हिंदू होने का धर्म – प्रभाष जोशी

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प्रभाष जोशी (15 जुलाई 1936 - 5 नवंबर 2009)

(हिंदी के मूर्धन्य पत्रकारों में से एक, प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक-संपादक थे। जनसत्ता के संपादक के तौर पर पत्रकारिता में उनका जो बेमिसाल योगदान रहा उसे दुनिया जानती है। पर वे अपने बेबाक और निर्भीक लेखन के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने देश में सांप्रदायिक घृणा का सुनियोजित तीव्र उभार देखा तो वह खामोश नहीं रह सके। उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए इससे लोहा लिया। उनका लिखना बेअसर नहीं होता था। बढ़ती असहिष्णुता से सहमे लोगों को जहां हौसला मिलता था वहीं भाईचारे तथा राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करने में जुटी ताकतों को उनका लेखन चुनौती की तरह मालूम पड़ता था। प्रभाष जी की एक बड़ी खासियत यह भी थी कि वह जड़ों से कटे हुए बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि ठेठ देशज मेधा के धनी थे और सांप्रदायिकता से लड़ने का बल उन्हें अपनी परंपरा से ही मिलता था। आज के हालात में उन्हें फिर से पढ़ा जाना और भी जरूरी हो गया है। लिहाजा उनका लंबा लेख हिंदू होने का धर्म कुछ किस्तों में दिया जा रहा है। यह प्रभाष परंपरा न्यास द्वारा दिल्ली के अनुज्ञा बुक्स से हिंदू होने का मतलब नाम से प्रकाशित पुस्तिका से लिया गया है।)

हिंदू-विरोधी बताया जाना तो कोई इतना बड़ा लांछन नहीं है। पिछले छह महीनों में मुझे मुल्ला, मीर जाफर, जयचन्द आदि कहा गया है। कहा गया है कि मेरी नसों में किसी मुसलमान बाँदी का खून दौड़ रहा है। कई लोगों ने मेरी माँ और पिता के बारे में सवाल उठाये हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि मैं अपने को सेकुलर और बुद्धिजीवी साबित करने के लिए राममंदिर आंदोलन के खिलाफ विष-वमन कर रहा हूं। बाकी के लोगों का मानना है कि सत्ता के तलुवे चाट कर मैं पैसा और पद पाना चाहता हूं। इनमें से कुछ ज्यादा जानकार लोगों को मालूम हो गया है कि सऊदी अरब से हजारों पेट्रो डॉलर पाने और तीन और शादियां कर सकने की छूट के लिए मैं मुसलमान हो गया हूं।

जैसे यह सब काफी नहीं है इसलिए कलकत्ता के एक शुद्ध हिंदू ने मांग की है कि सलमान रश्दी की तरह मुझे मार दिये जाने का फरमान क्यों नहीं जारी कर दिया जाए। और मुम्बई के बजरंग दल ने तो बाकायदा अपने लेटरहेड पर बयान में कहा ही था कि मुझे कुत्ते की मौत मार दिया जाना चाहिए। वह बयान जनसत्ता के मुम्बई संस्करण के पहले पेज पर हमने छापा है। हिंदू समाज में जात से निकाल बाहर करने का तो चलन है लेकिन धर्म से किसी को निकालने का अधिकार किसी शंकराचार्य को भी नहीं, क्योंकि किसी हिंदू को कोई स्वामी, संत, महंत या शंकराचार्य दीक्षित नहीं करता। इसलिए ये सब चाहें भी तो मुझे धर्म से बाहर नहीं कर सकते।

भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र ने मुझे कटक में कहा कि इन सब चिट्ठियों, टेलिफोनों और मुंह सामने दी गयी चेतावनियों से चिंतित होने की जरूरत नहीं है, आप अच्छी कंपनी में हैं। उनके मुख्य न्यायाधीश रहते हुए ही सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमे का फैसला होने तक मंदिर–निर्माण पर रोक लगायी थी। तभी से उनके भी हिंदू होने पर प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है और ऐसी ही गालियों की चिट्ठियां उन्हें मिल रही हैं। मुझे विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि राम का मंदिर बनानेवाले हिंदू ऐसी हीन और कायर मानसिकता के लोग हो सकते हैं। लेकिन छह महीनों में मिली चिट्ठियों और इस दौरान हुई बातचीत से अब मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि यह हिंदू भावनाओं का विस्फोट है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद के मेरे वयोवृद्ध और आदरणीय मित्र कहते हैं कि नहीं, यह संघ परिवारियों का काम नहीं हो सकता। लेकिन ऐसा ही तो वे छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद के ढांचे को ढहाये जाने के बारे में कहते हैं। लेकिन उसे दुर्भाग्यपूर्ण और निन्दनीय कहने के बावजूद अपरिहार्य और हिंदू विजय दिवस भी मानते हैं। भाजपा नेता कहते हैं कि यह उनकी पार्टी के लोगों का काम नहीं है लेकिन इसे पूरी तरह से भुना कर दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के मंसूबे भी बांध रहे हैं। मुझे यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि संघ-परिवार के नेता कहीं-न-कहीं मानते हैं कि इन चिट्ठियों और चेतावनियों से मैं चुप और बदनाम किया जा सकूं तो हर्ज क्या है। जैसे हिंदू भावनाओं के विस्फोट से बाबरी मस्जिद का ढांचा ढह गया वैसे ही एक लेखक-संपादक ठण्डा हो जाए तो क्या खराबी है?

संघ-परिवार के नेताओं की मानसिकता के इन संकीर्ण और निर्मम तत्त्वों को मैं जानता हूं इसलिए उनसे न मुझे कोई शिकायत है, न उनके प्रति कोई कटुता।

मैं हिंदू हूं और आत्मा के अमरत्व में विश्वास करता हूं। पुनर्जन्म और कर्मफल में भी मेरा विश्वास है। मेरा धर्म ही मुझे शक्ति देता है कि अधर्म से निपट सकूं। प्रतिक्रिया और प्रतिशोध की कायर हिंसा के बल पर नहीं, अपनी आस्था, अपने विचार, अपनी अहिंसा और अपने धर्म की अक्षुण्ण शक्ति पर। मैं हिंदू हूं क्योंकि हिंदू जन्मा हूं। हिंदू जन्मने पर मेरा कोई अधिकार नहीं था। जैसे चाहने पर भी मेरे माता-पिता मेरे उनके पुत्र होने के सच को नकार कर अनहुआ नहीं कर सकते, उसी तरह से मैं भी इनकार नहीं कर सकता कि मैं हिंदू हूं। लेकिन मान लीजिए कि हिंदू धर्म में भी दीक्षित कर के लिये जाने या भर्त्सना कर के निकाले जाने की व्यवस्था होती तो या कोई स्वेच्छा से धर्म को छोड़ या अपना सकता होता तो भी मैं हिंदू धर्म से निकाले जाने का विरोध करता और मनसा, वाचा, कर्मणा और स्वतंत्र बुद्धि-विवेक से हिंदू बने रहने का स्वैच्छिक निर्णय लेता।

इसलिए कि हिंदू होना अपने और अपने भगवान के बीच सीधा संबंध रखना है। मुझे किसी पोप, आर्कबिशप या फादर के जरिये उस तक नहीं पहुंचना है। मुझे किसी मुल्ला या मौलवी का फतवा नहीं लेना है। मैं किसी महन्त या शंकराचार्य के अधीन नहीं हूं। मेरा धर्म मुझे पूरी स्वतंत्रता देता है कि मैं अपना आराध्य, अपनी पूजा या साधना-पद्धति और अपनी जीवन-शैली अपनी आस्था के अनुसार चुन और तय कर सकूं, जरूरी नहीं है कि चोटी रखूं, जनेऊ पहनूं, धोती-कुर्ता या अंगवस्त्र धारण करूं, रोज संध्या-वंदन करूं। यह धार्मिक स्वतंत्रता ही मुझे पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक होने का जन्मजात संस्कार देती है।

इसका दर्शन मुझे हर परिस्थिति का खुलकर सामना करने और अपना समाधान खुद निकालने की स्वतंत्रता और क्षमता देता है। दूसरे धर्म जो बंधन लगाते हैं वैसा कोई बंधन मेरा धर्म नहीं लगाता इसलिए हिंदू होकर जितना स्वतंत्र मैं रह सकता हूं उतना किसी भी धर्म में नहीं रह पाता। मेरा धर्म मुझे काल और परिस्थिति के दबावों से भी मुक्त करता है क्योंकि काल को वह सदा घूमता चक्र और अनादि अनंत मानता है क्योंकि वह आत्मा को अच्छेद्य, अक्लेद्य और अशोष्य मानता है क्योंकि आत्मा को वह नित्य, सर्वव्यापक, अविकारी, स्थिर और सनातन मानता है। यह धर्म मुझे जन्म और मृत्यु के परे ले जाता है। 

दूसरा कोई दर्शन नहीं है जो मुझे ऐसी मुक्ति दे सके। मेरे लिए जरूरी नहीं कि वेदों में ही विश्वास करूं। अगर यह धर्म अनेकतावादी नहीं होता तो इसमें एक ही वेद होता, चार नहीं। मेरे लिए जरूरी नहीं कि मैं उपनिषद को ही अपना ग्रंथ मान लूं। उपनिषद भी एक नहीं, एक सौ आठ हैं। महापुराण भी अठारह हैं। गीता को भी बाइबिल, कुरान या गुरुग्रंथ साहिब की तरह अपने धर्म की पहली और अंतिम पुस्तक मानना अनिवार्य नहीं है। गीता महाभारत में है और उसके कई श्लोक उपनिषदों में हैं। कई पुराण हैं। धर्मशास्त्र हैं। लेकिन इन सब को ताक पर रख कर सगुण या निर्गुण भक्ति की भी लंबी और अनंत जीवनदायी परंपरा है।

भक्तों ने गुरु का होना अनिवार्य माना। लेकिन गुरु को सब कुछ माननेवाले कबीर ने भी कह दिया कि गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला। यानी अंतिम गणित और घड़ी में गुरु भी आपको बचा नहीं सकता। उसकी करनी वह भुगतेगा और तेरी करनी तू। इसलिए अंतिम सत्य तेरी करनी है और उसका फल तुझे भुगतना है। अपनी करनी के फल से कोई निस्तार नहीं है। इस जन्म में नहीं तो अगले में भुगतना होगा।

करनी के फल से मेरे धर्म ने भगवान के किसी अवतार को भी नहीं छोड़ा। ईश्वर तो कर्म-अकर्म से परे है इसलिए कर्मफल से परे है। लेकिन ईश्वर के हर अवतार को अपने किये का फल भुगतना पड़ा। ब्रह्मा ने यह सृष्टि ही रची है। लेकिन वे अपनी पुत्री सरस्वती पर आसक्त हो गये थे इसलिए पुष्कर को छोड़कर कहीं उनका मंदिर नहीं और वे पूजे नहीं जाते। उन्हें अपनी बेटी का ही शाप है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने हर मर्यादा का पालन किया और सभी धर्मसम्मत कार्य किये। लेकिन उनने भी बालि-सुग्रीव के युद्ध में जो छल किया और सीता को वनवास देने का अन्याय किया, उसका फल उन्हें अपने ही बालक पुत्रों से पराजित होकर भुगतना पड़ा और सीता ने तो धरती में समा जाना पसन्द किया लेकिन उस पति के साथ वापस नहीं गयीं जिसने उन्हें अकारण निकाला था।

कृष्ण पूर्णावतार माने जाते हैं लेकिन गांधारी के शाप से उनके बावजूद और उनकी आंखों के सामने उनका यदुवंश नष्ट हुआ। धनुर्धारी अर्जुन कृष्ण की एक हजार आठ रानियों को डाकुओं और गुण्डों से नहीं बचा सके और एक मामूली बहेलिये ने उन्हें तीर मार कर परमधाम पहुंचा दिया। शिवजी को अपने ही ससुर से अपमानित होने और चण्डी हुई सती को छाती पर सहना पड़ा। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही जब अपनी करनी के फल से बच नहीं सके तो बाकी के तैंतीस करोड़ देवताओं को तो लगभग वही सब भुगतना पड़ा है जो मामूली मनुष्य भुगतते हैं। ऐसा ब्रह्माण्डीय न्याय किसी भी धर्म में नहीं है और उससे ईश्वर के अवतार भी बच नहीं सकते। कानून के राज की आधुनिक अवधारणा इस न्याय के सामने छोटी है क्योंकि यहां तो भगवान भी मनुष्य की तरह बराबर हैं।

(जारी)

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