नेहरू का रचनात्मक राष्ट्रवाद

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— नीरज कुमार —

वाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के एक सुलझे हुए राजमर्मज्ञ थे। नेहरू जी का राजनीति-दर्शन उन जीवंत विचारों में निहित है जो उन्होंने मुख्यतः इतिहास के विवेचन, भारतीय राजनीति के निर्देशन और विश्व राजनीति की समीक्षा के दौरान अपनाये, व्यक्त किये या स्थापित किये। ये विचार इतने सार्थक और महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें नेहरू जी के राजनीति-दर्शन के रूप में प्रस्तुत करना सर्वथा युक्तिसंगत होगा। ये विचार उनकी आत्मकथा के अतिरिक्त उनकी प्रसिद्ध कृतियों ‘विश्व इतिहास की झलक'(1939), ‘भारत की खोज’ (1946), तथा उनके असंख्य लेखों, पत्रों और भाषणों में बिखरे पड़े हैं।

नेहरू एक महान राष्ट्रवादी नेता थे। नेहरू जी का कहना था कि राष्ट्रवाद का रास्ता व्यक्तिगत स्वतंत्रता का रास्ता भी है और आर्थिक समानता का भी। अपने गहन अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि देश में जो भी मूलभूत विकृतियाँ हैं उनके मूल में विकृत अर्थव्यवस्था है। उन्होंने महसूस किया कि भारत के पास एक महान सांस्कृतिक विरासत है इसके बावजूद वह उन्नति के मार्ग पर चलने में असमर्थ रहा है। इसका एक मुख्य कारण उन्होंने यह बताया कि भारत में धर्मान्धता तथा दकियानूसीपन की वजह से कई सामाजिक कुरीतियों का प्रचलन हो गया है जिससे राष्ट्र की प्रगति में बाधा उत्पन्न हो रही है। जीवनदायिनी परंपरा का विनाश और रूढ़िवादी कुरीतियों का प्रचार बराबर होता रहा है। सामंतवाद, जमींदारी प्रथा और धार्मिक स्वार्थो की वजह से भारत उन्नति के मार्ग पर नहीं चल सका है। उन्होंने महसूस किया कि जब तक इन कुरीतियों को समूल विनष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक उन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकेगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण की स्थापना की जाय और भारत के लोगों को यह समझाया जाय कि जब तक आधुनिक विश्व की नयी चेतना से लाभ नहीं उठाया जाएगा तब तक सही अर्थ में समानता नहीं लायी जा सकेगी।

नेहरू जी ने भारतीय राष्ट्रवाद की बहुत युक्तिसंगत व्याख्या दी है | ‘भारत की एकता’ शीर्षक निबंध (1939) के अंतर्गत उन्होंने लिखा है कि भारतीय संस्कृति में अनेक विविधताओं के बावजूद सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में बुनियादी एकता के दर्शन होते हैं। नेहरू जी के राष्ट्रवाद का मूल मन्त्र है- सांस्कृतिक बहुलवाद और संश्लेषण। अपनी विख्यात कृति ‘भारत की खोज’ (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) में उन्होंने लिखा है : “राष्ट्रवाद वस्तुतः अतीत की उपलब्धियों, परंपराओं और अनुभवों की सामूहिक स्मृति है। आज के युग में राष्ट्रवाद की भावना इतनी सुदृढ़ हो गयी है जितनी पहले कभी नहीं थी। जब भी कोई संकट पैदा हुआ है, (हमारा) राष्ट्रवाद फिर से उभरकर सामने आया है, और लोगों ने अपनी पुरानी परंपराओं में आनंद और शक्ति की तलाश की है। वर्तमान युग की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है- अपने खोये हुए अतीत की फिर से खोज।” 1950 में नेहरू जी ने संसद में कहा : “राष्ट्रवाद एक महान और जीवंत शक्ति है। अतः यदि हम अपने देश के लोगों की सहज प्रतिभा और बुनियादी परंपराओं के किसी अंश को छोड़ दें तो हम बहुत कुछ गँवा देंगे; हम निराधार हो जाएंगे।”

परंतु नेहरू राष्ट्रवाद के अंध-समर्थक नहीं थे। अपनी दूसरी महान कृति ‘विश्व इतिहास की झलक’ में उन्होंने राष्ट्रवाद के विकृत रूप के प्रति जोरदार चेतावनी भी दी है : “राष्ट्रवाद अपनी जगह ठीक है, परंतु यह एक अविश्वस्त मित्र और असुरक्षित इतिहासकार है। यह बहुत सारी घटनाओं के प्रति हमारी आँखों पर पट्टी बाँध देता है, और कभी-कभी सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है, खासतौर पर तब जब इसका सरोकार हमारे अपने देश से हो। राष्ट्रवाद के विकास के साथ-साथ ‘मेरा देश, सही या गलत’ का विचार भी पनपा है और कई राष्ट्रों ने ऐसे कारनामे करते हुए गौरव अनुभव किया है कि जो व्यक्तियों के मामले में बुरे और अनैतिक समझे जाते हैं।” इस तरह नेहरू जी रचनात्मक राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे, ध्वंसात्मक राष्ट्रवाद में नहीं। राष्ट्रवाद को आत्म-निर्णय के अधिकार और लोकतंत्रीय प्रक्रिया के सिद्धांत से जोड़ते हुए उन्होंने भारत के लिए संविधान सभा के विचार को बढ़ावा दिया।

नेहरू जी धर्मनिरपेक्षता पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि हम अपने देश को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द बहुत माकूल नहीं लगता। फिर भी, किसी बेहतर के नहीं रहने पर, हमने इसका इस्तेमाल किया है। इसका ठीक ठीक माने क्या है? साफतौर पर इसका माने ऐसा देश नहीं, जहाँ धर्म को महत्व दिया जाता है| इसका माने धर्म तथा विश्वास के मामले में आजादी है, उन लोगों को भी आजादी जिनका कोई धर्म नहीं है। इसका माने है कि सब धर्मों को पूरी छूट है केवल इस प्रतिबन्ध के के साथ कि वे एक दूसरे के साथ या देश के मौलिक विचारों के साथ दखलंदाजी नहीं करें। इसका माने है कि धर्म के दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक समुदाय इस स्थिति को स्वीकार करें। इससे भी अधिक इसका माने है कि धर्म के मामले में बहुसंख्यक समुदाय इसे खूब ठीक से समझें। क्योंकि संख्या तथा अन्य कई कारणों से बहुसंख्यक समुदाय है, उसकी यह जिम्मेदारी है कि वह अपनी स्थिति का ऐसा इस्तेमाल नहीं करे जिससे कि हमारे धर्मनिरपेक्ष आदर्श पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।

5 अगस्त 1954 को डलहौजी से अपने साथियों के नाम पत्र में नेहरू जी लिखते हैं कि मेरे लिए ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का माने शब्दकोश वाला नहीं है। यह सामाजिक और राजनीतिक बराबरी का भाव रखता है। अतः जातीयता से ग्रस्त समाज सही अर्थ में धर्मनिरपेक्ष नहीं है। मैं किसी के विश्वास के साथ दखलंदाजी करना नहीं चाहता, लेकिन ये विश्वास जहां जाकर जातिगत कुनबों में समाप्त हो जाते हैं, तब वे राज्य के सामाजिक ढाँचे पर असर डालते हैं। समानता के आदर्श को प्राप्त करने में वे हमें रोकते हैं जिसे हम अपना लक्ष्य मानने की बात करते हैं। वे राजनैतिक मामलों में दखलंदाजी करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सांप्रदायिकता करती है। सांप्रदायिकता का माने है एक धार्मिक समुदाय का हावी होना। अगर वह समुदाय अल्पसंख्यक है तो यह प्रजातंत्र के सारे विचारों के खिलाफ है। लेकिन अगर वह समुदाय बहुसंख्यक है, तब भी एक धार्मिक समुदाय के रूप में दूसरों पर हावी होना एकदम गैर-प्रजातांत्रिक है।

नेहरू जी का राजनीतिक दर्शन आधुनिक भारत के निर्माण का दर्शन था जिसमें यहाँ की स्वस्थ परंपराओं के पुनरुत्थान के साथ-साथ नए विचारों, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकों को अपनाने की प्रेरणा निहित थी। इसमे विश्व शान्ति और विश्व मानवता के आदर्श निहित थे।

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