गांधी के बारे में कुछ गलतफहमियाँ – नारायण देसाई – चौथी किस्त

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 - 15 मार्च 2015)

(महात्मा गांधी सार्वजनिक जीवन में शुचिता, अन्याय के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष और सत्यनिष्ठा के प्रतीक हैं। उनकी महानता को दुनिया मानती है। फिर भी गांधी के विचारों से मतभेद या उनके किसी कार्य से असहमति हो सकती है। लेकिन गांधी के बारे में कई ऐसी धारणाएं बनी या बनायी गयी हैं जिन्हें गलतफहमी ही कहा जा सकता है। पेश है गांधी जयंती पर यह लेख, जो ऐसी गलतफहमियों का निराकरण करता है। गांधी की छत्रछाया में पले-बढ़े और उनके सचिव मंडल का हिस्सा रहे स्व. नारायण देसाई का यह लेख गुजराती पत्रिका ‘भूमिपुत्र’ से लिया गया है। नारायण भाई ने गांधी की बृहद जीवनी भी लिखी है।)

6. गांधीजी ने भगतसिंह की फांसी नहीं रुकवाई

ह भी कहा जाता है कि गांधीजी ने कई महान व्यक्तियों के प्रति अन्याय किया। वह चाहते तो भगतसिंह की फाँसी रुकवा सकते थे, यह बात भी फैलाई गई है। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा हुई उससे कुछ समय पहले जो गांधी-इरविन समझौता हुआ था उसी के आधार पर यह आक्षेप लगाया जाता है। सच तो यह है कि गांधी-इरविन समझौता सिर्फ सविनय कानून भंग की लड़ाई को लेकर ही हुआ था। पहले से ही यह सहमति बन चुकी थी कि हिंसा, तोड़-फोड़ आदि के मामलों में जिनके खिलाफ आरोप साबित हुए हों और जिन्हें सजा सुनाई जा चुकी हो उनके विषय में इस समझौता-वार्ता में चर्चा नहीं होगी। गांधीजी और वाइसराय सविनय कानून भंग करके जेल में गए साठ हजार लोगों और अहिंसक आंदोलन के विषय में बातचीत करने के लिए ही मिले थे।

इसके बावजूद उन दिनों में इन लोगों को हुई फाँसी की सजा के संबंध में गांधीजी ने वाइसराय के साथ कम-से-कम चार-पाँच बार बातचीत की थी और पत्र भी लिखे थे। गांधीजी ने वाइसराय को यह समझाने की भी कोशिश की थी कि इन्हें अगर फाँसी न हो तो देश में ऐसा वातावरण निर्मित होगा जिसके चलते समझौते की अन्य शर्तों के पालन में भी अधिक अनुकूलता होगी। पर इस संबंध में लॉर्ड इरविन ने गांधीजी की एक न सुनी। उनकी भी कुछ लाचारी है, उन्होंने गांधीजी को यही भान कराया। समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद, दिल्ली छोड़ने के पहले भी गांधीजी ने कम-से-कम फाँसी की सजा को बदलने का आग्रह करता हुआ पत्र वाइसराय को लिखा था। पर वह व्यर्थ गया। भगतसिंह को फाँसी की सजा से मुक्ति दिलाने के लिए उनके परिवार की तरफ से लिखी गई अर्जी का पहला मसौदा देखकर गांधीजी ने कहा था कि उनके जैसे वीर पुरुष के लिए दी जानेवाली अर्जी ऐसी दीनता-भरी भाषा में न लिखी जाय, बल्कि ऐसी भाषा में लिखी जाय जो उनकी वीरता को शोभा दे। उस अर्जी का मजमून आखिरकार गांधीजी ने तैयार किया था।

हिंसक प्रवृत्ति में विश्वास रखने वाले लोगों के बारे में सामान्य रूप से गांधीजी का मत यह था कि वे देश के लिए कुर्बान होने वाले बहादुर लोग थे। गांधीजी उनके इन गुणों के प्रशंसक थे, पर उन्होंने जो रास्ता चुना था उससे गांधीजी पूरा मतभेद था। हिंसा के रास्ते अगर स्वराज मिलेगा तो हिंसा के रास्ते चला भी जाएगा, ऐसा वह मानते थे। सामान्य रूप से वह मानते थे कि हिंसा के जरिए किसी समस्या का समाधान नहीं निकल सकता। गांधीजी ने जान-बूझ कर इन नौजवानों को छुड़ाया नहीं, यह बात तो बिलकुल बेबुनियाद है। बाद में सरकार को समझाकर और हिंसा के आरोप में पकड़े गए लोगों से मिलकर, जिन पर विश्वास था कि छूटने पर हिंसक गतिविधियाँ नहीं करेंगे, गांधीजी ने उनकी बाबत निजी तौर पर भरोसा दिलाकर, उनकी रिहाई के प्रयत्नों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

देवली जेल में कैद जयप्रकाश नारायण चोरी-छिपे कुछ पत्र बाहर भेजते हुए रँगे हाथ पकड़ लिये गए, तो उन पत्रों में लिखी गई हिंसक विद्रोह की बातों को सरकार ने खूब तूल दिया था। तब गांधीजी ने हरिजन पत्रों में एक जोरदार लेख लिखकर जयप्रकाशजी का बचाव किया। उन्होंने लिखा था कि हालांकि हिंसा का रास्ता कांग्रेस का नहीं है, पर इस मामले में जो भी उचित कार्रवाई होगी वह कांग्रेस करेगी। सरकार को जयप्रकाश जैसे वीर पुरुष की निंदा करने का कोई हक नहीं है। उनके देश में किसी ने हिंसक क्रांति की योजना बनाई होती तो उसे लोग वीर पुरुष के रूप में पूजते। भारत की मुक्ति के लिए कोई ऐसी योजना बनाए तो अंग्रेज सरकार को उसकी निंदा करने का कोई अधिकार नहीं है।

7. गांधीजी आजादी की लड़ाई के रास्ते से भटक गए थे?

कांग्रेस में काम करने वाले समाजवादी गांधीजी को लेकर एक गफलत के शिकार हो गए थे। 1934 में जेल से छूटने के बाद गांधीजी ने दलितों की जागृति, उनकी सेवा और उनके संगठन के लिए हरिजन यात्रा की, तब तमाम समाजवादी नेताओं का कहना था कि गांधीजी स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य रास्ते से दूर जा रहे हैं। देश के लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता से हटकर गांधीजी सामाजिक प्रश्न की तरफ जा रहे हैं। पर यह विषय समूची लड़ाई की व्यूह-रचना का था। स्वतंत्रता के लिए तब तक का आखिरी आंदोलन 1930 से 1934 तक चला था। कोई साठ हजार लोग जेल गए थे। उनमें से बहुतेरे लोग एक से अधिक बार जेल गए थे। कार्यकर्ताओं मे थोड़ी थकान दिख रही थी। आंदोलन में कहीं-कहीं गिरावट के लक्षण भी गांधीजी को दिखे थे। उन्होंने अस्पृश्यता निवारण का कार्यक्रम देकर देश के हजारों कार्यकर्ताओं को शारीरिक-मानसिक विश्राम देने के साथ ही उन्हें विफलता के अहसास से बचा लिया था। दूसरी तरफ, जेल में किए गांधीजी के अनशन के कारण अस्पृश्यता निवारण की दिशा में देश में जो जागृति आई थी उसे ठोस स्वरूप देने की भी जरूरत थी। फिर, हरिजन सेवा का देशव्यापी आंदोलन छेड़ कर गांधीजी ने देश के सबसे वंचित वर्ग में कांग्रेस का प्रवेश करा दिया था। ‘अंत्यज’ कहे जाने वाले लोगों में से अनेक लोग कांग्रेस के कार्यकर्ता बने। उसके बाद 1937 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने अंत्यजों के लिए आरक्षित ज्यादातर सीटों पर कब्जा कर लिया था। इस तरह उस व्यूह रचना से गांधीजी ने कांग्रेस को कमजोर नहीं, मजबूत बनाया था।

( जारी )

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