरिक इस वक्त एक नए प्रकार के ‘ऑक्सीजन’ की कमी के अदृश्य संकट का सामना कर रहे हैं।आश्चर्यजनक यह है कि ये नागरिक साँस लेने में किसी प्रकार की तकलीफ होने की शिकायत भी नहीं कर रहे हैं। मजा यह भी है कि इस जरूरी ‘ऑक्सीजन’ की कमी को नागरिकों की एक स्थायी आदत में बदला जा रहा है। उसका उत्पादन और वितरण बढ़ाये जाने की कोई माँग उस तरह से नहीं की जा रही है जैसी कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान मेडिकल ऑक्सीजन को लेकर की जाती थी। जिस ‘ऑक्सीजन’ की कमी की यहाँ बात की जा रही है उसके कारण प्रभावित व्यक्ति शारीरिक रूप से नहीं मरता, वह दिमागी तौर पर सुन्न या शून्य हो जाता है। एक खास किस्म की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसे नागरिकों की सत्ताओं को सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है।

बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि वे इन दिनों अखबारों को पढ़ने और राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर प्रसारित होनेवाले समाचारों या चलनेवाली बहसों को सुनने-देखने में खर्च किये जानेवाले अपने समय में लगातार कटौती कर रहे हैं। जिस अखबार को पढ़ने में पहले आधा घंटा या और भी ज्यादा का वक्त लगता था वह अब पन्ने पलटाने भर का खेल रह गया है। अगर किसी सुबह अखबारवाला विलम्ब से आए ,कोई दूसरा समाचार पत्र डाल जाए तो भी फर्क नहीं पड़ रहा है। फर्क सिर्फ अखबारों की कीमतों में रह गया है, खबरों के मामले में लगभग सभी एक जैसे हो गये हैं।

नागरिकों को भान ही नहीं है कि हाल के सालों तक अखबारों या चैनलों के जरिए जो ‘ऑक्सीजन’ उन्हें मिलती रही है उसकी आपूर्ति में किस कदर कमी कर दी गयी है ! नागरिकों के दिमागों को बिना खिड़की-दरवाजों के किलों में कैद किया जा रहा है। किलों की दीवारों को भी एक खास किस्म के रंग से पोता जा रहा है और उन पर राष्ट्रवाद के पोस्टर चस्पां किये जा रहे हैं, भड़काऊ नारे लिखे जा रहे हैं। धृतराष्ट्रों और संजयों ने भूमिकाएँ आपस में बदल ली हैं। अब धृतराष्ट्र संजयों को आधुनिक कुरुक्षेत्र की घटनाओं का ‘पेड’ वर्णन सुना रहे हैं।

पिछले दिनों मैंने कोई पचास शब्दों (280 वर्ण-मात्राओं) का एक ट्वीट जारी किया था। वह इस प्रकार से था : देश की जनता को अपने ही सभी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के नामों, जगहों और (देश में) चल रहे नागरिक प्रतिरोधों तथा जन-आंदोलनों की पूरी जानकारी नहीं है पर अखबारों और चैनलों ने अफगानिस्तान के बारे में जनता को विशेषज्ञ बना दिया है। क्या पाठकों-दर्शकों के खिलाफ षड्यंत्र की गंध नहीं आती ?’ मेरे इस ट्वीट पर कई प्रतिक्रियाएँ मिलीं थीं। उनमें से अपने परिचित इलाके की केवल एक प्रतिक्रिया का जिक्र यहां कर रहा हूँ ।

महानगरों की कतार में शामिल होते इंदौर से सिर्फ डेढ़ सौ किलोमीटर दूर डेढ़ लाख की आबादी का शहर खरगोन स्थित है। कपास और मिर्ची के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध इस ग्रामीण परिवेश के शहर में लगभग सारे बड़े अखबार इंदौर से ही बनकर जाते हैं। मेरे ट्वीट पर जो एक प्रतिक्रिया वहाँ से आयी और जिसे कुछ अन्य लोगों ने बाद में री-ट्वीट भी किया वह इस प्रकार थी : ‘सर आज के दैनिक भास्कर ने पूरा तालिबान मंत्रिमंडल अपने पहले पेज पर छापा है वहीं खरगोन के थाने में हुई घटना को अंदर के पेज पर जगह दी गयी। इसी से सब समझ आता है।’ (खरगोन में एक आदिवासी युवक की हिरासत में मौत हो गयी थी। बाद में घटना पर व्यक्त हुए आक्रोश के बाद एसपी को वहाँ से हटा दिया गया।)। खबरों को दबाने के मामले में शहरी क्षेत्रों, यहां तक कि महानगरों की स्थिति भी खरगोन से ज्यादा अलग नहीं है।

लगभग सभी बड़े अखबारों और चैनलों की हालत आज एक जैसी कर दी गयी है। कोई भी सम्पादक न तो अपने पाठकों को बताने को तैयार है और न ही कोई उससे पूछना ही चाहता है कि इन ग्रामीण इलाकों और छोटे-छोटे कस्बों में आप खबरों का ‘तालिबानीकरण’ किसके डर अथवा आदेशों से कर रहे हैं ? और ऐसा प्रतिदिन क्यों किया जा रहा है?

क्या कहीं ऊपर से इस तरह के हुक्म आए हैं कि अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के गठन और अल-कायदा को लेकर जो कुछ चल रहा है उसी की जानकारी पाठकों को देते रहना है ; रायपुर, लखनऊ और करनाल में जो चल रहा है उसे सख्ती से दबा दिया जाना है ! यही वह ‘ऑक्सीजन’ है जिसकी कृत्रिम कमी जान-बूझकर पैदा की जा रही है। निश्चित ही जब यह ‘ऑक्सीजन’ जरूरत की मात्रा में दिमागों में नहीं पहुँचेगा तो वैचारिक रूप से जागृत पाठक और दर्शक कोमा में जा सकता है। एक बड़ी आबादी को इस तरह की ‘ब्रेन डेथ’ और ‘कोमा’ की ओर धकेला जा रहा है।

तालिबानी मंत्रिमंडल के गठन और अल-कायदा के आतंकवाद का घुसपैठिया विश्लेषण करने वाले सम्पादक और खोजी पत्रकार अपने दर्शकों और पाठकों को यह नहीं बताना चाह रहे हैं कि अफगानिस्तान में भारतीय मूल के नागरिक इस समय किन कठिन हालात का सामना कर रहे हैं अथवा भारत में इस समय कुल कितने अफगान शरणार्थी हैं या ताजा संकट के बाद से कितने भारतीयों को वहाँ से बाहर निकाला जा चुका है। अफगानी समुदाय के एक नेता के मुताबिक भारत में कोई इक्कीस हजार अफगान शरणार्थी पहले से रह रहे हैं।

जाहिर है इन सब सवालों के जवाब पाने के लिए सरकारी हलकों में पूछताछ करनी पड़ेगी। किसी में भी ऐसा करने का साहस नहीं बचा है। मेडिकल ऑक्सीजन का अभाव सह रहे मरीजों या गंगा में बहती लाशों की लाखों में गिनती करके अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बटोरने वाला मीडिया इस समय छोटी-छोटी गिनतियाँ करने से भी कन्नी काट रहा है।

अफगानिस्तान (और पाकिस्तान ) की खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और अपने ही देश और शहर के जरूरी समाचारों को या तो गायब कर देना या फिर अंदर के पन्नों के ‘संक्षिप्त समाचारों’ की लाशों के ढेर के साथ सजा देना लगातार चल रहा है। मीडिया का यह कृत्य इतिहास में भी दर्ज हो रहा है। उस इतिहास में नहीं जिसे कि आज क्रूरतापूर्वक बदला जा रहा है बल्कि उस इतिहास में जिसमें दुनियाभर के लोकतंत्रों के उत्थान और पतन की कहानियाँ दर्ज की जातीं हैं।

एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निहायत जरूरी इस ‘ऑक्सीजन’ की चाहे जितनी कृत्रिम कमी उत्पन्न कर दी जाए जब कुछ भी नहीं बचेगा तो लोग आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए सच्ची खबरें पत्थरों और शिलाओं पर लिखना शुरू कर देंगे। एक डरा हुआ और लगातार भयभीत दिखता मीडिया अपने पाठकों, दर्शकों और प्रतिरोध की राजनीति को वैचारिक रूप से नपुंसक ही बनाएगा।

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