— हिमांशु जोशी —
पहाड़ों पर हो रहे विकास कार्यों और मानव द्वारा प्रकृति के साथ कि गई छेड़छाड़ का नतीजा अब हमारे सामने है, पहाड़ों में आपदाओं का दौर तेज़ हुआ है। बाढ़ से होने वाले नुकसान को कैसे कम किया जाए इसके लिए ठोस योजना बनाने की जरूरत है।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब साल 2019 में ग्रेटा थनबर्ग ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के दौरान विश्व नेताओं को पर्यावरण बिगाड़ने पर कटघरे में खड़ा कर दिया था। एक बच्ची संयुक्त राष्ट्र में हमारे हक के लिए लड़ रही थी और हम चैन की नींद सोये थे।
सोये इसलिए क्योंकि तब खुद पर ज्यादा नहीं बीत रही थी, वैसे भी दुनिया का उसूल है कि जब खुद पर बीतती है तब सच्चाई महसूस होती है।
डाउन टु अर्थ की एक रिपोर्ट बताती है कि पॉट्सडैम यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार हिमालय क्षेत्र की हजारों प्राकृतिक झीलों पर बाढ़ का खतरा मँडरा रहा है। इसके लिए उन्होंने बढ़ते तापमान को जिम्मेदार माना है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसके चलते घाटियों में बहनेवाली नदियों पर भी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है, रिपोर्ट में कहा गया है कि खतरा बढ़ गया है पर पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड के साथ-साथ भारत के कुछ अन्य हिस्सों जैसे ओड़िशा, असम पर नजर डालें तो पता चलेगा कि खतरा बढ़ा नहीं बल्कि हम अब उस खतरे से गुजरने लगे हैं।
उत्तराखंड में आपदा पर आपदा
उत्तराखंड में साल 2013 की भीषण आपदा के बाद इसी साल 7 फरवरी को चमोली में ग्लेशियर टूटने से आपदा आयी और अब अक्टूबर में फिर प्रदेश बाढ़ का कहर झेल रहा है। स्थिति यह है कि बाढ़ आए हफ्ते भर बाद भी उससे हुए नुकसान का आकलन करना भी अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है।
उत्तराखंड के मुक्तेश्वर में 1 मई 1897 से बारिश के आँकड़े दर्ज किये जा रहे हैं। यहाँ अब तक 24 घंटे के दौरान सबसे ज्यादा बारिश 18 सितम्बर 1914 को 254.5 मिमी दर्ज की गयी थी, जबकि इस बार यहाँ 24 घंटे के दौरान 340.8 मिमी बारिश हुई है।
हिमालयी और मैदानी क्षेत्र होने के कारण उत्तराखंडवासी इस बार एक ही रात में एकसाथ अलग-अलग परिस्थितियों से जूझे।
सोचें पहाड़ों में आप एक रात चैन से सोये हुए हैं और खूब सारा कीचड़ लिये तेज बहाव के साथ पानी आपके घर में घुस आपका दम घोंट आपकी जान ले शांत हो जाए, या आप इस डर से रात भर अपने बच्चों को गले लगाये बैठे रहें कि कहीं कोई सैलाब आपके घर न घुस जाए। वहीं मैदानी क्षेत्र में आप रात भर अपने घर के कीमती सामानों को बाढ़ में बहने से रोकने का प्रबंध करते रहें। अक्टूबर में बेमौसम आयी बरसात ने उत्तराखंड वालों का बिल्कुल यही हश्र किया है, इसके शिकार वे पर्यटक भी हुए हैं जो सुकून की तलाश में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में घूमने आए थे।
सोशल मीडिया पर बहुत सी पोस्ट छायी हुई हैं जहाँ पुलिस और सेना के जवान बाढ़ प्रभावित लोगों को बचाने में जुटे हुए हैं, इनमें कुछ तस्वीरों में पुलिस के जवान पहाड़ों में भारी बारिश से किसी के घर में घुसे मलबे के बीच उस घर में रहनेवालों की दबी लाशों को खोज रहे हैं तो कुछ तस्वीरों में पुलिस-सेना के जवान खतरे में फँसे लोगों को तेज बहाव से निकाल रहे हैं।
नदी किनारे बने घर उसमें समा जा रहे हैं तो मैदानी जगह बाढ़ में बाइक, कारों की तैरती तस्वीर भी वायरल हो रही हैं।
बाढ़ पर राजनीति
लोग मुसीबत में फँसे हैं तो बाढ़ पर राजनीति भी कम नहीं हो रही। सोशल मीडिया पर प्रदेश के मुख्यमंत्री का बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में हेलीकॉप्टर से किया दौरा विवाद का विषय बना है तो कहीं सड़क मार्ग से आपदाग्रस्त इलाकों में पहुँचने पर उनकी वाहवाही हो रही है।
सड़क भी है इस मुसीबत की जिम्मेदार
वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए ऑल वेदर रोड पर कार्य शुरू हुआ। इस सड़क से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते सुप्रीम कोर्ट ने एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति (हाई पॉवर कमेटी) गठित की, जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखना ठीक नहीं बताया था और इसको सिर्फ 5.5 मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी। पर प्रकृति की चिंता किसे थी और वैसे भी इससे होनेवाले नुकसान को उन पहाड़ों में रहनेवाले लोग ही झेल रहे हैं।
पहाड़ में सड़क बनाते समय उसके मलबे को नदियों में फेंका जा रहा है।इससे होनेवाले नुकसान पर पर्यावरण के मुद्दों पर सालों से लिख रहे वरिष्ठ पत्रकार विनोद पांडे से बात की गयी। उन्होंने बताया कि पहले पहाड़ों में सड़क ‘कट एंड फिल’ तकनीक से बनती थी। सड़क बनाने के लिए पहाड़ काट सड़क के लिए आधा हिस्सा छोड़ा जाता था और आधे में उसी के मलबे की दीवार दी जाती थी। जेसीबी आने के बाद से इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, पहाड़ काट उसका मलबा सड़क पर कहीं भी बेतरतीब तरीके से फेंक दिया जाता है। वो मलबा नीचे बह रही नदियों पर गिरता है और इससे जल प्रवाह में विघ्न आता है। सड़क बनाते समय पानी की निकासी का ध्यान भी नहीं दिया जाता, जिस वजह से पानी अपना रास्ता खुद बना लेता है। पानी के बहाव की गम्भीरता को कम आँका गया है।
इंडिया वॉटरपोर्टल वेबसाइट पर सड़क काटने और उससे बने खड्डों को पुन: भरने के लिए विभिन्न एजेंसियों द्वारा किये गये सभी कार्यों से संबंधित सूचनाएँ उपलब्ध कराने हेतु माँगे गये सूचना के अधिकार का प्रारूप मिला। शायद ही पहाड़वासियों ने कभी अपने इस अधिकार का प्रयोग पहाड़ों को बेतरतीब चीरने की स्थिति जानने के लिए किया हो।
Please look at the slopes of muck straight into the Ganga. All generated by chardham works. These are pics clicked on 25th and 26th may pic.twitter.com/YOuhahxKwh
— Mallika Bhanot (@MallikaBG) June 3, 2018
अब भारी बारिश की वजह से सड़कें जगह-जगह टूट गयी हैं, गम्भीर बीमारियों से जूझ रहे मरीजों के लिए अस्पताल तक पहुँचने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं या अस्पताल तक पहुँचने में ही उनकी जेब कुतर जा रही है।
जो हुआ सो हुआ
बाढ़ और प्रकृति का तांडव फिलहाल थमा हुआ है पर अब जिस अंतराल पर यह आपदाएं आने लगी हैं उन्हें देख भविष्य में इस तरह की आपदाओं से कम से कम नुकसान हो इसके लिए हमें अभी से कार्य शुरू करने होंगे।
वर्ल्ड मीटरोलॉजिकल आर्गेनाइजेशन और ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप ने मिलकर बाढ़ प्रबंधन प्रोग्राम पर कार्य किया। अमरीकी कम्पनी ने सुनामी जैसी आपदा के वक्त सुरक्षित बचने के किए सुनामी बॉल बनायी तो चीन में स्पंज सिटी की अवधारणा बनी।
‘वर्ल्ड मीटरोलॉजिकल आर्गेनाइजेशन और ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप की रिपार्ट’ के अनुसार पहाड़ों में बाढ़ से होनेवाले नुकसान के मुख्य कारणों में पहाड़ों की ढलान पर वनों की अत्यधिक कटाई पहले नम्बर पर आती है। आज आप पूरे हिमालयी क्षेत्र घूम आइए, सड़क की सनक ने रास्ते के सभी पेड़ों को खत्म कर दिया है। सड़क पर आधे लटके वे पेड़ अपना बदला लेने के लिए हमेशा सड़क पर लटक किसी के ऊपर गिरने का मौका देखते हैं।
स्थानांतरित कृषि जिसमें वृक्षों और वनस्पतियों को जला दिया जाता है फिर उसमें नये बीज बोये जाते हैं इस वजह से भी पहाड़ कमजोर हुए हैं और तेज बहाव में टूट जाते हैं।
अद्रभूमि की कमी और इसके साथ पहाड़ों में जानवरों की अत्यधिक चराई की वजह से भी पहाड़ कमजोर होते जाते हैं।
बाढ़ के बारे में थोड़ा अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि बाढ़ मुख्यतः चार तरीकों से आती है।
फ्लुवियल में अत्यधिक बारिश से या बर्फ गलने से नदी का जलस्तर बढ़ जाता है, उत्तराखंड में इसी तरह की बाढ़ कोहराम मचाती है। अभी आयी बाढ़ में नैनीताल की झील का स्तर इतना बढ़ गया था कि सड़क और झील में अंतर करना मुश्किल हो रहा था।
प्लूवियल बाढ़ में बारिश के पानी की निकासी सुविधा अच्छी न होने की वजह से वह पानी शहर की गलियों में भर जाता है, मुंबई- दिल्ली हो या उत्तराखंड का रुद्रपुर, सब में इस तरह की बाढ़ आती है।
फ्लैश बाढ़ में बाँधों से तेजी से पानी आता है और इस तरह की बाढ़ खतरनाक होती है, कोस्टल बाढ़ का उदाहरण सुनामी है।
रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ प्रबंधन के लिए प्रशासन, नेताओं, गैर- सरकारी संगठनों और भवनों का निर्माण करनेवालों को मिलकर साथ काम करना होगा।
बाढ़ हमेशा एक-सी नहीं होती और उसकी तैयारी भी पहले जैसी नहीं होनी चाहिए। नगरीकरण से यह समस्या बढ़ती ही जाएगी क्योंकि नदी, नालों को अपना रास्ता नहीं मिलेगा और वे बार-बार लौटकर अपने रास्ते पर आएंगे ही।
रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़ के समय सही रास्ता बताने के लिए सड़क पर निशान लगाने चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति में लोग गड्ढों में भी गिर सकते हैं, साथ ही हमें घर भी ऐसे बनाने होंगे जिन पर बाढ़ का असर कम से कम हो।
बाढ़ के असर को कम करने के लिए तीन तरह के घर बनाने का सुझाव दिया गया जिसमें ऐसा घर शामिल है जो उठा हुआ बनाया जाए, दरवाजों-खिड़कियों को बंद कर पानी रोकने वाला घर भी बनाया जा सकता है जिसे ड्राई फ्लड प्रूफिंग कहा गया है।
वेट फ्लड प्रूफिंग नाम के घरों को ऐसा बनाया जाता है जिसमें घर के अंदर पानी आने के बाद भी उसका असर कम से कम हो।
अगर ऐसे ही घर पहाड़ी क्षेत्रों में बनाए जाएं तो कई जानें बचायी जा सकती हैं।
सुनामी जैसी आपदाओं को झेलने के लिए एक अमरीकी कम्पनी ने सुनामी बॉल का निर्माण किया और भारत के असम जैसे बाढ़ग्रस्त इलाकों में यह सुनामी बॉल वरदान साबित हो सकती है, सुनामी बॉल का प्रयोग किया जाना आवश्यक है।
‘द हिन्दू‘ में पिछले साल आयी एक रिपोर्ट में स्पंज सिटी का जिक्र करते हुए लिखा है कि कोच्चि भारत का पहला स्पंज सिटी बन सकता है।
चीन ने जिस तरह से प्राकृतिक ऊर्जा का प्रयोग किया है वह काबिलेतारीफ है और चीन में ही साल 2013 में एक और दुनिया बदलने वाली योजना पर काम शुरू हुआ।
चीनी शोधकर्ता प्रोफेसर कोंगजियान यू ने स्पंज सिटी के बारे में सुझाव दिया था।
इस योजना में खर्चा अधिक है पर इसके लाभ उससे ज्यादा हैं, चीन अपने 16 जिलों में इस जल अवशोषक परियोजना का निर्माण कर रहा है।
इन शहरों में कंक्रीट की जगह बॉयोस्वेल्स का प्रयोग कर जल संरक्षण किया जाएगा।
यह ऐसे शहर होंगे जो वर्षा के पानी को अवशोषित कर पर्यावरणीय रूप से अनुकूल तरीके से उसके पुनः उपयोग को बढ़ावा देंगे और बहता हुआ पानी भी कम हो जाएगा। पानी की कमी को दूर करने के लिए वर्षा जल का सही प्रयोग किया जाएगा।
खर्चा तो बराबर है
समाज को यह समझना होगा कि अगर मनुष्य जाति के अस्तित्व को बचाये रखना है तो प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ करना ठीक नहीं है, प्रकृति को सुरक्षित रखते हुए विकास कार्य करने होंगे। वहीं हमारी सरकार को यह समझना होगा कि आपदा के बाद जितना पैसा मुआवजे और पुनर्निर्माण में लगाया जाता है उतना अगर आपदा प्रबंधन में समय रहते खर्च कर लिया जाए तो जान-माल की होनेवाली हानि से बचा जा सकता है।