संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर आज भारत बंद

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27 सितंबर। संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर आज 27 सितंबर सोमवार को भारत बंद आयोजित किया गया है। तमाम तैयारियों और संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान को मिले चौतरफा समर्थन को देखते हुए पूरे भरोसे से यह कहा जा सकता है कि भारत बंद पूरी तरह सफल होगा। ऐतिहासिक होगा। यह अलग बात है कि जिस तरह अधिकांश मीडिया परदे के पीछे से नियंत्रित और डरा-सहमा हुआ है, ज्यादा संभावना यही है कि वह बंद की कामयाबी को न दिखाए बल्कि बंद के असर को काफी कम करके बताए।

दिल्ली के बार्डरों पर किसानों को डेरा डाले तीन सौ से अधिक दिन हो चुके हैं। यह आंदोलन पंजाब से शुरू हुआ था और पंजाब में इस आंदोलन को एक साल से अधिक समय हो रहा है। इतने दिनों से यह आंदोलन न सिर्फ अनवरत जारी रहा है बल्कि इसका समर्थन भी बढ़ता गया है। पहले के किसान आंदोलन अमूमन किसी इलाके तक सीमित रहे हैं, या किसी एक खास फसल की कीमत या किसी फौरी नुकसान की भरपाई को लेकर हुए हैं। यह पहला मौका है जब किसान आंदोलन का दायरा इतना बड़ा है, जब पूरे देश के किसान एकजुट हुए हैं, संयुक्त किसान मोर्चा के तहत देश भर के किसान संगठन एक हुए हैं। यह एकता और एकजुटता, सरकार की तमाम कुचालों के बावजूद, बनी रही है।

बेशक इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व मंडल की परिपक्वता और संजीदगी की तारीफ करनी होगी। लेकिन तमाम किसान संगठनों की एकता और एकजुटता की एक बड़ी वजह खुद सरकार ने दी है- तीन कृषि कानूनों के रूप में उसने कारपोरेट की तरफ से खेती-किसानी पर हमला बोला है और किसानों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित कर दिया है। इसे सरकार ने किसानों के लिए‌ भले सौगात की तरह पेश किया हो, लेकिन किसानों को यह समझते देर न लगी कि यह तो खेती-किसानी को कारपोरेट को भेंट चढ़ाने की योजना है।

इसलिए स्वाभाविक ही किसान इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर, तमाम कष्ट और परेशानियां झेलते हुए भी डटे हैं। दूसरी प्रमुख मांग है, सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून बनाने की मांग। विडंबना यह है कि यह मांग एक ऐसी सरकार से करनी पड़ रही है जिसने खुद इसका वादा किया था और यह वादा करके सत्ता में आए उसे सात साल हो चुके हैं।

भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में और नरेन्द्र मोदी ने एक-दो नहीं, सैकड़ों रैलियों में यह वादा किया था कि उन्हें सत्ता में आने का मौका मिला तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएंगी, यानी यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसानों को उनकी उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम मिले। लेकिन सत्ता में आते ही ‘प्रान जाय पर बचन न जाई’ वाली रघुकुल रीति पर चलने की बजाय, भाजपा अपने वचन से मुकर गयी और जो कहते हैं सो करते हैं वाले मोदी कहते कुछ और हैं करते कुछ और हैं की अपनी लीक पर चल पड़े। सत्ता में आने के लिए‌ जिस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात उन्होंने ग्रामीण भारत की अपनी हरेक रैली में की थी उसका वह भूलकर भी नाम नहीं लेते, और याद दिलाने वाले की खैर नहीं!

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने के बजाय मोदी ने कोई साढ़े पांच साल पहले किसानों की आय छह साल में दुगुनी करने का सपना दिखाया। मानो उपज का लाभकारी मूल्य मिले बगैर भी किसानों की आय बढ़ सकती है! अब उस सपने को पूरा करने में कुछ ही महीने बाकी रह गये हैं और फिर किसानों की आय अचानक दुगुनी हो जाएगी, क्योंकि मोदी है तो मुमकिन है!

किसान की वास्तविक स्थिति क्या है और मोदी राज में किसान की हालत सुधरी है या और बिगड़ गयी है, इसका खुलासा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों ने कर दिया है जो एक खुद सरकारी रिपोर्ट है। इन आंकड़ों को जानने और समझने के लिए समता मार्ग के वीडियो कॉलम में इस विषय पर योगेन्द्र यादव का वीडियो देखिए।

बहरहाल, किसान आंदोलन की बदौलत तीन कृषि कानूनों की वापसी और सभी किसानों के लिए सभी फसलों पर एमएसपी की मांग अब लोकप्रिय राष्ट्रीय मांग बन चुकी है और इसकी अनसुनी करनेवाली सरकार को गंभीर राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। खासकर पंजाब और हरियाणा में भाजपा को यह नुकसान हो चुका है, वहां अब भाजपा की छवि एक जन-विरोधी पार्टी की बन चुकी है। यूं तो किसान आंदोलन की आंच अब उसे सारे देश में लग रही है लेकिन उत्तर प्रदेश को भाजपा गंवा बैठी तो फिर मोदी जी के लिए तीन कृषि कानूनों का औचित्य पार्टी के भीतर समझाना भी मुश्किल हो जाएगा। अगर वह ये कानून वापस ले लें, तो जाहिर है यह किसान आंदोलन की जीत होगी और साफ तौर पर मोदी जी की हार दिखाई देगी। लेकिन वह अब भी नहीं मानते हैं तो भाजपा को और भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।

अगर बड़े राजनीतिक नुकसान को भांपकर सरकार तीन कृषि कानूनों को वापस लेने को तैयार हो जाती है, तो एमएसपी पर क्या करेगी? वह शायद ही एमएसपी सुनिश्चित करने का कानून बनाने को तैयार हो। लेकिन अगर सभी फसलों पर लाभकारी मूल्य की गारंटी का प्रावधान नहीं बनता है तो किसानों को हासिल क्या होगा? तीन कृषि कानूनों की वापसी से तो सिर्फ इतना होगा कि वे इन कानूनों के बनने से पहले की स्थिति में आ जाएंगे। पर इसमें बेहतरी या हासिल होने जैसा कुछ नहीं होगा। इसलिए इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन की ऐतिहासिक उपलब्धि और तार्किक परिणति तो तभी होगी जब खेती-किसानी की पुसाने लायक व्यवस्था हो।

भारत बंद को केंद्रीय श्रमिक संगठनों समेत तमाम मजदूर संगठनों, अनेक छात्र-युवा संगठनों, कई महिला संगठनों और सैकड़ों सामाजिक संगठनों-संस्थाओं ने समर्थन दिया है। संयुक्त किसान मोर्चा भी पिछले दस महीनों में ‌अन्य तबकों के जायज संघर्षों से जुड़ा है, चाहे वह चार लेबर कोड को वापस लेने की श्रमिक संगठनों की मांग हो या स्कीम वर्कर्स की विभिन्न मांग। इस तरह, किसान आंदोलन ने न सिर्फ देश भर के किसान संगठनों को एक किया है और एकजुट बनाये रखा है बल्कि दूसरे मेहनतकश तबकों को भी अपने हक, बेहतरी और इंसाफ के लिए लड़ने का हौसला दिया है। और यही हौसला हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों पर हो रहे हमलों का प्रतिकार करेगा। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं, जबकि किसान आंदोलन अभी मंजिल पर नहीं पहुंचा है।

– राजेन्द्र राजन

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