— विमल कुमार —
यदि आप मुझसे पूछें कि मैं कहां का रहनेवाला हूं तो मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होगा, वास्तविकता यह है कि मैं कहीं का रहनेवाला नहीं। मेरा घर कहीं नहीं। मैं पैदा मनाली में हुआ था। माता-पिता कर्नाटक में रहते हैं। हिमाचल प्रदेश के दो अलग-अलग स्कूलों में बचपन गुजारने के बाद मेरी आगे की पढ़ाई मुझे मद्रास, लद्दाख और मुंबई ले गयी। मेरी बहनें वाराणसी में रहती हैं। भाई धर्मशाला में रहते हैं। फिर भी मेरा रजिस्ट्रेशन प्रमाणपत्र यह कहता है कि मैं एक विदेशी हूं जो भारत में रहता है और जिसकी नागरिकता तिब्बत की है जबकि तिब्बत दुनिया के राजनीतिक नक्शे पर एक राष्ट्र के तौर पर चिन्हित नहीं।”
यह दास्तां तिब्बत के एक कवि की है जो यह भी लिखता है- “भारतीय लोग चिंग चोंग पुकारते हैं। जबकि चीनी लोगों ने मुझे तिब्बत में प्रवेश करने पर गिरफ्तार कर लिया और पीटा और बाहर फेंकते हुए कहा- बाहर निकल बदमाश हिंदुस्तानी। मैं आखिर हूं कौन? मेरा जन्म और पालन-पोषण भारत में हुआ और मैं यहां की चार भाषाएं बोल सकता हूं। बॉलीवुड से मोहब्बत करता हूं। अपनी बिरादरी से ज्यादा भारतीय दोस्त मेरे। आखिर मैं कौन हूं।”
हिंदी की प्रसिद्ध युवा कवयित्री और अनुवादक अनुराधा सिंह ने ‘ल्हासा का लहू’ नामक किताब संपादित की है जो निर्वासित तिब्बती कविता का एक संग्रह है जिसमें निर्वासन की यह पीड़ा व्यक्त की गयी है।
रजा फाउंडेशन के सहयोग से प्रकाशित इस किताब में तीन निर्वाचित तिब्बती कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हैं। साथ ही निर्वासन में रचित तिब्बती कविताओं पर आलेख भी शामिल किये गये हैं। संभवत हिंदी की दुनिया में यह पहली किताब है जिसमें तिब्बती कविताओं के अनुवाद को शामिल किया गया है।
हिंदी में तिब्बत की आवाज को बहुत कम सुना गया और उसके समर्थन में बहुत कम आवाज उठायी भी गयी है। अलबत्ता,यह कहा सकता है कि तिब्बत के मुद्दे को लेकर हिंदी की दुनिया में वर्षों से एक चुप्पी छायी रही। अपवादस्वरूप निर्मल वर्मा जैसे लेखकों ने जरूर तिब्बत के सवाल को उठाया था। भीष्म साहनी ने एक तिब्बती लामा पर एक जमाने में कहानी लिखी थी। प्रसिद्ध कहानीकार-कवि उदय प्रकाश ने ‘तिब्बत’ शीर्षक से एक कविता लिखी थी जिस पर उन्हें 1981 में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था। लेकिन आमतौर पर तिब्बत की समस्या को लेकर हिंदी साहित्य में कोई गहरी चिंता व्यक्त नहीं की जाती है जबकि भारत में बड़ी संख्या में तिब्बती शरणार्थी रहते हैं।
यूं तो पूरी दुनिया में शरणार्थियों की बड़ी समस्या है चाहे तिब्बती शरणार्थी हो या बांग्लादेश के शरणार्थी या म्यांमार के रोहिंग्या शरणार्थी। आधुनिक समय में हमने जो राष्ट्र-राज्य बनाया है, जो सभ्यता विकसित की है, उसमें मनुष्यों के साथ बहुत अत्याचार भी किया है, विरोध और प्रतिरोध की आवाज को कुचला है लेकिन यह पीड़ा तो सबसे गहरी पीड़ा है कि किसी व्यक्ति का कोई राष्ट्र ही ना हो, उसका कोई देश ही ना हो और वह पूरी जिंदगी मारा मारा फिरता रहे। वह अपने वतन न लौट पाए। अपने देश में भी कई लोगों को यह निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है। तसलीमा नसरीन इसकी जीता-जागता उदाहरण हैं। विदेशों में भी कई लेखकों को कभी हिटलर तो कभी स्टालिन के कारण या तानाशाह शासकों के कारण निर्वासित जीवन बिताना पड़ा। इसका एक लंबा इतिहास रहा है।
अनुराधा की किताब इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है कि पहली बार तिब्बत के निर्वासित कवियों के बारे में हम परिचित हो रहे हैं। आमतौर पर हम तिब्बत के नाम पर दलाई लामा को ही थोड़ा बहुत जानते हैं जबकि तिब्बतियों से हमारा वास्ता अपने जीवन में थोड़ा बहुत पड़ता रहता है। लेकिन हम उनके जीवन के बारे में बहुत कम जान पाते हैं। इस संग्रह में ते तेनजीं सुंडू, भुचुंग डी.सोनम तथा सेरिंग बांगमों धोम्पा शामिल हैं जिनकी कविताओं को पढ़कर लगता है कि वे किसी मायने में विश्वस्तरीय कविताओं से कम नहीं हैं। पुस्तक के प्रारंभ में अनुराधा ने मैथिलीशरण गुप्त की ‘यशोधरा’ से कुछ पंक्तियां उद्धृत की हैं जिनमें कहा गया है-
“तब जन्मभूमि तेरा महत्व
जब मैं ले आऊं अमर तत्व।
यदि पा न सके तू सत्य सत्व
तो सत्य कहाँ? भ्रम और भ्राम!
ओ क्षणभंगुर भव राम राम!”
अनुराधा ने किताब के प्रारंभ में एक छोटी सी भूमिका भी लिखी है जिसमें उन्होंने तिब्बत के सांस्कृतिक इतिहास, चीन के साथ उसके विवाद, निर्वासन की पीड़ा आदि पर प्रकाश डालने का एक विनम्र प्रयास किया है।
अनुराधा ने लिखा है- “चीन ने तिब्बत से उसकी जमीन छीनी, लाखों की संख्या में उसके नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया, फिर भी उसकी राष्ट्रीय चेतना पर एक खरोंच तक न लगा। आतंकित होता रहा कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी सांस्कृतिक रूप से एकदम अनूठी पहचान रखने वाला तिब्बत चीन का अविभाज्य अंग नहीं दिख रहा है। तिब्बत की भाषा चीन से भिन्न है, धर्म भिन्न है, परंपराएं भिन्न हैं, रहन-सहन भिन्न हैं, जीवन मूल्यों तो सर्वथा भिन्न हैं। बौद्ध तिब्बती अहिंसक और चीन शिरोपाद हिंसा है तो तिब्बत को चीन में एकसार करने के लिए उनके बौद्ध विहार मठ नष्ट किये गए, उनका धार्मिक और पारम्परिक साहित्य जलाया गया, उनकी बस्तियों में उनके बीच भारी संख्या में बेरोजगार और आपराधिक प्रवृत्ति के चीनी नागरिक बसा दिए गए, तिब्बती भाषा का सार्वजनिक उपयोग निषिद्ध कर दिया गया, धर्मसत्ता में आस्था रखनेवाले इस शांतिप्रिय समुदाय पर नृशंस राजतंत्र थोप दिया गया।”
पुस्तक में तेंनजी की 14 कविताएं हैं जिनमें ‘रिफ्यूजी’, ‘दहशतगर्द’, ‘पेड्रो की बांसुरी’, ‘धोका’, ‘प्रस्ताव’, और ‘मैं थक गया हूँ’ उल्लेखनीय कविताएं हैं। इन कविताओं में निर्वासित जीवन का विडम्बना बोध और गहरी पीड़ा है। कवि कहता है –
“मेरा जन्म हुआ
तो मेरी माँ ने कहा
तुम रिफ्यूजी हो
बर्फ में सड़क के किनारे
तम्बू से धुआं उठा था”
कवि ‘दहशतगर्द’ कविता में लिखता है-
“मैं एक दहशतगर्द हूं
मारना मेरा शगल
मेरे सींग हैं
दो जहरीले दांत
और ड्रैगनफ्लाई सी पूंछ
अपने घर खदेड़ा गया
डर से छिपा
प्राण बचाए
जिसके मुंह पर बंद हैं सब दरवाजे”
एक कविता में कवि तिब्बती नव वर्ष लोजार के खोने के भय को व्यक्त करता है।
भुचुंग सोनम की तेरह कविताएं हैं। उनकी ‘निर्वासन’ शीर्षक से भी एक कविता है।
वह ‘कब हुआ था मेरा जन्म’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“मां कब हुआ था मेरा जन्म
उस साल जब नदी सूख गई थी
कब हुआ था वैसा?
उस साल जब फसल बर्बाद हुई थी हम रह रहे थे भूखे कई कई दिन
और व्याकुल थे कि तुम बचोगे नहीं क्या यही था वह वर्ष जब हम आए थे एक नए घर में
हां, यही था वह वर्ष जब उन्होंने हमारे घर को हथिया लिया था
बांट दिया था उसे देशभक्त पार्टी सदस्यों के बीच
और हम निर्वासित कर दिए गए थे गौशाला में जहां जन्मे थे तुम
कौन सा था वह साल मां?”
तिब्बत का हर कवि अपनी कविता में निर्वासन की पीड़ा जरूर व्यक्त करता है। उनकी कविता में मार्मिकता बहुत है और एक दुख लगातार व्यक्त होता रहता है। एक बेचैन आत्मा भटकती रहती है उनकी कविताओं में।
एक और कविता में कवि कहता है-
“यही निर्वासन में
मेरी झुर्रियां और गहरा रही हैं
पेड़ों पर पतझड़ उतरा है
तुम उसी शहर में अपनी कलम को और धार दोगी
जहां तुम्हारा हर शब्द नापा जाता है हर सांस पर नजर रखी जाती है
हर कदम का पीछा किया जाता है फिर भी तुम्हारी कलम उन्हीं गाथाओं के साथ नृत्य करती रहती है
जो मुझ तक किसी और भाषा में पहुंचती है।”
इन कवियों में निर्वासन के अलावा प्रेम की भी तड़प है। इनके एक गीत की पंक्तियाँ देखिए-
“तुम्हारी गर्माहट आने के लिए मैं गिफ्ट्स उड़ान भरता हूं और मेरे गोराया के पंख मुझे मेरे कमरे के निर्जन कोने तक ही ले जा पाते हैं।”
कवि तिब्बती स्त्रियों की वेदना को भी व्यक्त करता है जो दुनिया के विभिन्न शहरों में अपनी आजीविका के लिए गर्म कपड़े स्वेटर आदि बेचती रहती है। कवि की दृष्टि उसकी तकलीफों की तरफ जाती है। ‘अब वह बोस्टन में है’ ऐसी ही एक कविता है।
सेरिंग की कविता ‘पानी का गीत’ बहुत ही अलग शिल्प की गद्य कविता है। इस संग्रह में उनकी पांच कविताएं है और मां पर एक मार्मिक संस्मरण। इन कवियों ने अपनी कविताओं में मां को बहुत याद किया है क्योंकि शरणार्थी जीवन और निर्वासन का दुख इनकी मांओं ने अधिक झेला है। उन्होंने शिविरों में रास्ते में अपने बच्चों को जन्म दिया है और पाला है।
यह कवयित्री ‘पानी का गीत’ में लिखती है-
कहीं न कहीं ‘म’ की मां की एक फोटो जरूर होगी
उसे देखते ही मैं जान लूंगी
कि मुझे ‘म’ ने क्यों नहीं बताया था कि उसकी मां एक पुल से नीचे कूद गई थी
और अपने साथ एक चीनी सिपाही को ले गिरी थी
एक लामा ने बताया था-
मैं उस औरत का पुनर्जन्म हूँ
मेरे पास उस जैसी ही कम आंकी गई इच्छा शक्ति है
‘म’ की इच्छा शक्ति अधिक मुखर है इसलिए मुझे उस जैसी बनने के लिए कहा जाता है।”
तीसरा पाठ कविता में वह कहती हैं –
“लामा ने कहा- अब वह मर चुकी है
उसका नाम तुम जोर से मत पुकारो
वह तुम्हारी वह माँ जिसका अस्तित्व अब शेष नहीं है।”
उस कवयित्री की दर्दनाक कहानी उसके शब्दों में सुनिए- “सन 1959 में मेरी मां अपने पहले प्रसव के लिए पतिगृह छोड़कर अपनी मां के घर गई हुई थी। अत्यंत जटिल गर्भावस्था के कारण उन्हें बिस्तर पर लेटे रहना पड़ता था। मेरी मां की प्रसव पीड़ा आरंभ होने के साथ ही चीनियों ने नांगचेन में प्रवेश किया और उसने अपने जुड़वां बच्चों को पैदा होते ही खो दिया।”
इस कवयित्री की मां तिब्बत से तीन साल पैदल चलकर भारत आई थीं और उन्होंने इस दुख भरी यात्रा को अपनी बेटी से छिपाकर रखा था ताकि वह मां की तरह इस दुख को जीवन भर न झेले। इससे एक मां के त्याग के बारे में समझा जा सकता है। इसलिए इस कवयित्री की कविता में मां कई बार आयी है।
पुस्तक के अंत में तिब्बती कविता पर तीन आलेख भी हैं जिससे पता चलता है कि तिब्बती कविता का इतिहास बहुत पुराना है। इस किताब से ग्यारहवीं सदी के कवि मिलारेपा के बारे में पता चलता है जहां से तिब्बती साहित्य की परिपाटी शुरू होती है।
पुस्तक की सारी सामग्री अंग्रेजी से अनूदित है, इसलिए तिब्बती भाषा के मूल स्वाद को पकड़ना मुश्किल हो सकता है पर इस स्वाद की गंध जरूर पाठकों को मिलती है और तिब्बती कविता का एक रंग पहली बार मिलता है। अनुराधा इसके लिए बधाई की पात्र हैं।
किताब : ल्हासा का लहू
संकल्पना एवं अनुवाद : अनुराधा सिंह
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए दरियागंज, नई दिल्ली-110002, फोन 911123273167
बहुत ही अच्छी समीक्षा।तिब्बती साहित्य के बारे में बताती अनुराधा जी की यह पुस्तक महत्वपूर्ण और संग्रहणीय है।