भाषा मनुष्य को स्वतंत्र करती है- यह कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि जब भाषा नहीं थी, तब मनुष्य स्वतंत्र नहीं था। स्वतंत्रता कोई स्थिर या रूढ़ अवधारणा नहीं है, न ही उसकी कोई सीमारेखा है। स्वतंत्रता आत्म-संकोच में भी हो सकती है और आत्म-विस्तार में भी। ये दोनों स्वतंत्रता के अलग-अलग इस्तेमाल हैं। भाषा का आविष्कार नहीं हुआ था, तब भी मनुष्य स्वतंत्र था, इसीलिए उसने अपनी सामान्य जैविक अभिव्यक्तियों को, जिसकी सुविधा प्रायः सभी प्राणियों को नैसर्गिक रूप से मिली हुई है, एक समृद्ध और सांस्कृतिक रूप देने के लिए भाषा का ताना-बाना बुना। दूसरे शब्दों में, भाषा मनुष्य की स्वतंत्रता का एक और इजहार है। आप किसी व्यक्ति या समूह की भाषा छीन लीजिए, उसकी स्वतंत्रता अपने आप कुंठित हो जाएगी। इसका प्रमाण यह है कि भाषा के बाहर रखे गए समूहों में स्त्रियों और भारत जैसी सामाजिक स्थितियों में दलितों की संख्या काफी बड़ी रही है। जब हम किसी से बात नहीं करना चाहते या किसी की बात नहीं सुनना चाहते, तो रिसीवर रख देते हैं या उसे ‘शटअप’ का आदेश देते हैं। ऐसा करते ही वह हमारी दुनिया से बाहर हो जाता है।
स्वतंत्रता के स्तर पर देखने से ही हम इस तथ्य का महत्त्व समझ सकते हैं कि अभी तक के मानव इतिहास में एलीट वर्ग की भाषा सामान्य जन की भाषा से क्यों अलग रही है। यह दो समांतर संस्कृतियाँ बनाए रखने का षड्यंत्र था। एलीट वर्ग नहीं चाहता था कि भाषा की उसकी दुनिया में सामान्य लोगों का प्रवेश हो। भाषा की समानता दूसरी प्रकार की समानताओं को भी आमंत्रित और प्रोत्साहित करती है। इसे रोकने के लिए भाषा की ऐसी मजबूत दीवार खड़ी कर दी गयी, जो औद्योगिक क्रांति और आर्थिक विकास के बाद पश्चिमी दुनिया में तीव्र गति से टूट रही है। स्पष्टतः इसका मुख्य कारण यह है कि स्वतंत्रता ने दुनिया के इस हिस्से में जन जीवन के एक बड़े भाग में प्रवेश किया है।
दुनिया के जिन हिस्सों में स्वतंत्रता (और समानता) का यह वातावरण संभव नहीं हुआ है, वहाँ अभी भी भाषा के कई स्तर मौजूद हैं। यह भारत में सामाजिक भेदभाव और शोषण की इंतहा थी कि यहाँ आधी से ज्यादा आबादी को पढ़ने-लिखने के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया। यह उन्हें भाषा की नागरिकता से बेदखल करने का प्रयोग था, जो शताब्दियों तक सफल रहा। इसका अर्थ यह नहीं है कि जिन्हें भाषा की दुनिया के बाहर रखा जाता है, वे मूक हो जाते हैं। स्वतंत्रता पानी के प्रवाह की तरह होती है। जब उसे एक जगह रोक दिया जाता है, तब वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए नये चैनल बना लेती है। लोक गीत और लोक साहित्य ऐसा ही चैनल था। आज के शहरीकृत वातावरण में लोक साहित्य के सृजन की गति बहुत धीमी है, क्योंकि ज्यादातर लोग एक ही बड़ी– यानी व्यापक– संस्कृति का अंग होते हैं। संस्कृतियों में अलगाव के साथ-साथ अंतर्मिश्रण और विलयन की गजब की शक्ति होती है।
यह दिलचस्प है कि जब भारत राजनैतिक रूप से स्वतंत्र नहीं था, तब भारतीय भाषाएँ तेजी से उभर रही थीं और साहित्य और विचार की दृष्टि से विकसित हो रही थीं। खड़ी बोली हिंदी साहित्य का अधिकांश विकास पराधीनता की इस अवधि में ही हुआ- 1857 से 1947 तक। यही अवधि अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास की भी है।
जहाँ तक खड़ी बोली के विकास का प्रश्न है, उसके विकास में ह्रास की अनेक कहानियां छिपी हुई हैं। साहित्य की भाषा के रूप में एक ओर खड़ी बोली अपने पैरों पर ठीक से खड़ी हो रही थी और दूसरी ओर अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली, राजस्थानी आदि गतयौवन हो रही थीं। जिन्होंने इस उगते सूरज को प्रणाम नहीं किया, साहित्य में उनकी स्थिति क्रमशः ओबीसी जैसी होने लगी। आज भी अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी आदि में प्रभूत रचनाएँ होती हैं, पर उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य की सबाल्टर्न धारा ही माना जाता है। दुनिया के इतिहास में यह एक विरल घटना है कि एक युवा भाषा ने इतनी समृद्ध और सम्मानित भाषाओं को उनके अपने ही क्षेत्र में इतने अल्प समय में पछाड़ दिया। इस परिघटना पर अभी तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है और खड़ी बोली की बहस को मुख्य रूप से हिंदी-उर्दू की बहस बनाकर इस अपेक्षाकृत नयी भाषा की ऐतिहासिक भूमिका की सरासर उपेक्षा की गयी है।
अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, मैथिली आदि की कीमत पर खड़ी बोली के अभूतपूर्व विकास ने हिंदी भाषी जनता की स्वतंत्रता को कुंठित किया या उसका विस्तार किया? कुछ हद तक दोनों बातें साथ-साथ हुईं। स्वतंत्रता की एक सिफत यह है कि जब उसका इस्तेमाल नहीं किया जाता, वह संज्ञाहीन होने लगती है। अवधी, ब्रजभाषा आदि ने बदलते हुए समय की जिम्मेदारियों का निर्वाह करने से इनकार कर दिया।
इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण खड़ी बोली हिंदी के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं, जिन्होंने अपनी ज्यादातर कविताएँ जिनमें परंपरा का सिर्फ पुट नहीं, उसका पूरा दखल था, ब्रजभाषा में लिखीं लेकिन गद्य खड़ी बोली में लिखा। यदि खड़ी बोली का मोह छोड़ कर तत्कालीन समृद्ध भाषाओं को नयी जरूरतों के हिसाब से विकसित किया जाता, तो आज विशाल हिंदी क्षेत्र का पुनर्गठन भी भाषाओं के आधार पर ही होता, जैसा अन्य भाषाओं- बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगु आदि- के साथ हुआ। तब प्रत्येक हिंदी भाषी राज्य एक ज्यादा सुसंगत और भावनात्मक रूप से ऐक्यबद्ध इकाई होता। खड़ी बोली के राजनैतिक, सामाजिक और साहित्यिक वर्चस्व ने एक बहुत बड़ी आबादी को भाषा की दुनिया में दूसरी या तीसरी श्रेणी का नागरिक बना दिया। इस हद तक उनकी स्वतंत्रता भी कम हो गयी।
लेकिन यह खड़ी बोली की जीत कम थी, इन भाषाओं की हार ज्यादा। क्या इसका प्रमुख कारण यह नहीं था कि अपनी अवनति स्वीकार करनेवाले लोग वे ही थे जिनके लिए उस समय की उदीयमान राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था में कोई जगह नहीं थी या जिन्होंने इस व्यवस्था में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष नहीं किया? भौतिक स्वतंत्रता का संकोच अपने को कई तरह से व्यक्त करता है, जिनमें भाषा भी एक है। जिन्हें अभी तक भाषा से वंचित रखा गया है क्या वे वही लोग नहीं थे जिनकी कोई भौतिक नागरिकता थी ही नहीं, या थी तो बहुत कमजोर थी?
उस दौर में क्या अंग्रेजी ने भी भारतीय लोगों को कुछ या काफी हद तक स्वतंत्र किया? बेशक किया। अंग्रेजी भारत की राजनैतिक और प्रशासनिक गुलामी की भाषा थी। जिन्होंने इस गुलामी को स्वीकार कर उससे लाभान्वित होने के लिए अंग्रेजी सीखी और बरतानवी सरकार की नौकरियों में प्रवेश किया, उनकी अपनी स्वतंत्रता का दायरा बढ़ गया। निःसंदेह यह सांस्कृतिक स्वतंत्रता की कीमत पर अर्जित भौतिक स्वतंत्रता थी। दरअसल, स्वतंत्रता कोई ठोस, अविभाज्य चीज नहीं होती। कई बार गुलामी और स्वतंत्रता दोनों का समांतर विकास होता है। इस विडंबना को रघुवीर सहाय ने इस उक्ति के जरिए सुंदर ढंग से व्यक्त किया था– उम्दा जीवन, दास विचार। यानी, यह सिर्फ आज का यथार्थ नहीं है, इसकी परंपरा लंबी है।
अंग्रेजी ने भारतीयों को एक दूसरे स्तर पर भी स्वतंत्र किया, जिसके उज्ज्वल उदाहरण गांधी, आंबेडकर, जिन्ना, नेहरू, जयप्रकाश, कृपालानी, लोहिया आदि हैं। इन्होंने भौतिक आधुनिकता के स्थान पर (और कुछ मामलों में उसका त्याग कर) विचारों की आधुनिकता को अंगीकार किया जिसका एक प्रमुख माध्यम अंग्रेजी ही थी।
इस अर्थ में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व ज्यादातर उस वर्ग के हाथ में रहा, जिसने अंग्रेजी के माध्यम से आधुनिक जीवन के स्वतंत्रतावादी मूल्यों के साथ लगाव विकसित किया। वे गुलामी के माध्यम से थोड़ी सी स्वतंत्रता नहीं, बल्कि आजादी के माध्यम से पूरी स्वतंत्रता चाहते थे। स्वतंत्रता की एक सिफत यह भी है कि जब आप खुद स्वतंत्र हो जाते हैं, तो उस स्वतंत्रता में दूसरे लोगों का साझा पसंद नहीं करते। अर्थात स्वतंत्रता के साथ जब निहित स्वार्थ जुड़ जाता है तो एक की स्वतंत्रता दूसरे की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करने लगती है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सभी राष्ट्रवादी और प्रगतिशील अंग्रेजीदां लोगों का कहना था कि भारत की राष्ट्रभाषा बनने की योग्यता हिंदी में ही है। लेकिन स्वतंत्र भारत में जो भाषा सबसे ज्यादा बढ़ी-फैली और लाभान्वित हुई है वह अंग्रेजी है। आज नवनीता देवसेन जैसी लेखक को यह कहना पड़ रहा है कि क्षेत्रीय भाषाएँ मर रही हैं। इस अर्थ में हिंदी भी एक क्षेत्रीय भाषा ही है।
क्या खड़ी बोली ने हिंदी क्षेत्र की अन्य भाषाओं के साथ जो सलूक किया था, आज अंग्रेजी उसके साथ वही सलूक कर रही है? इस तुलना में कई दोष हैं। खड़ी बोली ने हिंदी क्षेत्र में ही नहीं, पूरे भारत में राजनैतिक एकता स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उसने छोटी-छोटी पहचानों को धूमिल कर हिंदी क्षेत्र को एक व्यापक पहचान दी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा ही नहीं दी, बल्कि उसकी वाहक भी बनी। इसके विपरीत अंग्रेजी आज निहित स्वार्थों के राष्ट्रीय गठजोड़ को मजबूत बना रही है।
सामान्य भारतीय लोगों को उनकी भाषा वापस मिले, यह प्रकिया शुरू हुई ही थी कि उस पर अंग्रेजी का पहाड़ टूट पड़ा। भारत में अंग्रेजी आज भी स्वतंत्र करती है– लेकिन मुट्ठी भर लोगों को। ज्यादातर लोगों की स्वतंत्रता को तो वह छीन ही रही है। फिर भी अंग्रेजी का जादू सभी के सिर पर चढ़ कर बोल रहा है तो इसीलिए कि गुलामों का एक बड़ा हिस्सा- लगभग हमेशा- मालिक की नकल कर अपनी स्वतंत्रता का विस्तार करना चाहता है। क्या वह दिन कभी आ सकता है, जब संपूर्ण भारत भाषा के मामले में इंग्लिस्तान हो जाए?
किसी भी क्षेत्र में स्वतंत्रता की चरितार्थता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज उसके इस्तेमाल के साथ कैसा सलूक करता है। कोई दलित व्यापार या नौकरी के जरिए आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाए और गाँव में उसका सामाजिक बहिष्कार जारी रहे, तो वह अपनी इस नवार्जित स्वतंत्रता का कितना उपभोग कर सकता है? किसी एकांत टापू में व्यक्ति हर तरह से स्वतंत्र होता है, लेकिन उसकी गतिविधियों का दायरा कितना व्यापक हो सकता है? इससे संकेत मिलता है कि स्वतंत्रता सामाजिक होती है और सामाजिकता तब तक नहीं खिलती जब तक वह लोकतांत्रिक भी न हो। भाषा भी लोकतांत्रिक होकर ही अपने प्रयोजन सिद्ध करती है।
भारत की व्यवस्था कितनी लोकतांत्रिक है, यह जाँचने की एक कसौटी यह है कि नागरिकों की भाषिक अभिव्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है। वैसे तो आदर्शतः राज्य को इतना संवेदनशील होना चाहिए कि वह उनकी व्यथा को भी समझ सके जो बोल नहीं सकते या जिनकी मुखरता कम है। लेकिन यहाँ आलम यह है कि नागरिकों द्वारा जो कुछ स्पष्ट रूप से और चीख-चीख कर कहा जाता है, वह भी राज्य को सुनाई नहीं पड़ता। यह भी भाषा के अवमूल्यन का एक प्रकार है।
मैं कह रहा हूँ और आप नहीं सुन रहे हैं- खासकर जब मेरी बात सुनना और उस पर गौर करना आपका संवैधानिक कर्तव्य है, तो आप मेरा अपमान कर रहे हैं। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। इसके दायरे में सुने जाने की स्वतंत्रता भी आती है। इस दृष्टि से सभी भारतीय भाषाओं की लोकतांत्रिक हैसियत एकालाप की है। ग़ालिब ने इसकी शिकायत यों की थी : या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात/ दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबाँ और।