— सच्चिदानंद सिन्हा —
जयप्रकाश नारायण 1946 में जेल से छूटे तो राष्ट्र ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया- वह भारत छोड़ो आंदोलन और अगस्त क्रांति के हीरो थे। रिहाई के बाद उन्होंने समाजवादी आंदोलन को पुनः संगठित करने का दायित्व ग्रहण किया और इस कार्य में पूरी तरह जुट गये। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की अगस्त क्रांति के दौरान भूमिगत आंदोलन में अग्रणी भूमिका रही थी और उसमें भाग लेनेवालों को ‘अगस्टर्स’ कहा जाने लगा था। अपनी वीरतापूर्ण भूमिका के कारण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के प्रति युवा वर्ग अत्यधिक रूप से आकृष्ट था और जनता के बीच भी उसको व्यापक समर्थन मिल रहा था। लेकिन पार्टी का संगठन ब्रिटिश सरकार के दमन के कारण अत्यधिक क्षतिग्रस्त हो गया था।
सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट, जो एक समय साथी थे, अब एक–दूसरे के चरम शत्रु बन गये थे, क्योंकि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पूरी तरह साथ दिया था। लेकिन सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों के बीच विवाद 1942 के आंदोलन में कम्युनिस्टों की भूमिका के सवाल तक सीमाबद्ध नहीं रहा- जैसे-जैसे लोग स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत यूनियन में उभरी निरंकुश सर्वसत्तावादी (टोटैलिटेरियन) व्यवस्था के बारे में ज्यादा जानने लगे, कम्युनिस्टों की नीतियों के बारे में तरह-तरह के सवाल उठने लगे। कम्युनिस्टों के साथ सोशलिस्टों का विवाद इन सवालों से भी टकराने लगा।
ऐसे में 1946 में किसी एक दिन जेपी ने पटना में छात्रों की एक स्टडी-क्लास को संबोधित किया। इन पंक्तियों का लेखक भी उसमें उपस्थित था। उस क्लास में जेपी ने सोवियत रूस में समाजवाद के नाम पर एक बर्बर सर्वसत्तावादी (अथॉरिटेरियन) शासन-व्यवस्था लागू किये जाने के बाद समाजवादी आंदोलन के भीतर जो बहुत सारे विवाद उत्पन्न हो गये थे, उनकी ओर युवा सोशलिस्टों का ध्यान दिलाने की कोशिश की थी। दुनिया भर में बुद्धिजीवी रूस में उत्पन्न विकृतियों को समझने और उनका विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे थे; जेपी ने इन कोशिशों और रूस के कम्युनिस्ट राज की आलोचना की विभिन्न धाराओं के बारे में संक्षेप में प्रकाश डाला। उन्होंने जो कुछ कहा, उसमें से अधिकांश हम उपस्थित युवाओं की समझ के परे था।
मुझे याद आता है कि बहुत-सी बातों की चर्चा करते हुए जेपी ने आर्थर कोएसलर की पुस्तक ‘द योगी ऐंड द कमिसार’ का भी जिक्र किया था। इस पुस्तक में कोएसलर ने एक न्यायपूर्ण समाज कायम करने की चेष्टा करनेवाले सभी आंदोलनों को जिस दुविधा का सामना करना पड़ता है, उसे रेखांकित किया था। कोएसलर के मुताबिक एक तरफ, योगी का नैतिकता और साधनों की पवित्रता वाला रास्ता प्रभाव-शून्य होता है और निष्फलता की ओर ले जाता है, तो दूसरी तरफ, कमिसार का राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने के बाद ऊपर से एक कठोर व्यवस्था लागू करने का रास्ता अवश्यंभावी रूप से जनता के खिलाफ एक स्वार्थी और दमनकारी शासन को जन्म देता है।
जेपी जीवन भर अपने खुद के संघर्ष में सामाजिक आंदोलनों को इन दो अतिवादी छोरों से मुक्त करने की अथक चेष्टा करते रहे। यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चेष्टा पूरी तरह सफल रही। सचाई तो यह है कि घटनाओं का दबाव उन्हें अकसर इन दो अतिवादी छोरों से टकराते रहने और उनसे जूझने को मजबूर करता रहा।
लेकिन अपने आदर्शों के प्रति गहरी निष्ठा और प्रतिबद्धता तथा अपनी खुद की ऊर्जस्विता के चलते वह कभी हताश और ‘सिनिक’ नहीं हुए। मृत्यु पर्यंत उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा, भले ही इसके लिए उन्हें वह रास्ता क्यों न त्यागना पड़ा हो, जिस पर वह कल तक चल रहे थे।
अपने जीवन की अंतिम चुनौती का उन्होंने सत्तर वर्ष की आयु पार करने के बाद उसी साहस के साथ सामना किया जिससे उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की चुनौतियों का सामना किया था। सत्तर के बाद की उमर में बहुत कम लोग ही किसी नयी चुनौती का सामना करने को तत्पर रह पाते हैं। इस उमर में अधिकतर लोग अपने माने हुए किसी सिद्धांत की सुरक्षा और शरण चाहते होते हैं। लेकिन जेपी के लिए मानव स्वाधीनता और सम्मान के संकटापन्न होने पर तुरंत कदम उठाना सबसे ज्यादा जरूरी हो जाता था, क्योंकि मानव स्वाधीनता और सम्मान उनके लिए किसी चहेते सिद्धांत से (जो इस चुनौती को स्वीकार करने में आड़े आता हो और संघर्ष करने के बजाय निष्क्रियता की ओर ले जाता हो) ज्यादा कीमती थे।
सत्तर पार करने के बाद भी उनमें युवासुलभ साहस और जिज्ञासा बनी हुई थी। यानी किसी नये रास्ते पर चल पड़ने और उसमें अपने को पूरी तरह झोंक देने की तत्परता। अपनी इस युवा मानसिकता के कारण ही वह अपने जीवन में दो बार भारतीय युवाओं के मानस को क्रांति के अपने सपने से झंकृत कर पाये- पहली बार 1942 में चालीस की उमर में और दूसरी बार 1974 में बहत्तर की उमर में।
जे.पी. के व्यक्तित्व का एक दूसरा पहलू उनकी शालीनता और विनम्रता में प्रकट होता है। उस वक्त भी जब वह नेहरू की कांग्रेस पार्टी के आधिपत्य को चुनौती देने के लिए प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में सोशलिस्ट पार्टी का निर्माण करने की चेष्टा कर रहे थे, उन्होंने नेहरू के प्रति अपना आदरपूर्ण रुख और व्यवहार बनाए रखा। अपने प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी जे.पी. के प्रभाव में महात्मा गांधी की नीतियों पर लगातार प्रहार करती रहती थी। कभी-कभी तो ऐसा भी लगता था कि उसका मुख्य निशाना महात्मा गांधी की नीतियां ही हैं। इसके बावजूद गांधीजी के प्रति अपने श्रद्धा-भाव को जे.पी. ने कभी त्यागा नहीं और उन्हें अपना पितृ-तुल्य नेता मानते रहे। जनता के बीच विनोबा भावे से अपनी बड़ी शख्सियत होने पर भी उन्होंने भूदान आंदोलन और सर्वोदय को अपनाने पर बेहिचक विनोबा भावे के एक श्रद्धालु शिष्य की भूमिका ग्रहण की।
उनके लचीलेपन और विभिन्न स्रोतों से सीखने की इच्छा पर कटाक्ष करते हुए डॉ. लोहिया ने कहा था कि कुछ लोग हमेशा ‘गुरुओं’ की तलाश में रहते हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि व्यक्तिगत बड़प्पन कभी-कभी राजनैतिक पार्टियों के कार्यकार्ताओं के बीच भ्रम पैदा करता है क्योंकि एक राजनैतिक पार्टी के लिए अपने कार्यकर्ताओं को एकजुट बांध रखने के वास्ते दुनिया को स्याह और सफेद में विभाजित करना अकसर जरूरी होता है। लेकिन यह जे.पी. का तरीका नहीं था और इसको ध्यान में रखने पर दलीय राजनीति के प्रति उनकी बाद के वर्षों की वितृष्णा को कुछ हद तक समझा जा सकता है। लेकिन इसी वितृष्णा ने उनके अपने जीवन में विडंबना को भी जन्म दिया। सामाजिक जीवन में दलीय राजनीति की वास्तविकता और उसकी अपरिहार्यता को चाहकर भी नकारा नहीं जा सकता। इसीलिए जब उन्होंने उसे दरवाजे से धकेल बाहर किया तो वह खिड़की से उनके सामने आ धमकी। लेकिन जब दलीय राजनीति की चुनौती को स्वीकार करना आवश्यक ही हो गया तो उसे उन्होंने स्वीकार किया। चुनौती का सामना करने से भागनेवाले व्यक्ति जेपी नहीं थे।
ऊपर हमने जे.पी. के चरित्र की कुछ विशेषताओं की चर्चा की है। अब हम संक्षेप में भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका पर विचार करेंगे।
अमरीका में अध्ययन करने के दौरान एक युवा छात्र के रूप में जेपी मार्क्सवाद से अत्यधिक प्रभावित हुए, लेकिन इसके पहले वह महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर प्रबल राष्ट्रवादी बन चुके थे और उन्होंने अंगरेजों की स्कूल-व्यवस्था का बहिष्कार किया था। 1934 में जेपी द्वारा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन करने की पहल करने में ऊपर लिखी गयी दोनों बातों की भूमिका स्पष्ट नजर आती है। ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’– यह नाम ही नयी पार्टी के दुहरे ‘एजेंडा’ (कार्यक्रम-उद्देश्य) को प्रकट करता था और उसपर बल देता था। पहला काम था देश को विदेशी शासन की दासता से मुक्त करना, और दूसरा, समाज को एक समाजवादी समाज में रूपांतरित करना।
यह एजेंडा एक प्रकार से रूसी क्रांति के पहले अपने को सोशल डेमोक्रैट कहनेवाले यूरोपीय मार्क्सवादियों के दुहरे कार्यक्रम के समानांतर था। इन यूरोपीय मार्क्सवादियों ने अपनी पार्टियों के सामने यह लक्ष्य रखा था कि समाजवादी क्रांति की प्रस्तावना के रूप में लोकतांत्रिक क्रांति को पहले अंजाम दिया जाए। कांग्रेस सोशलिस्टों के लिए राष्ट्रीय क्रांति का मतलब लोकतांत्रिक क्रांति था। बाद के वर्षों में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन ने देश में लोकतंत्र की रक्षा करने में एक अहम भूमिका अदा की।
देश में कम्युनिस्ट पार्टी से, जिसने पूर्ण रूप से सोवियत रूस का अभिभावकत्व स्वीकार कर लिय़ा था, अलग एक समाजवादी आंदोलन के उभरने ने लोकतंत्र के रक्षा करने के काम को कुछ सुगम भी बनाया। (देश में 1925 से एक कम्युनिस्ट पार्टी कायम हो गयी थी।) सोवियत यूनियन के अधिकाधिक सर्वसत्तावादी होते जाने पर कम्युनिस्टों ने लोकतंत्र को एक बुर्जुआ भ्रम बताना और उसका प्रत्याख्यान करना शुरू कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (जो अब पूरी तरह रूसी आधिपत्य में था) की नीतियों में पलटाव आने के कारण भारतीय कम्युनिस्ट महात्मा गांधी की पूंजीपतियों के दलाल के रूप में और कांग्रेस की बुर्जुआ वर्ग का हित साधन करनेवाली पार्टी के रूप में भर्त्सना करने लगे। इन संकट भरे वर्षों में कांग्रेस से संबंध बनाने में सोशलिस्ट सक्षम हुए। यह संबंध राष्ट्रीय स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का भी जोरदार ढंग से इजहार करता था। उन्होंने कांग्रेस को मजदूरों और किसानों का पक्ष लेने के लिए प्रेरित किया और इस प्रकार उसे वामपंथ के निकट लाने की कोशिश की। इसमें उन्हें जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे कांग्रेसी नेताओं की मदद भी मिली।
लेकिन 1939 के बाद से वामपंथ से कांग्रेस के संबंधों में भारी तनाव पैदा होने लगा। अंततोगत्वा कांग्रेस का वामपंथी रुझान वाला एक गुट कांग्रेस से अलग हो गया और उसने सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में एक नये संगठन ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की, पर सोशलिस्ट कांग्रेस के भीतर ही रहे। इस समय जेपी की भूमिका निर्णायक सिद्ध हुई क्योंकि वही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सबसे अधिक प्रभावशाली नेता थे और वह कांग्रेस के साथ एका कायम रखने के पक्ष में थे। अपने इस दृष्टिकोण के चलते जेपी अन्य वामपंथियों के कोपभाजन भी बने। तीन वर्ष बाद 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान कांग्रेस में बने रहने के उनके निर्णय का औचित्य पूरी तरह प्रकट हुआ। रूस पर जर्मनी के आक्रमण के बाद कम्युनिस्टों ने दूसरे विश्व युद्ध को ‘जन युद्ध’कहना शुरू कर दिया और ब्रिटिश सरकार की मदद करने लगे।
सुभाष बोस जापान में थे और उनका फारवर्ड ब्लाक छिन्न-भिन्न हो गया था। कांग्रेस के सभी नेता गिरफ्तार कर लिये गये थे और ब्रिटिश सरकार ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को कुचलने के लिए बर्बरता और भारी दमन का सहारा ले रही थी। ऐसी स्थिति में भूमिगत आंदोलन को चलाते रहने के लिए एक संगठित ग्रुप के रूप में अकेले सोशलिस्ट ही बचे थे। इस संकट काल के दौरान जेपी अपने आध दरजन साथियों के साथ हजारीबाग जेल से भाग निकले और उन्होंने स्वातंत्र्य योद्धाओं के नाम दो पत्र लिखकर उन्हें लड़ाई जारी रखने के लिए प्रेरित किया। स्वातंत्र्य योद्धाओं का आह्वान करनेवाले इन दो पत्रों को आज भी याद किया जाता है। जेपी के आह्वान का सबसे ज्यादा असर युवाओं पर पड़ा। उनमें भारी जोश पैदा हुआ और उन्होंने जेपी को 1942 के ‘भारत छोडो’ आंदोलन का हीरो बना डाला।
(जारी)