(किशन जी चिंतन और कर्म, दोनों स्तरों पर राजनीति में सदाचार, मानवीय मूल्यबोध और आम जन के हित को केंद्र में लाने के लिए सक्रिय रहे। वह मानते थे, जो कि सिर्फ सच का स्वीकार है, कि राजनीति अपरिहार्य है। इसलिए अगर हम वर्तमान राजनीति से त्रस्त हैं तो इससे छुटकारा सिर्फ निंदा करके या राजनीति से दूर जाकर, उससे आँख मूँद कर नहीं मिलेगा, बल्कि हमें इस राजनीति का विकल्प खोजना होगा, गढ़ना होगा। जाहिर है वैकल्पिक राजनीति का दायित्व उठाना होगा, ऐसा दायित्व उठानेवालों की एक समर्पित जमात खड़ी करनी होगी। लेकिन यह पुरुषार्थ तभी व्यावहारिक और टिकाऊ हो पाएगा जब वैकल्पिक राजनीति के वाहकों के जीवन-निर्वाह के बारे में भी समाज सोचे, इस बारे में कोई व्यवस्था बने। दशकों के अपने अनुभव के बाद किशन जी जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे उसे उन्होंने एक लेख में एक प्रस्ताव की तरह पेश किया था। इस पर विचार करना आज और भी जरूरी हो गया है। पेश है उनकी पुण्यतिथि पर उनका वह लेख।)
सरकारी बजट से राजनेताओं पर खर्च करना कोई नयी बात नहीं है। सांसदों, विधायकों, मंत्रियों, स्वतंत्रता सेनानियों आदि के लिए कई तरह के भत्ते होते हैं। बड़े नेताओं की जीवनरक्षा के नाम पर केंद्र सरकार प्रति माह 51 करोड़ रुपया खर्च कर रही है। जिन राजनेताओं की सुरक्षा के लिए यह खर्च हो रहा है उनमें से अधिकांश भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। यह सब राजनैतिक खर्च है, और उसका एक बड़ा अंश अनावश्यक है। उसको घटाकर एक बेहतर ढंग से राजनैतिक खर्च का उपयोग किया जा सकता है। कई बार यह सुझाव आया है कि हरेक उम्मीदवार को चुनाव खर्च के पैसे सरकारी खजाने से मिलें। सिर्फ चुनाव के लिए क्यों?समर्पित राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए क्यों नहीं?
हमारे प्रस्ताव से कोई विशिष्ट वर्ग पैदा नहीं होगा, कारण राजनीति पर इस समूह का एकाधिकार नहीं होगा। जो लोग धनसंचय कर सकते हैं, जो प्रशिक्षित नहीं हैं, वे भी राजनीति करेंगे और चुनाव लड़ेंगे क्योंकि चुनाव लड़ना एक मौलिक अधिकार है। राजनीति में एक समर्पित, धनहीन समूह को संरक्षण देना जरूरी है। उसके लिए एक सामाजिक या अर्धसरकारी व्यवस्था चाहिए। अन्यथा अपराधियों और पूंजीपतियों के दलालों का एकाधिकार राजनीति पर हो जाएगा। लोगों के सामने दोनों प्रकार के उम्मीदवार होंगे तो लोग अपना चुनाव कर लेंगे। गारंटी सिर्फ इस बात की है कि आदर्श और मूल्य आधारित राजनीति की एक धारा हमेशा बनी रहेगी। समाज भी इस बात के प्रति सचेत रहेगा कि अच्छे राजनेताओं को बनाना उसका काम है।
इस प्रस्ताव का कोई विकल्प नहीं है। चर्चा के द्वारा इसको ठोस और प्रभावी बनाया जा सकता है। इस प्रस्ताव के मुताबिक संविधान में तत्काल कोई परिवर्तन नहीं होनेवाला है। इसलिए इसकी शुरुआत गैरसरकारी स्तर पर ही हो सकती है। शुरू के कदम इस प्रकार होंगे :सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा समूह बने जिसका दृढ़ विश्वास हो कि राष्ट्रहित में वर्तमान राजनीति का एक विकल्प चाहिए। प्रस्तावित समूह की दूसरी मान्यता यह होगी कि मौजूदा आर्थिक नीतियां गलत हैं और उदारीकरण तथा ग्लोबीकरण की नीति को बदलकर भारत को आर्थिक पराधीनता से मुक्त करने के लिए एक नयी राजनीति का अभ्युदय चाहिए।
अगर उपर्युक्त दो बातों का सामूहिक एलान करने वो दस हजार व्यक्ति हो जाएंगे तो अच्छी शुरुआत मानी जाएगी बशर्ते उनमें विभिन्न भाषाओं, जातियों और सम्प्रदायों के लोग हों, जाने-माने बुद्धिजीवी हों, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हों और घोषित उद्देश्यों के लिए सबकी आन्तरिकता हो।
उनका आह्वान होगा कि राजनैतिक कार्यकर्ताओं का एक नया समूह देश को चाहिए। आह्वान यह नहीं होगा कि किसी एक संगठन में सारे लोग एकत्रित हो जाएं। शुरू में अलग-अलग संगठन में रहकर भी लोग अपनी राजनैतिक घोषणा कर सकते हैं। कुछ बुनियादी लक्ष्यों के लिए प्रतिबद्धता और सहमति जरूरी है : लोकतंत्र, शान्तिमय परिवर्तन, सामाजिक न्याय, विकेन्द्रीकरण और आर्थिक गैर-बराबरी पर रोक।
उपर्युक्त सारी मान्यताओं पर सहमत होनेवाले दस हजार लोग अगर सामूहिक प्रयास करेंगे तो देश में गांव, जिला, राज्य और राजधानी के स्तर पर शीघ्र ही, एक साल के अंदर, एक लाख समर्थक हो जाएंगे उनके सहयोग से नये राजनैतिक कार्यकर्ताओं की आर्थिक मदद के लिए विभिन्न केंद्रों पर कोष स्थापित किये जा सकेंगे। ‘बेहतर राजनीति के लिए कोष निर्माण’ एक राष्ट्रीय महत्त्व का काम होगा। इस कोष को समृद्ध करना प्रत्येक देशभक्त नागरिक का कर्तव्य होगा। जो लोग चुनाव नहीं लड़ेंगे, कोष निर्माण का काम उनको करना चाहिए।
शुरू के दस हजार लोगों को इस वैकल्पिक राजनैतिक प्रक्रिया का संस्थापक माना जाएगा। उनकी एक समिति होगी जो प्रारंभिक दौर के लिए एक राजनैतिक घोषणापत्र तैयार करेगी। वह कार्यकर्ताओं के लिए एक आचरण संहिता भी बनाएगी।
देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं के बारे में सरकार की क्या नीति होनी चाहिए यह इस प्रस्ताव की परिधि में नहीं है। जनाधार का सवाल अवश्य इस प्रस्ताव के साथ जुड़ा हुआ है- नयी राजनीति का जनाधार क्या होगा। किसी वर्ग, जाति या संप्रदाय को हम देश का शत्रु नहीं मानते हैं। हरेक देशभक्त व्यक्ति राष्ट्र के नवोत्थान के लिए सहयोगी हो सकता है। गरीबी रेखा से नीचे वालों को राजनैतिक कार्य के लिए संगठित करना असंभव जैसा काम है। निम्न मध्यम वर्ग (जिसमें गांव का साधारण किसान और शहर के मिस्त्री, मुंशी जैसे लोग होते हैं) जो न सिर्फ शिक्षित होता है, बल्कि भ्रष्टाचार और उदारीकरण दोनों के बारे में सचेत हो सकता है। निम्न मध्यम वर्ग के युवा समूह और महिलाएं नयी राजनीति के मुख्य विस्फोटक हो सकते हैं। उनके मन में इस व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रतिशोध की भावना हो सकती है।
यह आलेख एक प्रस्ताव है आजादी के पचास साल के अवसर पर, अगले पचास साल के लिए।