— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
(छठी किस्त)
असमिया के प्रख्यात साहित्यकार, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता, साहित्य अकादमी के भू.पू. अध्यक्ष वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य लिखते हैं कि “जब लोहिया नेफा गये थे जिसे आजकल अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है वे सर्दी से बचने के लिए लम्बा गर्म कोई भी नहीं ले गये तो हम लोगों ने उनके लिए गर्म कोर्ट का प्रबंध किया। जब उन्होंने पहना तो देखा कि उनके कोट की बाजू लोहिया जी के बाजू से लंबी थी। हम लोग यह देखकर खूब हँसे। जब नेफा से वह वापिस लौटे तो कुछ चिंतित थे और मुझे कहने लगे कि नेफा का नाम मुझे पसंद नहीं। इस अँग्रेज़ी नाम का कोई मामला नहीं है। इसका नाम उन्होंने उर्वशीयम सुझाया, हमने उनसे पूछा कि उर्वशीयम का मतलब क्या है? उन्होंने हमें समझाया कि उर्वशीयम में उ का मतलब है उत्तर, व के माने पूर्व उत्तर, शीयम माने समानता। उस समय हम ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बैठे लोहिया जी से बात कर रहे थे, उस नदी में अंदर एक बहुत बड़ी चट्टान थी जिसे उन्होंने कहा कि इसका नाम उर्वशी है जो एक महिला थी और देवताओं ने शाप देकर उसे पत्थर बना दिया। इस प्रकार उन्होंने उर्वशीयम को उत्तर-पूर्व से भी जोड़ दिया और उर्वशी से भी मिला दिया। यह उनका गहराई से सोचने का एक अंदाज़ था। वे बहुत महान और मौलिक चिंतक थे।
मणिपुर के विद्वान् भू.पू. संसद सदस्य कीशिंग रिशांग का कहना है कि “मैं एक अत्यंत पिछड़े प्रांत मणिपुर का रहनेवाला हूँ जो कि अंग्रेजों के शासनकाल में और भी पिछड़ा हो गया था। हम लोगों को भारत के अन्य लोगों से मिलने नहीं दिया जाता था। यह अंग्रेजों की एक प्रकार की चाल थी। उन्होंने मणिपुर और नगालैण्ड में प्रवेश करने के लिए भारतीय को अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया था, बिना अनुमति लिये कोई भारतीय नगालैण्ड में प्रवेश नहीं कर सकता था। परंतु डॉ. लोहिया बगैर अनुमति के मणिपुर आये तथा सत्याग्रह किया। डॉ. लोहिया को पुलिस ने पकड़कर मणिपुर की सीमा से बाहर कर दिया। मैं यह कहना उचित समझूँगा कि डॉ. लोहिया पहले भारतीय थे, जिन्होंने हमारे इलाके में आकर हमारे लिए आंदोलन किया। हम मणिपुरवासियों के मन में यह भावना भर दी कि मणिपुर भारत का एक अभिन्न अंग है। यहाँ रहनेवाले सारे भारतीय हैं। हम सबने मिलकर डॉ. लोहिया द्वारा चलायी गयी क्रांति को दूर-दूर के पहाड़ी इलाकों के आदिवासियों तक फैलाया, हर जगह हमारा हार्दिक स्वागत हुआ, मैंने अपने जीवनकाल में ऐसा गरीबों का मसीहा नहीं देखा जैसे डॉ. लोहिया थे।
भारत की सिरमौर साहित्यकार महादेवी वर्मा के शब्दों में– “लोहिया में किसी स्वर्ग या निर्वाण के साधक की निष्क्रिय करुणा न होकर कर्मयोगी की करुणा थी। उनकी भावुकता भी निष्क्रिय नहीं थी। अनेक व्यक्तियों ने चित्रकूट देखा है किंतु कितने ऐसे दर्शक हैं जो राम और भरत के अद्भुत मिलन को मानस चक्षुओं से देखकर भाव विह्वल होकर कुछ कर सके। जब लोहिया ने अपने भीतर उन परिस्थितियों से तादात्म्य किया तब वे भावाकुल होकर आँसू बहाने लगे और परिणाम में रामायण मेले का जन्म हुआ। हम चाहे उस मेले का उचित उपयोग न कर सकें परंतु उनकी राम के प्रति वह अप्रतिम भावांजलि रहेगी। पर इस भावाकुलता के ज्वार ने कभी उनके चिंतन के तटों को भंग नहीं किया। वे हमारे युग के मौलिक चिंतक, विचारक, समाजशास्त्री तथा कर्मनिष्ठ व्यक्ति हैं।
कवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है “संसद में आते ही विरोधी नेता के रूप में लोहिया साहब ने जो अप्रतिम निर्भीकता दिखाई थी, उसकी बड़ाई बानगी तौर पर कांग्रेसी सदस्य भी करते थे और उस निर्भीकता के कारण लोहिया साहब पर मेरी बड़ी गहरी भक्ति थी। सन् 1962 ई. के अक्टूबर में चीनी आक्रमण से पूर्व मैंने ‘एनार्की’ नायक जो व्यंग्य काव्य लिखा था उसमें ये पंक्तियाँ आती हैं।
तब का लोहिया महान है,
एक ही तो वीर यहाँ सीना राह तान है।
धर्मयुग के संपादक रह चुके डॉ. धर्मवीर भारती का लोहिया के बारे में आकलन इस प्रकार है– “मैं अनेक बार बड़े राजनेताओं से मिला हूँ नेहरू जी से राजगोपालाचारी से, राष्ट्रपति सुकर्णो से, राष्ट्रपति डॉ. लियापोल्ड सेंगोर, शेख मुजीब से प्रभावित हुआ हूँ अभिमूत हुआ हूँ, पर लोहिया जी से मिलने के बाद की जो अनुभूति थी वह बड़ी अजीब थी, मैं अपने आप में जैसे सहज हो आया था, जैसे लगा था कि किसी चीज़ को कभी इतना बड़ी नहीं माना कि उसके सामने तुम्हारा छोटापन तुम्हें कचोटने लगे….. ‘जन’ में भारतीय प्रस्तर स्थापत्य और मूर्तिकला पर उनकी एक लेखमाला निकली थी। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कला सौंदर्य के प्रति उनकी मौलिक पहचान और व्याख्या अभी तक कोई जाना-माना कला-समीक्षक भी नहीं दे पाया है।”
उन्होंने मुझसे कहा “ज़रा घर जाकर वाल्मीकि रामायण देखना और मुझे लिखना कि सागर पर सूर्यास्त का वर्णन कहीं है क्या? सुंदरता में कुछ करुणा का पुट होता तभी उदात्त होती है। सूर्योदय में चहल है, वेग है, सूर्यास्त में करुणा है, सौम्यता है। जैसे रस से पक गया हो।” वह अंतिम बार था, जब ऐसी शाम बीती थी, समता, स्वातंत्र्य और सौंदर्य के त्रिविध आयामों वाला उनका यह व्यक्तित्व, संपूर्णता को संपूर्ण भाव से जीने की उमंग वाला वह व्यक्तित्व अपने सांवलेपन में कभी-कभी त्रिमंत्री कृष्ण की छवि क्यों मारता था, यह मैं अक्सर सोचा करता हूँ।
कन्नड़ के आधुनिक साहित्य के तीन सबसे प्रभावी लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति, पी. लंकेश और तेजस्वी लोहिया विचार के अनुगामी रहे हैं। कर्नाटक सरकार के कन्नड़ और संस्कृति विभाग ने राममनोहर लोहिया की संकलित रचनाओं के छह खंड प्रकाशित किये हैं, यह परियोजना दस खंडों की है। इन खंडों के ब्लर्ब पर लिखा हुआ है कि लोहिया का कर्नाटक के साहित्य और राजनीति की दुनिया पर गहरा प्रभाव पड़ा था। कर्नाटक के तीन महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों मैसूर यूनिवर्सिटी, बैंगलोर यूनिवर्सिटी और कर्नाटक यूनिवर्सिटी (धारवाड़) में लोहियावादी अथवा उनके मौलिक समर्थक विद्वानों द्वारा लोहिया के विचारों का पठन पाठन होता है।
लेखकों, बुद्धिजीवियों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने लोहिया पर बहुत बार विस्तार से लिखा है जैसे आचार्य दादा धर्माधिकारी, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, इंदुमति केलकर, नंद चतुर्वेदी, नंदकिशोर आचार्य, कृष्णनाथ, राजकिशोर, विनोद शाही, किरन बर्मन, डॉ. युगेश्वर, आचार्य श्रीपाद केलकर, मामा बालेश्वर दयाल, नैविल मैक्सवेल, डॉ. ईश्वरी प्रसाद, उदयन शर्मा, पु. ल. देशपांडे, डॉ. मस्तराम कपूर, रामशरण जोशी, विजयदेव नारायण साही, शिवप्रसाद सिंह, निर्मल वर्मा, लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, फणीश्वरनाथ रेणु, ओंकार शरद, केशवचंद्र वर्मा, पं. विद्यानिवास मिश्र ने बार-बार लोहिया प्रेरणा का स्मरण किया है। गिरिराज किशोर, ओमप्रकाश दीपक, प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल, नंदनरामा रेड्डी, धीरूभाई सेठ, सुनील इत्यादि। आज भी समय-समय पर अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल जैसे कद्दावर लेखक लोहिया पर लिखते रहते हैं।
भू.पू. प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी के अनुसार– “उनका व्यक्तित्व सचमुच अनूठा था उनका कद छोटा था, किंतु व्यक्तित्व महान था। मैं उनकी गणना चिंतकों में करता हूँ। चिंतक भी मौलिक चिंतक – प्रतिबद्ध समाजवादी थे लेकिन व्यक्ति की स्वाधीनता और गरिमा में अटूट विश्वास था। लोकतंत्र की बलि चढ़ाकर लाये गये समाजवाद के वह विरुद्ध थे, लोकतंत्र और समाजवाद दोनों का मेल बैठाने के पक्ष में थे। समाजवाद में भी सामाजिक न्याय पर उनका विशेष बल था।
लोहिया जी फक्कड़ और मस्तमौला थे। उनमें एक मजबूती थी, जिसका वह दूसरों में भी संचार करते थे। उनहोंने अपने इर्द-गिर्द जवानों की एक टोली खड़ी कर रखी थी। वह व्यक्तियों के पारखी थे, उसका बड़ा कारण था कि वे देशभक्त और प्रामाणिक थे। उन्होंने कट्टरपंथ को पनपने नहीं दिया। हिंदू धर्म में भी कट्टरपंथी के खिलाफ़ थे। लोहिया जी एक असाधारण व्यक्ति थे।”
ऊपर कुछ नजीरें, नये और पुराने अपने-अपने फ़न के माहिर मशहूर नामी- गिरामी लोगों की दी गयी हैं, हालाँकि यह फेहरिस्त बहुत लंबी है।
आज 2021 में दिल्ली सहित भारत की अनेक यूनिवर्सिटियों में लोहिया एक आधुनिक राजनैतिक चिंतक के रूप में पढ़ाया जा रहा है। हर साल अनेकों तालिबे-इल्मों को लोहिया पर रिसर्च करने पर पीएच.डी. की सनद हासिल हो रही है। आज के मौजूदा माहौल में कोई दिन नहीं जाता जब लोहिया पर कोई लेख, टिप्पणी, संस्मरण या उनका कोई लेख न छपा हो। ऐसा लग रहा है कि ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, एक पूरी जमात इस काम में जुटी हुई है। ‘समता मार्ग’ पोर्टल, लोहिया विचार वेदी (केरल) तथा अन्य कई-कई इस प्रकार के मंचों पर लोहिया के बारे में पढ़ने को मिल रहा है। अमेरिका में सौमया ‘लोहिया टुडे डॉट काम’ चला रहे हैं। बिना किसी देशी, विदेशी, सरकारी आर्थिक मदद के लोहिया पर आधारित वैचारिक सामग्री छोटी-छोटी पुस्तिकाओं, मासिक पत्रिकाओं, विशेषांकों, किताबों में छपती रहती है। उत्तर से लेकर धुर दक्षिण तक लोहिया की किताबों का पुन: प्रकाशन चलता रहता है।
लोहिया ऐसा राजनैतिक दार्शनिक है, जिसने मानव जीवन के सभी पक्षों पर मौलिक ढंग से विचार किया है, अगर मैं ग़लत हूँ तो लेखक की नज़र में जो लोहिया से ऊपर दर्जे वाले चिंतक हैं तो उनका नाम गिनवायें।
बुद्धिजीवी, शब्दों का मकड़जाल, उछलकूद जलेबी की तरह पकाने को बड़ी चतुराई समझता है, तर्क और तथ्य जितने नदारद होंगे उतनी ही लेख की भाषा, विरोधाभासों से भरी होगी। इसी लेख में एक सफे पर लेखक के शब्दों में “एक ओर लोहियावादियों के संप्रदाय को लोहिया के बाहर कुछ नज़र नहीं आता तो दूसरी ओर बाकी समाज को लोहिया में कुछ नज़र नहीं आता” उसी पृष्ठ पर लेखक फिर लिखता है ‘मजे की बात यह है कि पिछले दस बीस सालों में बुद्धिजीवी जगत उन अनेक मुद्दों पर सजग हुआ है जिनकी ओर पहली बार लोहिया ने ही ध्यान खींचा था। ‘लोहिया विचार में ऐसे अनेक सूत्र मिलते हैं, जिनकी मदद से इक्कीसवीं सदी के क्रांति धर्म की रचना की जा सकती है। इस लिहाज से लोहिया के विचार अपने समय से आगे थे।”
लोहिया ने कहा था कि ‘लोग मेरी बात सुनेंगे ज़रूर, पर शायद मेरे मरने के बाद। वह अक्षरश: सही सिद्ध हो रहा है। आज राजनीति में जितने भी विमर्शों पर चर्चा है, वे सब लोहिया ने 60-70 वर्ष साल पहले उठाये थे, आज के बुद्धिजीवियों के सारे सेमिनार, सिम्पोजियम लेख, वार्ताएँ, लोहिया की सप्त क्रांति के इर्द-गिर्द इस या उस नाम से चर्चित हो रहे हैं। बिना किसी पार्टी, संगठन के समाजवादी सिद्धांतों, विचारों के प्रचार-प्रसार में लगे समाजवादियों पर लकीर के फकीर के फतवे कसना बड़ा आसान है परंतु तमाम उम्र बिना इधर-उधर झाँके एक विचार दर्शन के पीछे चलना मुश्किल कार्य है। चलताऊ फिकरे कसनेवालों से एक गुजारिश है कि आरोप लगाएं तो उसके साथ-साथ कुछ नजीर भी अगर पेश कर देंगे तो उससे उनकी ही विश्वसनीयता बढ़ेगी।
वाह बहुत सुंदर लेख माला। बधाई