सरकार को अपनी हिंसा पर भी काबू रखना सीखना होगा – जयप्रकाश नारायण

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जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर 1902 - 8 अक्टूबर 1979)

दि सरकार चाहती है कि समाज में हिंसा न हो, तो कुछ बातें उसे खासतौर पर अपने ध्यान में रखनी पड़ेंगी। सबसे पहले तो उसे विविध प्रकार की हिंसा के बीच के भेद को पहचानने का अभ्यास करना होगा। एक है, बिलकुल व्यवस्थित और योजनापूर्वक की गयी हिंसा। उदाहरण के लिए, बिहार-आंदोलन के दिनों में पटना के सर्चलाइट समाचार पत्र के भवन पर किये गये हमले का अनुभव। दूसरे प्रकार की हिंसा वह है, जो गुंडों और अन्य असामाजिक तत्त्वों द्वारा की जाती है। और तीसरे प्रकार की हिंसा वह छोटी-छोटी हिंसा है, जिसमें लोग पत्थरबाजी करते हैं या छिटपुट ढंग से बसों आदि को जला डालते हैं। ऐसी हिंसा या तो गुस्से की वजह से की जाती है, या बदला लेने के इरादे से की जाती है, या केवल बिना सोचे-समझे झगड़ालू मिजाज के कारण भी की जाती है।

लेकिन लगता नहीं कि सरकारें सोच-समझ कर इन सब हिंसाओं के बीच ऐसा कोई विवेक कर पाती हों। इसका नतीजा यह निकलता है कि जो असल गुनहगार होते हैं वे तो पकड़ में आते ही नहीं, और दूसरों को, यहां तक कि बिलकुल निर्दोष लोगों को भी सजा भुगतनी पड़ती है।

दूसरी बात सरकार को यह समझनी है कि कुछ परिस्थितियों में हिंसा लोगों के दिलों में ही भड़क उठती है। आम लोगों की यातनाएं दिन-ब-दिन बढ़ती जाती हैं। उनके कारण लोगों की नाराजी हद दरजे तक पहुंच जाती है, और कभी-कभी उसकी वजह से भी विस्फोट हो जाता है।

सरकार को एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि श्री रामुलु के अनशन के कारण जब से अलग आंध्र राज्य की स्थापना हुई है, तब से लेकर आज तक यह परंपरा चली आ रही है कि जनता की शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक कार्रवाइयों की तरफ तो सरकार बिलकुल ही ध्यान नहीं देती, फिर भले ही वह कार्रवाई कितनी ही शांतिपूर्ण और शुद्ध क्यों न हो! याद नहीं पड़ता कि कहीं किसी एकाध मामले में भी सरकारों ने कभी सहयोग का रास्ता अपनाया हो।

ज्यादातर लोगों को उनकी अरजियों के जवाब ही नहीं दिये जाते। या फिर टालमटोल वाले या मुख्य प्रश्न को एक तरफ रखकर उड़ाऊ जवाब दे दिये जाते हैं! लेकिन जब सार्वजनिक संपत्ति को तोड़ा-फोड़ा या जलाया जाता है, या कोई तबाही बरपा की जाती है, तो सरकार फौरन ही ध्यान देती है और झटपट कोई-न-कोई कार्रवाई शुरू कर देती है। कई सम्माननीय नागरिकों ने भी मुझसे कहा है कि सरकार तो हिंसा के बिना कभी सुनती ही नहीं। मुझे शक है कि जब तक सरकार का यह तौर-तरीका सुधरता नहीं है, तब तक हिंसा को रोका जा सकेगा या नहीं।

इसी के साथ सरकार को खुद अपनी हिंसा पर भी काबू रखना सीखना होगा। इस विषय में अब तक की परंपरा यह रही है कि जैसे ही थोड़ी पत्थरबाजी हुई और किसी पुलिस अधिकारी को पत्थर की चोट लगी कि बंदूक से गोलियां छूटने लगती हैं। इसकी वजह से कई लोग घायल हो जाते हैं और आसपास खड़े हुओं में से भी कुछ लोग मर जाते हैं। ऐसा अकसर ही होता है। समाज ने, सरकार के हाथ में जो दंड-शक्ति सौंपी है, उसका ऐसा अविचारपूर्ण उपयोग बंद होना ही चाहिए।

इस संदर्भ में सीमा सुरक्षा दल के मुखिया श्री रुस्तमजी ने आंतरिक कानून और व्यवस्था की रक्षा के लिए कम विघातक साधनों का उपयोग करने की जो सिफारिश की है, सरकार को उस पर तुरंत ही ध्यान देना चाहिए। रुस्तमजी ने कहा कि रायफलें तो लड़ाई लड़ने के लिए हैं, उनका उपयोग देश की जनता पर नहीं किया जाना चाहिए। आंतरिक सुरक्षा के लिए नयी किस्म की ऐसी गोलियों की जरूरत है, जो इंसान की जान न लें, उसे सिर्फ घायल करें।

साथ ही, सरकारों को अपना घर भी व्यवस्थित करना चाहिए। घूसखोर, रिश्वतखोर और भ्रष्टाचारी मंत्रियों और अधिकारियों को हटा देना चाहिए, प्रशासनिक व्यवस्था में आवश्यक सुधार करने चाहिए। कालाबाजारियों, मुनाफाखोरों और संग्रहखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए, भूख से बिलबिलाने वाले गरीबों को राहत पहुंचाने के उपाय तुरंत किये जाने चाहिए। हर किसी की बात को शांतिपूर्वक और सहानुभूति-पूर्वक सुनकर उसे किसी-न-किसी रूप में संतुष्ट करने के प्रयत्न किये जाने चाहिए।

(मेरी विचार यात्रासे)

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