— डॉ सुरेश खैरनार —
चौदह सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया गया। 14 की रात को सोते समय मेरे मन में, मेरा हिंदी के साथ कैसे संबंध बना, यह खयाल आया। यह विचार अचानक ही उछलकूद करने लगा! तो अपने आप को जब्त करके बड़ी मुश्किल से सोया, और अब उस उछलकूद को आप सब के सामने पेश कर रहा हूँ !
मैं महाराष्ट्र की पश्चिमी दिशा के गुजरात से सटे हुए धुलिया जिले की साक्री तहसील (ब्लाक) के ढाई-तीन हजार जनसंख्या के मालपुर नाम के देहात में एक किसान परिवार में पैदा हुआ। शायद मेरे पिताजी उस समय की सातवीं फायनल पास थे माता सिर्फ अपना नाम लिखने तक साक्षर थीं। और हमारी बोली-भाषा अहिराणी है! (यह खानदेश- धुलिया, नंदुरबार, नासिक, जलगांव चार जिलों का महाराष्ट्र का एक हिस्सा- में बोली जानेवाली स्थानीय बोली है ) मराठी मैंने स्कूल में दाखिल होने के बाद ही सीखना शुरू किया। महाराष्ट्र में राष्ट्र भाषा नाम की संस्था द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए एक परीक्षा की शुरुआत हो चुकी थी। तो मुझे मेरे शिक्षकों ने उस परीक्षा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। और मैंने कोई प्रबोध या रत्न नाम की उपाधि प्राप्त की थी !
हिंदी देवनागरी लिपि में होने और मराठी भाषा भी देवनागरी लिपि में होने के कारण मुझे हिंदी लिखने-पढ़ने में आसानी हुई! समझता कितना था पता नहीं ! पर हमारे गाँव में हमारे ही घर में फिलिप्स कंपनी का एक बड़ा सा रेडियो सेट उसके एरियल के साथ प्रतिष्ठित हुआ! शायद साठ के दशक की बात है। और उस रेडियो पर आनेवाले हिंदी सिनेमा के विविध भारती और बिनाका गीतमाला के गानों ने मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धन में इजाफा किया। और गुलशन नंदा नाम के एक उपन्यासकार की शायद ही कोई किताब होगी जो मैंने नहीं पढी होगी ! पॉकेट मनी का प्रचलन नहीं था पर कोई मेहमान जाने के वक्त कुछ आना-दो आना की बख्शिस जरूर दे जाते थे। वह इकट्ठा करके मैंने गुलशन नंदा की सभी किताबों का संग्रह किया था !
तो शायद मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धन में हिंदी की ‘राष्ट्रभाषा’ द्वारा दी हुई परीक्षा और गुलशन नंदा, रेडियो के विविध भारती और बिनाका गीतमाला के गानों ने योगदान किया है ! फिर सातवीं कक्षा के बाद शिंदखेडा, यह हमारे साक्री तहसील के बगल की दूसरी तहसील का गांव, जहाँ मेरे बुआ का ब्याह हुआ था, उन्होंने अपने यहाँ मुझे आठवीं कक्षा में पढ़ाई के लिए बुलाया। वहां राष्ट्र सेवा दल की शाखा लगती थी। तो संघ से बाहर निकल आने के बाद मैंने राष्ट्र सेवा दल की शाखा में जाना शुरू कर दिया!
साल-भर में ही मुझे पुणे के साने गुरुजी स्मारक पर शिंदखेडा के प्रचारक श्री प्रभाकर पाटील जी ने अकेले ही शिंदखेडा से पुणे बस से पहले धुलिया और वहां से दूसरी बस द्वारा पुणे के लिए, शाखानायक-दस्तानायक के पहले ही शिविर में भेजा था! (1967) और उस एक हफ्ते के शिविर के बाद तत्कालीन पदाधिकारियों ने मुझे पुणे से मध्यप्रदेश के हरदा नाम के गाँव, राष्ट्र सेवा दल के प्रशिक्षक की हैसियत से वाया कल्याण से जीवन में पहली बार रेल के जनरल डब्बे में अकेले ही भेज दिया! और मैं भी मई की गर्मी में कल्याण से हरदा (चड्ढी-बनियान पर, क्योंकि बेतहाशा गर्मी थी, और खड़े-खड़े !), बारह से भी ज्यादा घंटों का सफर, और मेरी उम्र सिर्फ पंद्रह साल!
आज पचास साल से भी ज्यादा समय बाद मन में आ रहा है कि अज्ञानी होने का सिर्फ नुकसान नहीं होता है! कुछ-कुछ फायदा भी होता है ! अगर मुझे इस बात का पता होता कि अकेला सफर करना खतरनाक होता है, या मेरे घर-परिवार वाले मुझे गमले में लगे पौधे जैसा पाले होते तो? इस तरह का प्रवास, वह भी इतनी कम उम्र में ! मेरे अंदर आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए इन सब बातों का बहुत बड़ा योगदान रहा है !
राष्ट्र सेवा दल के हरदा और उसके बाद पिपरिया, भोपाल, रीवा, हर जगह एक-एक हफ्ते का शिविर, अकेले ही शाखा पद्धति से गाने और बौद्धिक (अब सचमुच कितना सही-ग़लत लिया होगा, यह देखने के लिए कौन था?) क्योंकि मेरे खुद के जीवन का पहला प्रशिक्षण शिविर, और वह संपन्न करके खुद के बलबूते इसी तरह के दूसरे शिविर लेने चल पड़ा, वह भी महाराष्ट्र के बाहर हिंदी भाषी क्षेत्र में! शायद उस समय की गर्मी की सभी छुट्टियाँ ख़त्म होने के बाद ही मैं वापस शिंदखेडा लौटा। (नौवीं या दसवीं कक्षा का छात्र था !)
उस एक महीने के मध्यप्रदेश के (महाराष्ट्र के बाहर जाने का पहला मौका!) प्रवास में, झख मार के जो भी हिंदी में वार्तालाप किया होगा, वह कितना सही-ग़लत रहा होगा पता नहीं! पर मध्यप्रदेश के उन सभी लोगों को (हरदा के शिलालपूरिया जी, पिपरिया के आर्य साहब, भोपाल की सविता वाजपेयी और रीवा के शास्त्री जी) हृदय से धन्यवाद देना चाहूँगा, जिन्होंने पंद्रह साल के एक बच्चे को प्रशिक्षक के नाते बर्दाश्त किया!
भोपाल में सविता वाजपेयी जी के घर में हिंदी किताबों का खजाना था। मैंने अकाल से आये हुए भूखे आदमी की तरह अमृतलाल नागर, अमृता प्रीतम, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, अज्ञेय, कृष्णचंदर, राही मासूम रज़ा, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद आदि की किताबें चाट डालीं। सविता वाजपेयी जी के पति श्री बीएम भारती जीएमपी क्रानिकल के संपादक थे, लिहाजा उनके घर पर लगभग सभी अखबार आते थे। धर्मयुग, दिनमान, नंदन, सारिका जैसी पत्रिकाओं के कारण मेरे हिंदी के ज्ञानवर्धन में और वृद्धि हुई। हालाँकि दिनमान की हिंदी को समझने में बहुत दिक्कत होती थी लेकिन लेखों की विषयवस्तु बहुत ही बढ़िया होने के कारण मैं संत्रास, त्रासदी जैसे शब्द, और कहीं नहीं दिखने के बावजूद, बर्दाश्त कर लेता था !
मेरी गरमी की और दिवाली या क्रिसमस की भी सभी छुट्टियां माता-पिता के घर के अलावा भोपाल में सविता वाजपेयी जी के घर, मेरे कालेज की शिक्षा खत्म होने तक, बीती हैं।
आज जो भी सही-ग़लत हिंदी लिख-बोल रहा हूँ वह सब अपरिहार्य अपरिस्थितियों के कारण। अन्यथा हमारे मराठी भाषी मित्रों को बहुत खीज होती है कि तुम हिंदी में क्यों लिखते रहते हो? क्या डॉ राममनोहर लोहिया के प्रभाव के कारण ? मुझे लोहिया अंग्रेजी न सीखने के लिए ढाल के रूप में जरूर काम आये लेकिन हिंदी के लिए नहीं, हिंदी अपने मित्रों के लिए लिख रहा हूँ। हालाँकि मेरी हिंदी ही क्यों, मराठी तक ढंग की नहीं होने के कारण, मुझे एक मित्र के अतिबुद्धिमान सुपुत्र ने हड़काया कि काका आपके मराठी और हिंदी के लेख पढ़ने पर मुझे बहुत कष्ट होता है ! तो मैंने उसे जवाब दिया कि बेटा, मेरी मातृभाषा अहिराणी है और मराठी मैंने स्कूल में दाखिल होने के बाद ही सीखना शुरू किया, और हिंदी रेडियो तथा हिंदी के देवनागरी लिपि में होने के कारण तथा मुझे पढ़ने का नशा होने के कारण, पढ़ते-पढ़ते और राष्ट्र सेवा दल के काम के लिए उम्र के पंद्रह साल के भी पहले से, हिंदी भाषी प्रदेशों में जाने का मौका मिला, तो थोड़ी बहुत हिंदी में भी बोलने और लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ !
मेरा कदापि दावा नहीं रहा कि मैं बहुत अच्छा मराठी या हिंदी का विद्वान हूँ ! हालाँकि मेरी मान्यता है कि भाषा की शुद्धता का अभिमान वर्ण व्यवस्था का परिणाम है ! क्योंकि कौन लोग हैं, कि यही सही अंग्रेजी, या मराठी या हिंदी या अन्य कोई भी भाषा शुद्ध-अशुद्ध है? और इसी कारण समाज का बहुत बड़ा वर्ग हजारों सालों से मूकदर्शक बनकर रहा है, भारत की काफी बड़ी आबादी की अभिव्यक्ति नहीं के बराबर है ! अगर ज्योतिबा फुले और डॉ बाबासाहब आंबेडकर नहीं पैदा हुए होते तो आज भी चंद लोगों के लेखन को पढ़ने की नौबत आई होती ! मराठी भाषा में दलित साहित्य यह शत-प्रतिशत डॉ बाबासाहब आंबेडकर के अथक प्रयासों के बाद दलितों में आए लिखने के आत्मविश्वास की देन है !
बाबासाहब ने अपने पहले अखबार का नाम ‘मूकनायक’ रखा था क्योंकि हमारे समाज को हजारों सालों से ज्ञान के प्रकाश से वंचित रखा गया है और तथाकथित मराठी साहित्यकारों ने दलित साहित्य को देखकर काफी नाक-भौं सिकोड़े हैं। जब फ्रेंच, जर्मन जैसी भाषाओं में अनुवाद हुए और कमलेश्वर जैसे संपादक की नजरों में आने के कारण उन्होंने समानांतर साहित्य के नाम पर सारिका जैसी पत्रिका जगह दी, तो मराठी भाषा के तथाकथित विद्वानों को भी स्वीकार करना पड़ा, और आज दलितों द्वारा लिखित साहित्य भी पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है !
मेरा हिंदी से जो रिश्ता बना उसका शत-प्रतिशत श्रेय राष्ट्र सेवा दल के शिविरों को है, जिसके सिलसिले में मुझे महाराष्ट्र से बाहर जाने का पहला मौका मिला, और फिर ऐसे मौके आते रहे हैं। जय हिंद, जय हिंदी!