रोजगार : सम्प्रभुता का नैतिक दायित्व

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— नंदकिशोर आचार्य —

राज्य विमर्श में सम्प्रभुता एक पवित्र अवधारणा मानी जाती रही है क्योंकि उसके बिना राज्य का अस्तित्व ही संभव नहीं है। सम्प्रभुता ही वह चीज है जो समाज के अन्य प्रकार के संगठनों-संस्थाओं से राज्य को श्रेष्ठतर बनाती और इस प्रकार उसे यह अधिकार देती है कि वह अन्य सभी प्रकार के संगठनों-संस्थाओं को नियमित और नियंत्रित कर सके। जो विचारधाराएँ राज्य को अन्य सामाजिक संस्थाओं से श्रेष्ठ नहीं मानतीं और उसे केवल एक समन्वयक की भूमिका में देखना चाहती हैं, वे भी उसे इतनी शक्ति तो देती ही हैं कि जरूरत पड़ने पर विभिन्न संस्थाओं के बीच द्वन्द्व की स्थिति पैदा होने पर वह एक निर्णायक की भूमिका अदा कर सके यानी अन्ततः उसके ही निर्णय को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है।

यह ठीक है कि अन्तरराष्ट्रीयतावाद के बढ़ते प्रभाव ने राज्य विमर्श में सम्प्रभुता की अवधारणा को कुछ संशोधित किया है और यह माना जाने लगा है कि आधुनिक राज्य अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था और अन्य राज्यों से अलग-थलग नहीं रह सकता है। इसलिए उसकी सम्प्रभुता अबाध नहीं मानी जा सकती। एक राज्य की सम्प्रभुता किसी दूसरे राज्य की सम्प्रभुता के लिए बाधा नहीं बन सकती। इसलिए कुछ अन्तरराष्ट्रीय नियमों और विधियों का पालन प्रत्येक सम्प्रभु राज्य के लिए आवश्यक होगा। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि कोई भी राज्य अपने आंतरिक मामलों में तो सम्प्रभु है, लेकिन अन्तरराष्ट्रीय यानी बाहरी मामलों में उसे सम्प्रभु नहीं माना जा सकता।

राष्ट्रसंघ या अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय जैसी संस्थाओं का अस्तित्व ही इसलिए है कि वे किसी राज्य की सम्प्रभुता को अन्तरराष्ट्रीय मामलों में हावी न होने दें। इसका अर्थ यह था कि राज्य की आन्तरिक सम्प्रभुता तो एक पवित्र सिद्धांत है, लेकिन उसकी बाह्य सम्प्रभुता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी आधार पर यह स्वीकार किया गया कि किसी राज्य के आन्तरिक मामलों में अन्य किसी को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। वहाँ के लोग अपने लिए जैसी राजनीतिक व्यवस्था चाहें, चुन सकते हैं। इसी कारण दुनिया के सभी देश अलग-अलग प्रकार की शासन-प्रणालियाँ अपनाते हैं बल्कि उनके लिए लोकतांत्रिक होना भी आवश्यक नहीं समझा जाता। एक अधिनायकवादी या राजतंत्रीय राज्य की आंतरिक सम्प्रभुता भी उतनी ही पवित्र मानी जाती है जितनी एक लोकतांत्रिक राज्य की।

लेकिन, जो काम अन्तरराष्ट्रीय राजनीति नहीं कर पायी, वह अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था संभव करती लग रही है। अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के चलते राज्य की आंतरिक सम्प्रभुता का सिद्धांत भी अब पवित्र नहीं रह गया है। अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक और व्यापारिक संगठनों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी राज्य की राजनीतिक व्यवस्था कैसी है, लेकिन वह इस बात की इजाजत नहीं देती कि वह अपनी आर्थिक नीतिय़ाँ स्वयं निर्धारित कर सके। किसी भी राज्य की आर्थिक नीतियों को अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अनुकूल होना ही होगा। अन्यथा, अन्तरराष्ट्रीय बाजार में उसके लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि अन्तरराष्ट्रीयतावादी राजनीति किसी राज्य को उसकी आन्तरिक राजनीति के संदर्भ में जो स्वतंत्रता देती थी, वह स्वतंत्रता उसे अन्तरराष्ट्रीय अर्थ-तंत्र आन्तरिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में देने के लिए प्रस्तुत नहीं है। उसकी आन्तरिक सम्प्रभुता आर्थिक मामलों में अबाधित नहीं रह सकती। उसे विश्व व्यापार संगठन, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के निर्देशों के अनुरूप ही अपनी आर्थिक नीतियाँ तय करनी होंगी।

फिलहाल इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को छोड़ भी दें कि इन अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं पर किन पूँजीवादी शक्तियों का वर्चस्व है और उनकी आर्थिक नीतियाँ किन देशों का वास्तविक हित-साधन कर रही हैं, तब भी यह तो स्पष्ट ही है कि यह अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था राज्य की आंतरिक सम्प्रभुता के सिद्धांत को खण्डित करती जा रही है। यदि कोई राज्य अपनी आर्थिक नीतियों को किन्हीं अन्य बाह्य संस्थाओं के निर्देशानुसार तय करने के लिए विवश है, तो यह केवल आर्थिक सम्प्रभुता का सवाल नहीं है। यह उसकी राजनीतिक सम्प्रभुता का भी सवाल है क्योंकि यह राजनीतिक सम्प्रभुता ही है जो उसे आर्थिक नीतियों को तय करने का अधिकार देती है।

दूसरे शब्दों में, अन्तरराष्ट्रीय अर्थ-तंत्र केवल आर्थिक क्षेत्र में ही उसकी आन्तरिक सम्प्रभुता को खण्डित नहीं करता, बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में भी उसपर आघात करता है- उस राजनीतिक सम्प्रभुता पर आघात, जो उसे किसी अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था द्वारा नहीं बल्कि उस राज्य के नागरिकों द्वारा प्रदत्त है। यह विचित्र विडंबना है कि राज्य को सम्प्रभुता मिलती तो है उसके नागरिकों से, लेकिन उसका उपयोग होता है उन कथित अनतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों की इच्छा के अनुसार जिन पर कुछ शक्तिशाली देशों का वर्चस्व है।

लेकिन, इससे भी अधिक विडम्बनापूर्ण बात यह है कि बाह्य संस्थाओं के सम्मुख अपनी सम्प्रभुता को समर्पित कर देनेवाला राज्य अपने नागरिकों पर अपनी सम्प्रभुता बनाये रखने पर अडिग है। यदि सिद्धांत रूप में यह स्वीकार कर लिया जाय कि राज्य की सम्प्रभुता की अवधारणा अब अप्रासंगिक हो गयी है, कि वह कोई पवित्र वस्तु नहीं है तो नागरिकों से उसका सम्मान करने और उसके द्वारा निर्मित कानूनों और नीतियों का पालन करने की अपेक्षा क्यों की जाती है? राज्य को आर्थिक नीतियाँ तय करने के जो अधिकार मिले हुए हैं वे अन्ततः नागरिकों द्वारा ही प्रदत्त हैं और जो नीतियाँ राज्य बनाता है, उनका असर भी अन्ततः नागरिकों के जीवन पर ही पड़ता है। अपनी आर्थिक नीतियों के माध्यम से राज्य जिन प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का दोहन करने की अनुमति देशी-विदेशी पूँजीवाद को देता है, उन पर वास्तविक स्वामित्व तो नागरिकों का ही होता है।

नागरिक राज्य को सम्प्रभुता का अधिकार इसलिए देता है कि वह इन संसाधनों की व्यवस्था इस प्रकार कर सके जिससे सभी का कल्याण संभव हो। बाजार की स्वतंत्रता राज्य की सम्प्रभुता से अधिक नैतिक सिद्धांत नहीं है। यदि बाजार की स्वतंत्रता, चाहे वह बाजार राष्ट्रीय हो या अन्तरराष्ट्रीय, राज्य की सम्प्रभुता पर आघात करती है तो उसे नागरिकों के हितों पर किया गया आघात ही समझा जाना चाहिए और ऐसी स्थिति में राज्य से यह अपेक्षा करना नैतिक रूप से असंगत और न्यायशास्त्रीय स्तर पर अविधिक नहीं माना जाना चाहिए कि वह नागरिकों द्वारा प्रदत्त सम्प्रभुता का इस्तेमाल उसके वास्तविक स्वामियों के विरुद्ध नहीं करेगा।

दरअस्ल, मुक्त बाजार के सिद्धांत के स्वीकार का नैतिक तात्पर्य आर्थिक क्षेत्र में सामाजिक डार्विनवाद के समर्थतम के अस्तित्व के सिद्धांत को लागू करना है। क्या यह सिद्धांत नैतिक कहा जा सकता है? यदि यह नैतिक है तो इसी सिद्धांत को राजनीतिक या सामाजिक क्षेत्र में लागू करना उचित क्यों नहीं होगा? यह नहीं भूलना चाहिए कि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद इसी सिद्धांत के स्वीकार के राजनीतिक आयाम हैं  और नस्ल या जाति की श्रेष्ठता उसका सामाजिक आयाम। उसका धार्मिक आयाम भी स्पष्ट है और तब किसी तरह के आतंकवाद की निन्दा करने का कोई आधार नहीं बचता क्योंकि अन्ततः वह भी शक्ति-संघर्ष ही तो है- सामाजिक डार्विनवाद की शब्दावली में कहें तो अपने को समर्थतम  प्रामाणिक करने का संघर्ष।

वस्तुतः राज्य की सम्प्रभुता की धारणा मूलतः राजनीतिक नहीं, एक नैतिक धारणा है जो इस मान्यता पर आधारित है कि राज्य का अस्तित्व नागरिकों के लिए है। प्रत्येक नागरिक सम्प्रभु है, लेकिन वह अपनी सम्प्रभुता राज्य नामक संगठन को हस्तांतरित करता है ताकि उसकी सम्प्रभुता और अन्य किसी की सम्प्रभुता में द्वन्द्व पैदा न हो और वह एक सामूहिक सम्प्रभुता में रूपांतरित होकर प्रत्येक की सम्प्रभुता के सभी आयामों का पोषण कर सके। यदि राज्य ऐसी आर्थिक नीतियाँ बनाता है जो नागरिक को रोजगार या आर्थिक सुरक्षा से वंचित रखती हैं तो यह नागरिक के साथ धोखा है, उसके द्वारा प्रदत्त सम्प्रभुता का अनैतिक उपयोग है और किसी भी नागरिक से यह अपेक्षा करना अनुचित होगा कि वह अपने साथ हो रहे धोखे में सहयोग करे।

यदि राज्य नागरिकों के साथ नैतिक व्यवहार नहीं करता है तो वह नागरिकों से यह अपेक्षा कैसे रख सकता है कि वे उसके साथ नैतिक व्यवहार करें?आखिर सम्प्रभुता का कोई नैतिक दायित्व भी होता है और जो राज्य उसे नहीं निभाता है, वह शासन करने का नैतिक अधिकार ही खो देता है। दूसरे शब्दों में, जो राज्य नागरिक की सम्प्रभुता के विभिन्न आयामों और मुख्यतः एक व्यक्ति के रूप में उसकी स्वतंत्रता और स्वस्थ जीवन के लिए रोजगार के अधिकार को सुरक्षित नहीं कर सकता, वह विधिक रूप से राज्य कहा जाते हुए भी राज्य होने के नैतिक अधिकार से वंचित हो जाता है। स्मरणीय है कि अन्ततः किसी भी विधि को वास्तविक औचित्य नैतिक मूल्यों से ही मिलता है।

अक्सर यह कहा जाता है कि राज्य की सारी कोशिश सबको स्वतंत्रता और रोजगार उपलब्ध करवाने की ही है- लेकिन इसके लिए धैर्य और कुछ समय तक कष्ट उठाने की माँग की जाती है। यह विचित्र है कि राज्य अपने अधिकार को तो तत्काल लागू करना चाहता है, लेकिन अपने दायित्व की पूर्ति के लिए धैर्य की माँग करता है। क्या नागरिक राज्य से यह कह सकता है कि वह अपने कानूनों को लागू करने में धैर्य का परिचय दे और यदि नागरिक कानून पालन के अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता है तो उसे उसकी विवशता मान कर उसी तरह छोड़ दिया जाय जिस तरह राज्य अपने दायित्व की पूर्ति न कर पाने पर भी अदण्डित छोड़ दिया जाता है? यदि कोई राज्य अपने नागरिकों से तत्काल दायित्व पालन की उम्मीद करता है तो वह स्वयं अपने दायित्व की पूर्ति किसी भविष्य के हवाले कैसे कर सकता है? नागरिक की सम्प्रभुता यानी उसकी स्वतंत्रता के विभिन्न आयामों का पोषण और रोजगार राज्य की सम्प्रभुता के नैतिक दायित्व हैं और यदि कोई राज्य इस दायित्व का तत्काल निर्वहन नहीं करता है तो वह अपने होने का कम-से-कम नैतिक अधिकार खो देता है- फिर इस बात से अधिक फर्क नहीं पड़ता कि उसका औपचारिक स्वरूप लोकतांत्रिक है या निरंकुश, क्योंकि लोकविरोधी तो वह हो ही जाता है। 

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