— सुज्ञान मोदी —
भारत की आजादी का अमृत-महोत्सव चल रहा है। वह आजादी जो हमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ी गयी अहिंसक लड़ाई के बल पर मिली थी। आज की पीढ़ियों को तो यह सब अकल्पनीय लगता है। लेकिन बापू यदि अपने जीवन में इतना महान पराक्रम कर पाये और सच्चे महात्मा के पद से विभूषित हुए, तो उसके पीछे उनकी गहन आध्यात्मिक साधना भी थी। सत्य और धर्म की व्यक्तिगत साधना के बल पर ही उनके सत्याग्रह में बल पैदा हुआ। इसलिए गांधीजी की आध्यात्मिक साधना को समझे बिना हम उनकी जीवन यात्रा को ठीक से नहीं समझ पाते। इसलिए अंग्रेजी शिक्षा पाये बैरिस्टर गांधीजी का परिचय सत्य धर्म से करानेवाले श्रीमद् राजचंद्र का अप्रत्यक्ष किंतु महान योगदान भी हमारी आजादी में रहा ही है।
अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में गांधीजी ने लिखा है-
“यद्यपि उस समय मैं अपनी दिशा स्पष्ट नहीं कर पाया था; यह भी नहीं कह सकता कि साधारणतः मुझे धर्म चर्चा में ही रस था; फिर भी रायचंद भाई की धर्म-चर्चा रुचिपूर्वक सुनता था। उसके बाद मैं अनेक धर्माचार्यों के संपर्क में आया हूं। मैंने हरेक धर्म के आचार्यों से मिलने का प्रयत्न किया है। पर मुझपर जो छाप रायचंद भाई ने डाली, वैसी दूसरा कोई न डाल सका। उनके बहुतेरे वचन मेरे हृदय में सीधे उतर जाते थे। मैं उनकी बुद्धि का सम्मान करता था। उसकी प्रामाणिकता के लिए मेरे मन में उतना ही आदर था। इसलिए मैं जानता था कि वे मुझे जान-बूझकर गलत रास्ते नहीं ले जाएंगे और उनके मन में जो होगा वही कहेंगे। इस कारण अपने आध्यात्मिक संकट के समय मैं उनका आश्रय लिया करता था।”
इसी अध्याय में आगे गांधीजी लिखते हैं– “यहाँ तो इतना ही कहना काफी होगा कि मेरे जीवन पर प्रभाव डालनेवाले आधुनिक पुरुष तीन हैं : रायचन्द भाई (श्रीमद् राजचन्द्र) ने अपने सजीव संपर्क से, टॉल्सटॉय ने ‘बैकुण्ठ तेरे हृदय में है’ (दी किंगडम ऑफ गॉड इज़ विदीन यू) नामक अपनी पुस्तक से और रस्किन (जॉन रस्किन) ने ‘अनटु दिस लास्ट’ नामक पुस्तक से मुझे चकित कर दिया।”
तो आखिर इन धर्मपुरुषों का वह कौन सा धर्म-विचार था जिसने गांधीजी के धर्मचिंतन को इतना प्रभावित किया? टॉल्सटॉय ने ईसाइयत को संप्रदायमुक्त होकर शुद्ध धर्म के स्तर पर समझने की कोशिश की थी। उनपर बुद्ध और उपनिषदों के धर्मचिंतन का भी प्रभाव था। इसलिए उन्होंने ईसा की सिखावन को चर्च और बाइबिल के अंधविश्वासी शिकंजे से मुक्त करने की कोशिश की। उन्होंने वैराग्य धारण कर सीधे सत्यस्वरूप ईश्वर को समझने और आत्मसात करने की कोशिश की। इसलिए चर्च ने टॉल्सटॉय को अलग-थलग करने की कोशिश की। उनकी इसी सत्यशोधी धर्मसाधना ने गांधीजी को प्रभावित किया। उनकी श्रमनिष्ठा और उनके वैराग्य ने गांधीजी के सामने इस युग के कर्मयोगी धर्मसाधक का नया ही स्वरूप सामने रखा।
1867 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन श्रीमद् ने नरदेह में जन्म धारण किया था। 1874 में यानी केवल 7 वर्ष की आयु में श्मशान में दहकती हुई चिता को देखकर 900 पूर्व जन्मों का उन्हें स्मरणज्ञान हुआ। जैन परंपरा की सिद्धियों की भाषा में इसे जातिस्मरणज्ञान कहा जाता है। 1875 यानी मात्र 8 वर्ष की अवस्था में वे लगभग पाँच हजार पंक्तियों का काव्य रच चुके थे। 1877 में यानी मात्र 10 वर्ष की आयु में रामायण, महाभारत एवं तमाम पौराणिक ग्रंथों का अवगाहन वे कर चुके थे। 1878 में यानी 11 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अध्यात्म विषयक अनेक लेख और कविताएँ लिखीं। 15 से 17 वर्ष की आयु के बीच उन्होंने वैराग्यप्रधान आगमों का गहन अध्ययन किया। इसी दौरान 1884 में 16 वर्ष और 5 महीने की आयु में केवल तीन दिनों में श्रीमद् जी ने मोक्षमाला ग्रंथ की रचना की। इसमें 108 अध्याय हैं और आध्यात्मिक सिद्धांतों का गहन निरूपण है।
1890 में 23 वर्ष की आयु में श्रीमद् को शुद्ध सम्यक दर्शन की दिव्यानुभूति हुई। यही वह समय है जब मोहनदास गांधी इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास करके भारत लौटते हुए जहाज से बंबई में उतरते हैं। 6 जुलाई, 1891 को डॉ. प्राणजीवनदास मेहता के घर 22 वर्ष के युवा मोहनदास गांधी से श्रीमद् राजचन्द्र की पहली भेंट होती है। इसके बाद लगभग दो वर्षों तक गांधीजी और उनके बीच सजीव अंतरंग संगति का दौर चला। यह संबंध इतना आत्मीय और गाढ़ा था कि मोहनदास घंटों उनके सामने बैठकर उनकी दिनचर्या को निहारते रहते थे। श्रीमद् के रूप, व्यवहार और उनकी दिनचर्या का जितने विस्तार से और जितनी सूक्ष्मता से गांधीजी ने अपनी आत्मकथा और अपने संस्मरणों में जिक्र किया है, वैसा दुर्लभ ही है।
5 नवंबर, 1926 को गांधीजी ने श्रीमद् के बारे में विस्तार से अपने संस्मरण लिखे। इसमें उन्होंने श्रीमद् की प्रसिद्ध रचना ‘अपूर्व अवसर’ के इन पदों को भी लिखा है जो उन्हें कंठस्थ थे-
“ऐसा
अपूर्व अवसर कब आएगा?
कब होऊंगा बाहर और भीतर निर्ग्रन्थ?
सब सम्बन्धों के कठिन बन्धन को भेदकर,
कब चलूँगा महापुरुष के मार्ग पर?
सम्पूर्ण रीति से उदासीन वृत्ति धारण किए हुए को
देह केवल संयम के लिए ही होगी,
वह अन्य किसी कारण से, कोर्इ (अन्यथा) कल्पना नहीं करेगा;
उसकी देह में भी मूर्छा का लेश नहीं होगा।”
आगे गांधीजी ने लिखा है—“अठारह वर्ष की आयु में लिखित रायचंदभाई की कविता के ये पहले दो पद हैं। इन पंक्तियों में जो वैराग्य झलक रहा है, उसे मैंने उनके दो वर्ष के प्रगाढ़ परिचय में क्षण-क्षण देखा। उनके लेखों की एक असाधारण विशेषता यह है कि उन्होंने दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए एक पंक्ति भी लिखी हो, ऐसा मैंने नहीं देखा। …खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते हुए उनमें वैराग्य तो होता ही था। उन्हें कभी भी जगत के किसी भी वैभव के लिए मोह हुआ हो, ऐसा मैंने नहीं देखा। मैं उनके नित्यक्रम को आदरपूर्वक परन्तु अत्यन्त बारीकी से देखता था। भोजन में जो मिलता उसी में सन्तुष्ट रहते। वेशभूषा बिलकुल सादी थी, धोती और कुरता, अंगरखा और सूत तथा रेशम मिले कपड़े की पगड़ी। यह कोई बहुत साफ अथवा इस्त्री किये हुए होते थे, सो याद नहीं। जमीन पर बैठना अथवा कुर्सी पर बैठना, दोनों उनके लिए समान थे। अपनी दुकान में होते तब सामान्यतः वे गद्दी पर बैठते थे। …उनकी चाल धीमी थी, और देखनेवाला समझ सकता था कि चलते हुए भी वे विचारमग्न हैं। उनकी आँखों में अद्भुत शक्ति थी—अत्यन्त तेजस्वी; उनमें विह्वलता तनिक भी न थी। दृष्टि में एकाग्रता थी। चेहरा गोल, होंठ पतले, नाक न तो नुकीली और न चपटी; छरहरा बदन, मध्यम कद, वर्ण श्याम।
वे शान्ति की मूर्ति दिखाई देते थे। उनके कंठ में इतना माधुर्य था कि उनको सुनते हुए मनुष्य कभी नहीं थकता। चेहरा हँसमुख और प्रफुल्लित था, उसपर अंतरानन्द की चमक थी। भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हें अपने विचार व्यक्त करते हुए किसी दिन कोई शब्द ढूंढ़ना पड़ा हो, सो मुझे याद नहीं।”
गांधीजी ने अनेक स्थानों पर लिखा है कि वे ‘मोक्षमाला’ को सदैव अपने पास रखते थे। वैवाहिक जीवन में भी पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कल्याणकारी है और संभव है, यह बात पहली बार गांधीजी को श्रीमद् से ही जानने को मिली थी। श्रीमद् स्वयं गृहस्थ जीवन में रहकर साधना की महानतम ऊँचाई तक पहुँचे थे। बाद में जब गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा तो उनका श्रीमद् से पत्र-व्यवहार होता रहा। इन पत्रों में सबसे प्रसिद्ध पत्र वह है जिसमें 25 वर्ष के युवा बैरिस्टर मोहनदास गांधी ने डरबन (दक्षिण अफ्रीका) से अध्यात्म विषयक अपने 27 प्रश्न श्रीमद् राजचंद्र को लिख भेजे, और 27-वर्षीय श्रीमद् ने 20 अक्टूबर, 1894 को बंबई से उन प्रश्नों के उत्तर लिख भेजे थे। श्रीमद् के इन उत्तरों ने मोहनदास के आध्यात्मिक जीवन को हमेशा के लिए एक नया मोड़ दे दिया। क्योंकि उन दिनों उनके मन में भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं के प्रति संदेह उत्पन्न होना शुरू हो गया था और वे धर्म परिवर्तन करने के कगार पर पहुँच चुके थे। इस बारे में स्वयं महात्मा गांधी ने उक्त संस्मरण में लिखा है—
“जिस समय मेरे मन में हिंदू धर्म के बारे में शंका उत्पन्न हो गयी थी, उस समय उसके निवारण में मदद देनेवाले रायचंदभाई ही थे। 1893 में दक्षिण अफ्रीका में मैं कुछ ईसाई सज्जनों के संपर्क में आया। उनका जीवन निर्मल था। वे धर्मपरायण थे। अन्य धर्मावलंबियों को ईसाई बनने के लिए समझाना उनका मुख्य कार्य था। हालांकि उनसे मेरा संपर्क व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था, फिर भी वे मेरे आत्मिक कल्याण की चिंता में लग गये। इससे मैं अपना एक कर्तव्य समझ सका। मुझे यह प्रतीति हो गयी कि जब तक मैं हिन्दू धर्म के रहस्य को पूरी तरह नहीं समझ लेता और मेरी आत्मा को उससे संतोष नहीं होता, तब तक मुझे अपने जन्म का धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए मैंने हिन्दू और अन्य धर्म-पुस्तकों को पढ़ना आरंभ किया। ईसाइयों और मुसलमानों के धर्मग्रन्थों को पढ़ा। लन्दन में बने अपने अंग्रेज मित्रों के साथ पत्र-व्यवहार किया। उनके सामने अपनी शंकाओं को रखा।
उसी तरह हिन्दुस्तान में भी जिन लोगों पर मेरी थोड़ी बहुत आस्था थी उनके साथ भी मैंने पत्र-व्यवहार किया। इनमें रायचन्दभाई मुख्य थे। उनके साथ तो मेरे अच्छे संबंध स्थापित हो चुके थे। उनके प्रति मेरे मन में आदरभाव था। इसलिए उनसे जो मिल सके उसे प्राप्त करने का विचार किया। उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे शांति मिली। मन को ऐसा विश्वास हुआ कि मुझे जो चाहिए वह हिन्दू धर्म में है। इस स्थिति का श्रेय रायचन्द भाई को था; इसलिए पाठक स्वयं इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि उनके प्रति मेरा आदरभाव कितना नहीं बढ़ा होगा।”
श्रीमद्रा जचन्द्र जैन परंपरा के साधक थे, लेकिन उन्होंने सत्य धर्म के संप्रदायमुक्त स्वरूप को समझ लिया था। इसलिए गांधीजी भी मजहबों के बाड़े से मुक्त धर्ममात्र की साधना की ओर बढ़ चले। इस संबंध में गांधीजी ने लिखा है- “पुस्तकें पढ़ने और सार ग्रहण करने की शक्ति उनमें अपार थी… उन्होंने अनुवाद के द्वारा ‘कुरान’ और ‘जेंद अवेस्ता’ आदि का पठन भी कर लिया था। …रायचन्द भाई के मन में अन्य धर्मों के प्रति अनादर का भाव नहीं था। वेदान्त के प्रति तो उनमें विशेष अनुराग भी था। वेदान्ती को कवि (श्रीमद्) वेदान्ती ही जान पड़ते थे। मेरे साथ चर्चा करते हुए उन्होंने मुझे कभी यह नहीं कहा कि मुझे मोक्ष प्राप्त करने के लिए अमुक धर्म का अनुसरण करना चाहिए। उन्होंने मुझे मेरे आचार पर ही विचार करने के लिए कहा। मुझे कौन सी पुस्तकें पढ़नी चाहिए, इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने मेरी रुचि और मेरे बचपन के संस्कार को ध्यान में रखकर ‘गीता’ का अध्ययन करने के लिए कहा और प्रोत्साहित किया तथा दूसरी पुस्तकों में ‘पंचीकरण’, ‘मणिरत्नमाला’, ‘योगवाशिष्ठ का वैराग्य प्रकरण’, ‘काव्य दोहन’ पहला भाग और अपनी ‘मोक्षमाला’ पढ़ने का सुझाव दिया।”
गांधीजी ने आगे लिखा है- “रायचंदभार्इ अकसर कहा करते थे कि धर्म तो बाड़ों की तरह है जिसमें मनुष्य कैद है। जिन्होंने मोक्ष की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ माना है, उन्हें अपने भाल पर किसी धर्म का तिलक लगाने की आवश्यकता नहीं है। ‘…तुम चाहे जैसे भी रहो। जैसे-तैसे हरिको लहो।’ यह सूत्र जिस तरह अखाभगत का था, उसी तरह रायचंदभाई का भी था। धर्म के झगड़ों से उनका जी ऊब उठता था, वे उसमें शायद ही पड़ते थे। उन्होंने सब धर्मों के गुणों को अच्छी तरह देख लिया था और जो जिस धर्म का होता, वे उसके सामने उसी धर्म की खूबियाँ रखते थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए मैंने उनके साथ जो पत्र-व्यवहार किया था उसमें से भी मैंने उनसे यही बात सीखी थी।”
श्रीमद्रा जचन्द्र से उन्होंने सीखा कि राग-द्वेष से मुक्ति ही सच्चा धर्म है। और वैराग्यपूर्ण, व्रतनिष्ठ तथा सेवानिष्ठ जीवन से ही उस दिशा में बढ़ा जा सकता है। श्रीमद् से उन्होंने प्रेम और अहिंसा का सच्चा अर्थ समझा। श्रीमद् से ही उन्होंने सीखा-समझा कि किस प्रकार गृहस्थ जीवन में भी दंपति ब्रह्मचर्य की साधना करते हुए अपने जीवन को विषय-वासना से रहित, पवित्र और ऊर्ध्वगामी बना सकते हैं। और बाद में वे अपने दाम्पत्य जीवन में ब्रह्मचर्य की साधना करने में सफल रहे, भले ही इस मामले में उन्हें तमाम तरह के अज्ञानपूर्ण लोकापवादों से भी गुजरना पड़ा हो।
इसलिए श्रीमद् जैसे महान तपस्वी और मुक्तपुरुष को गांधीजी ने उस दौर के महानतम भारतीय की संज्ञा दी थी।
श्रीमद् राजचन्द्र अपेक्षाकृत अपने बहुत छोटे-से जीवनकाल में ही तत्त्वज्ञान की ऐसी अलख जगा गये कि उसका प्रकाश आज और भी तीव्र गति से दिनोंदिन आध्यात्मिक जगत में फैलता जा रहा है। गांधीजी और श्रीमद् के संबंधों के इतने आयाम हैं कि उनपर कितने भी विस्तार से चर्चा करें वह पूरी नहीं हो पाती। आज हमारा समाज, हमारा देश, हमारी दुनिया और हमारी नयी
पीढ़ियाँ जिस कठिन दौर से गुजर रही हैं, उसमें श्रीमद् और गांधीजी के सत्य ज्ञान आधारित आध्यात्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना अत्यंत आवश्यक है। व्यक्ति, परिवार और समाज की बुनियाद में ही जब तक हम सत्य, प्रेम, करुणा, अहिंसा और आत्मबोध का समावेश नहीं करेंगे, तब तक एक सशक्त देश और सुंदर दुनिया का निर्माण हम कैसे कर पाएंगे!
आजादी के इस पावन अमृत-महोत्सव वर्ष में हम सबके सामने यह महान कार्य है कि हम श्रीमद् और गांधीजी की सच्ची जीवन साधना को नयी पीढ़ियों तक सही रूप में पहुँचाएँ और आत्मसाधना तथा चरित्र-निर्माण से राष्ट्र-निर्माण का उनका सपना साकार करें।
(वरिष्ठ गांधीवादी चिंतक सुज्ञान मोदी गांधीजी और श्रीमद् के संबंधों पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक ‘महात्मा के महात्मा’ के लेखक हैं। विनम्र सामाजिक सेवा के साथ-साथ भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े जीवन-मूल्यों के प्रसार कार्य में संलग्न है।)