— विजय प्रताप —
(दूसरी किस्त)
अखबारों में कभी-कभी संपूर्ण क्रांति मंच की खबरें छपती थीं। एक दिन कुलश्रेष्ठ के कस्बे में मंच के युवा नेता रिपुदमन को आना था। रिपुदमन ने लोकतंत्र के महत्त्व पर भाषण दिया। उसने राजनीति में लोक भागीदारी को लोकतंत्र का प्राण बताया। उसने कहा कि किस प्रकार आजादी के संघर्ष में कांग्रेस एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जमात थी, राजनीतिक आजादी उसके बहुत से प्रमुख लक्ष्यों में एक प्रमुख लक्ष्य था। आज राजनीति पर पूरी तरह धन-शक्ति काबिज हो गई है।
दल अब लोग आकांक्षाओं का आईना न होकर सत्ता संघर्ष के गिरोहों से ज्यादा मेल खाने लगे हैं। हमें लोक भागीदारी के लिए कोई राजनीतिक औजार गढ़ना होगा; चुनावों में भ्रष्टाचार, बूथ कैप्चर तथा जातिवादी और सांप्रदायिक विद्वेष फैलानेवालों के खिलाफ संगठित होना होगा, नहीं तो लोकतंत्र नहीं बचेगा।
रिपुदमन की बातों से कुलश्रेष्ठ के दिमाग में बिजली सी कौंध गयी। ऐसे कई सवाल जिन पर उसने आज तक सोचा न था, उसे परेशान करने लगे। यदि दल नहीं रहेंगे, वोट देने की प्रणाली नहीं होगी, तो देश में आम आदमी की आवाज तो दब जाएगी। हम लोगों का क्या होगा? उसे सोनपुर मेले में राजस्थान के प्रतिनिधि राजेंद्र द्वारा सुनाया किस्सा याद आया।
राजेंद्र ने बताया था कि 1977 में जनता पार्टी के राज में कुछ इलाकों में गांव के जमींदार समझ बैठे थे कि हमारी जागीरदारी लौट आयी है और इक्का-दुक्का गांवों
में तो हरिजनों के लिए अलग प्याऊ बनाने की कोशिश की गयी थी। 1980 में वहां जनता पार्टी को हरिजनों ने वोट नहीं दिया। हालांकि उन्हें जनता पार्टी के अंत्योदय कार्यक्रम से बहुत लाभ हुआ था। किंतु इज्जत नहीं तो आर्थिक लाभ किस काम का!
“यदि दल और वोट की प्रणाली खत्म हो गयी तो क्या होगा?” यह सवाल कुलश्रेष्ठ को परेशान किए था। वह दो रात सो नहीं सका। तीसरे दिन उसने संकल्प किया कि वह आजादी के संघर्ष के दिनों जैसी कांग्रेस बनाने के लिए किसी विपक्षी दल का सदस्य बनेगा और उस दल का चेहरा बदलने में अपनी पूरी ताकत लगा देगा।
‘दल’ में शामिल होने का मन बनाने में कुलश्रेष्ठ ने बहुत लंबा-चौड़ा नक्शा नहीं बनाया है। कुछ मोटी बातें हैं, जैसे दलित इज्जत से इंसानी जिंदगी जी पाए इसके लिए जरूरी है कि समाज में जातिवादी मानस कमजोर हो। कौन कद्दावर नेता और दल इस मामूली सी अपेक्षा को आज पूरा कर रहा है? जातिवादी मानस के खिलाफ संघर्ष की बात जाने दें, कौन बड़ा नेता है जो जातिवाद के प्रत्यक्ष या परोक्ष इस्तेमाल से अपने को बचा पा रहा है। हर भारतीय चाहे तो अंदाजा लगा सकता है कि पिछले दिनों अ ज ग र सम्मेलनों की जो होड़ लगी थी उससे युवा कुलश्रेष्ठ के दलित मन पर क्या बीती होगी। किंतु कुलश्रेष्ठ लोकतंत्र को पुष्ट करने के सक्रिय कर्म में आज दल को ही महत्त्वपूर्ण माध्यम मानने लगा है इसलिए उसकी उपयुक्त दल की तलाश जारी है।
उसकी पृष्ठभूमि दलित की जरूर है लेकिन उसके मन में जातिवादी भेदभाव के कारण शेष समाज के प्रति कोई कटुता, चिढ़ या हिकारत नहीं है। मानवता पर लगे जातिवादी अस्पृश्यतावादी कलंक की जड़ें कहां से आयीं, कौन इसके लिए जिम्मेवार है, इसपर शायद उसने बहुत सोचा नहीं है। फिर वह इसे सामाजिक कलंक मानता है, कई निजी कड़वे अनुभव भी हैं उसके। रोज अखबार में हरिजनों के जलाए जाने, ठीक वैसे ही जैसे औरतों के जलाए जाने पर, शेष समाज की तफरीह वाली गप के दौरान गलती से अभिव्यक्त हो जानेवाली चिंता से भी वह वाकिफ है। ऐसी स्थिति और खबरें उसको अब केवल उदास नहीं करतीं बल्कि नए समाज के उसके चित्र में जाति विरोधी रंग को गहरा करती हैं, उसके संकल्प को मजबूत करती हैं। किसी भी प्रकार के जातिवाद से न जुड़ने के उसके इरादे को पक्का करती हैं ऐसी खबरें।
इतनी पृष्ठभूमि बताने के बाद तो आप यह प्रश्न नहीं करेंगे कि आजकल तो बहुजन समाज पार्टी का बहुत हल्ला है, यदि कुलश्रेष्ठ दलित है तो क्यों नहीं…। कुलश्रेष्ठ है नाराज हो जाएगा आपके सवाल से। क्या दलित नौजवान इस हार से ही राजनीति शुरू करें कि जातिवाद को मिटाने के लिए उलटे किस्म का जातिवाद जरूरी है? उसका नेता सिद्धांत, कार्यक्रम के मुताबिक दलों को अपना दोस्त या विरोधी मानने, करने के बजाय सौदेबाजी करनेवाली शैली में अपने सभी विकल्प खुले रखे। नहीं, कुलश्रेष्ठ को यह कबूल नहीं।
पूरे समाज को अपना मान उसका नेता बनने का सपना लिये कुलश्रेष्ठ छोटे-बड़े अनेक दलित संगठनों के बारे में व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन के संदर्भ में तो सोचता है लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति को पुष्ट करने के औजार के बतौर नहीं। क्योंकि इनमें से अधिकांश समूह किसी एक व्यक्ति या छोटी मित्र मंडली की मेहनत, लगन आदि के भरोसे जिंदा हैं,न कि आम दलितों की भागीदारी के भरोसे। कई बार तो लगता है कि इनके पीछे कोई सपना और संकल्प नहीं है, यह तो केवल संभ्रांत दलितों के अच्छी बात करनेवाले क्लब जैसे हैं।
कुछ मित्रों ने कुलश्रेष्ठ को राय दी कि सामाजिक विकास की गति पर असर डालने की दृष्टि से सांस्कृतिक सवाल भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। मीनाक्षीपुरम की धर्म परिवर्तन की घटनाओं के बाद विश्व हिंदू परिषद एवं अनेक हिंदू संस्थाओं ने बहुत पैसा इकट्ठा किया था दलितों के बीच काम करने के लिए, और तुम अभी भी हिंदू मानते हो अपने आपको, क्यों नहीं हिंदुओं में से जातिवादी मिटाने के लिए इन संगठनों में कुछ काम करते। आरएसएस परिवार के किसी संगठन में शामिल हो जाओ, उससे सांस्कृतिक मोर्चे पर काम भी चलता रहेगा और भारतीय जनता पार्टी में भी भागीदारी कर सकोगे।
मायूस कुलश्रेष्ठ अभी दुविधा में ही था। दुविधा का कारण उसकी बचपन की कुछ यादें थीं। दादा बताया करते थे कि किस प्रकार उसका एक चाचा जो रामभक्त हो गया था और गांव के राम मंदिर में पूजा का हठ करने लगा था, आज तक लापता है। कस्बे के ऊंची जाति के लोगों ने चाचा को उसकी इस हिमाकत के लिए बहुत पीटा था। उसके दादा कस्बे में संतनुमा जीवन बितानेवाले एक बहुत ही सज्जन श्री रामप्रकाश के पास शिकायत लेकर गये। दादा की बात से अब समझ आता है कि यह आदमी संघ का प्रचारक था और हिंदू संगठन, हिंदू एकता की बात करता था। लेकिन श्री रामप्रकाश जी ने इस मामले में धैर्य से काम लेने की सलाह दी थी।
बाद में दादा को पता चला कि पिटाई करवाने में कस्बे के जिस प्रतिष्ठित सेठ का हाथ था वह तो संघ आयोजित समारोहों की अध्यक्षता किया करता था। लेकिन कुलश्रेष्ठ इस किस्से को बहुत तूल नहीं देना चाहता था क्योंकि मित्रों ने बताया था कि संघ अब बहुत बदल गया है। कुलश्रेष्ठ को संघ की भीतरी संरचना और एकचालकानुवर्तित्व के गैर- लोकतांत्रिक संगठन-सिद्धांत का पता न था, न ही उसने संगठन के भीतरी लोकतंत्र के सवाल पर बहुत मनन किया था। वह अपने मन को संघ-भाजपा के माध्यम से दलितों तथा शेष समाज के बीच काम करने को तैयार करने की कोशिश कर ही रहा था कि राम जन्मभूमि का ताला खोलने की इजाजत कोर्ट ने दे दी। उसके बाद से तो कुलश्रेष्ठ एकदम हतप्रभ है संघ की रामभक्ति का तेवर देखकर, उनकी देशभक्ति का तेवर देखकर!
देश के बहुसंख्यक समुदाय के नेता होने का दावा करनेवाले लोग अपने ही देश की अदालत को नकार रहे हैं, उसकी न्याय प्रक्रिया में उन्हें भरोसा नहीं। जिस गांव से रामशिला लेकर आ रहे हैं उस गांव के हिंदुओं के बीच फैले अहंकार, मिथ्याचार, भ्रष्टाचार और सबसे बढ़कर इंसान की गरिमा में अनास्था की संघ को चिंता नहीं। केवल अपने संभावित फायदे के लिए अपने ही भाइयों के खिलाफ घृणा के संस्कार गहरे बैठाना और सांप्रदायिक हिंसा को भड़कानेवाली कार्रवाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना। क्या इस आग-मिट्टी से गढ़े गये देश में लोकतंत्र चल पाएगा?
कुलश्रेष्ठ का दिमाग साफ है, जो लोकतंत्र का दुश्मन है वह देश का, गरीब का, दलित का, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सभी का दुश्मन है। कुलश्रेष्ठ समझ नहीं पा रहा कि राष्ट्रभक्त होने का दावा करनेवाली जमात इतना तोड़क काम कैसे कर सकती है! यह इंदिरा गांधी द्वारा खालिस्तानी जगजीत सिंह चौहान को भारत आने की इजाजत देने या भिंडरांवाला जैसे लोगों को शह देने या श्री राजीव गांधी द्वारा वह बोफोर्स दलालों को बचाने की कार्रवाई से कैसे फर्क है, या राष्ट्र को कम नुकसान पहुंचाने वाला है, उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था।
खैर, संघ से मोहभंग की वजह से भाजपा का विकल्प भी उसके सामने ना था। अब कुलश्रेष्ठ क्या करे। उसने फैसला किया कि अब वह ऐसे दल की तलाश छोड़ देगा जो उसके मन मुताबिक हो। एक दल जो इंदिरा कांग्रेस की नीतियों का प्रभावी विरोध करते हुए स्पष्ट विकल्प देता हुआ नजर आए वैसे दल आज नहीं हैं यह बात कुलश्रेष्ठ की समझ में आ गयी। कुलश्रेष्ठ को एक मित्र ने राय दी कि उसे जनता दल में शामिल होना चाहिए। जनता दल के अध्यक्ष अकसर व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति की बात करते रहते हैं। इस दल में बिहार आंदोलन की आग में तपे कई युवा हैं, पुराने समाजवादी हैं, दलित नेता अरुण कांबले हाल ही में इसमें शामिल हुए हैं आदि-आदि।
कुलश्रेष्ठ ने जनता दल में शामिल होने के सुझाव पर सोचना शुरू किया। उसके दिमाग में अनेक शक उठते थे- पार्टी के भीतर लोकहित के सवालों को उठाने की कितनी छूट होगी, धनकुबेरों की पार्टी तंत्र पर कितनी पकड़ होगी, दल निर्माण में रुचि रखनेवालों के मन में कांग्रेसी संस्कृति से भिन्न कुछ है क्या? मेरे परिवार और निकट मित्रों, रिश्तेदारों में तो कोई इतना पैसेवाला भी नहीं है कि पार्टी के क्रियाकलापों के लिए मुझे चंदा दे सके। कांग्रेस में तो ब्लॉक यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष बिना शोर के छींक दे तो आप उसके स्तुतिगान के पोस्टर अगले दिन ही दीवारों पर देखेंगे मयफोटो के। जनता दल भी ऐसा ही तो नहीं होगा कहीं!
इन सवालों पर मंथन चल ही रहा था कि उसे अच्छा लगा यह जानकर कि वरिष्ठ सर्वोदयी विचारक और नेता आचार्य राममूर्ति को दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और संचालन समिति में लिया गया है फिर उन्हें केंद्रीय संसदीय बोर्ड में भी लिया गया। बाद में बिहार में रामसुंदर दास को अध्यक्ष तथा आचार्य जी को बिहार संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जाना भी कुलश्रेष्ठ के मन को छू रहा था। उसे दल के अध्यक्ष का वह बयान बखूबी याद था जिसमें उन्होंने सत्ता परिवर्तन और सरकार चलाने से ज्यादा दल निर्माण, दल चलाने के काम को महत्त्वपूर्ण बताया था।
लेकिन कुलश्रेष्ठ लोकतंत्र के लिए दल के माध्यम से काम करने का फैसला फिलहाल शायद ही कर पाए। आखिर क्यों? उसने जाना है कि इसी मनःस्थिति का दावा कर दल में शामिल होनेवाले बिहार आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले साथियों में पदों को लेकर काफी खींचतान है। कम से कम बाहर से देखने पर कार्यक्रम एवं मुद्दों पर कोई गुटबाजी या झगड़ा नजर नहीं आता, फिर भी हर आदमी एक अलग गुट जैसा ही दिखता है। और फिर 14 जुलाई 1989 को लखनऊ में उत्तर प्रदेश इकाई के देरी से बनने की सफाई देते हुए श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी कह दिया है कि “संगठन तो जनता को तैयार करने के लिए बनता है, यहां जनता तैयार है फिर संगठन की क्या जरूरत? फिर भी कांग्रेस को हटाने भर को संगठन बन गया है।”
कुलश्रेष्ठ इससे थोड़ा अलग सोचता है, उसकी मोटी समझ के मुताबिक समाज में लोकतांत्रिक नेतृत्व निर्माण और धारावाहिकता के लिए संगठन पहली शर्त है। आज लोकतंत्र के सामने उपयुक्त दल और नेतृत्व के अभाव का संकट इसलिए खड़ा है क्योंकि इंदिरा जी ने कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों को बार-बार अपने कौशल से तोड़ने में कामयाबी पायी थी। कुलश्रेष्ठ के लिए दूसरी उम्मीद दल के युवा लोग हो सकते थे, उनकी गुटबाजी का जिक्र तो हमने किया ही। तीसरी उम्मीद जद में आचार्य जी जैसे लोगों का होना उसे लगता था, पर यह उम्मीद भी आचार्य राममूर्ति का एक विस्तृत आलेख पढ़ने के बाद टूट गयी है क्योंकि उन्होंने कहा कि दल और उसके रोजमर्रा के संचालन की जिम्मेवारी से वह नहीं जुड़े हैं।
कुलश्रेष्ठ ने जद के एक कार्यकर्ता के माध्यम से श्री सुरेंद्र मोहन जी से बात की। उन्होंने लोगों के बीच काम कर रहे अनेक लोगों के प्रेरक किस्से सुनाकर, कुलश्रेष्ठ को उसके काम के बारे में कई उपयोगी एवं ठोस सुझाव दिए। लेकिन उन्होंने सीधे दल में काम करने का कोई रास्ता नहीं बताया। पहली मुलाकात में कुलश्रेष्ठ को सीधे यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि वह दल में काम करना चाहता है। कुलश्रेष्ठ जिन साथियों के साथ समय-समय पर विभिन्न सामाजिक कामों में हिस्सा लेता रहा है उनमें से उसने रशीद और श्रीपत से ही बात की। लेकिन दोनों के जवाब से वह निराश हुआ। रशीद बोला, भाई मैंने तो जितना अपने को मुसलमान माना है शायद उससे ज्यादा हिंदुस्तानी माना है और कोशिश रही है कि मेरा मुसलमान होना, मेरा हिंदुस्तानी होना मेरे और बाकी इंसानों के बीच दीवार ना बने। लेकिन जद के अध्यक्ष को तो धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट भी सैयद शाहबुद्दीन से चाहिए, जिस आदमी ने मुसलमानों को बाकी हिंदुस्तानी आवाम से अलग-थलग कर देने की ठान ली है।
श्रीपत का जवाब भी उदास करनेवाला था। वह बोला, भाई मैं पूर्णकालिक कार्यकर्ता हूं, दोस्तों की मदद से अपना सार्वजनिक काम और परिवार चलाता हूं। मैंने पाया है कि मेरे मित्रों को पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को मदद करके वैसा ही आनंद प्राप्त होता है जैसे किसी युवा दंपति को अपने मां-बाप की मदद करने में या मां-बाप को अपने बच्चों के पालन-पोषण में जैसा सुख मिलता है, और ‘दल’ में क्या होगा? बंधुआ मजदूर का तो शरीर ही बंधक होता है, ‘दल’ में तो सुना है कार्यकर्ता मित्राधार पर नहीं, नेताओं की मदद से राजनीति करते हैं और उन्हें शरीर नहीं, आत्मा गिरवी रखनी पड़ती है। इतने करीबी मित्रों ने भी कुलश्रेष्ठ के दल में शामिल होने के प्रस्ताव पर टका सा जवाब दे दिया।
आज कुलश्रेष्ठ की समझ में यह नहीं आ रहा कि वह राज और लोक के बीच के सबसे महत्त्वपूर्ण मध्यस्थ तंत्र (दल) में क्या और कैसा काम कर सकता है।
ध्यान रहे कुलश्रेष्ठ नया समाज बनाने की छटपटाहट लिये हुए एक दलित युवक है, और वह सामान्य जन और राज्यतंत्र के बीच दल रूपी सेतु को बनाने और पुष्ट करने के काम में आपकी मदद चाहता है। क्योंकि अब उसकी पक्की राय हो गई है कि लोक का संगठन और दलों के पीछे संगठित लोक ही लोकतंत्र की गारंटी है।