— पन्नालाल सुराणा —
अयोध्या एक झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है।
वर्ष 1986 से यह नारा संघ परिवार के लोग ढोल-नगाड़े बजा-बजाकर जनता को सुना रहे हैं। देश में अकाल आए, भूकंप आए, सुनामी आ जाए, संघ परिवार को कोई चिंता नहीं। कोरोना महामारी ने लाख-दो लाख लोगों की जान ले ली, बारह करोड़ लोग रोजगार खो बैठे, इससे भी संघ परिवार को कोई लेना-देना नहीं है। बाबरी मस्जिद गिराना, राम मंदिर बनाना, ज्ञानवापी मस्जिद को ध्वस्त करने की तैयारी करना, क्या इसी सब से हिंदुओं का कल्याण होगा?
8 अप्रैल, 2021 को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग को वाराणसी के जिला न्यायालय ने आदेश दिया कि ज्ञानवापी मस्जिद जहां स्थित है, उस जमीन पर पहले कोई मंदिर था क्या, उसकी लंबाई-चौड़ाई क्या थी, मस्जिद बनाने के लिए कौन-सा सामान (यानी किसी मंदिर के पत्थर आदि) इस्तेमाल किया गया, इस सब की जांच-पड़ताल करे। अपने को ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर का स्वयंभू पड़ोसी बतानेवाले एडवोकेट विजयशंकर रस्तोगी की याचिका पर अदालत ने यह फैसला दिया। याचिकाकर्ता की दलील थी कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश की संसद द्वारा बनाया गया कानून (प्लेसेस ऑफ वर्शिप, स्पेशल प्रोविजन ऐक्ट) इस मामले में लागू नहीं होता, और ताज्जुब की बात है कि न्यायाधीश ने संबंधित कानून पर बगैर गौर किए यह दलील स्वीकार कर ली। न्यायाधीश महोदय ने यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि उक्त कानून में इस दलील के लिए गुंजाइश है या नहीं।
ज्ञानवापी मस्जिद में पूजा करने की इजाजत दी जाय ऐसी याचिका सन 1991 में रस्तोगीजी ने दाखिल की थी। उनका कहना था कि महाराजा विक्रमादित्य ने 2050 साल पहले काशी विश्वेश्वर मंदिर का निर्माण कराया था। 1664 में बादशाह औरंगजेब ने उसे ध्वस्त कर वहां मस्जिद का निर्माण कराया। 1998 में इंतजामिया मस्जिद समिति ने निवेदन किया था कि 1992 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप ऐक्ट के अनुसार मंदिर-मस्जिद विवाद में अदालत दखल नहीं दे सकती। इसपर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने स्थगन आदेश दिया था। 2020 की फरवरी में याचिकाकर्ता रस्तोगी ने अर्जी दी कि उच्च न्यायालय ने स्थगन की कालावधि बढ़ाई नहीं, लिहाजा अब निचली अदालत याचिका पर फैसला दे सकती है। और इस दलील को मानकर जिला अदालत ने उक्त फैसला सुना दिया।
यह सच है कि 1664 में बादशाह औरंगजेब के साथ कई राजा अपने परिवार समेत काशी दर्शन करने काफिले में शामिल हुए थे। काफिला आगे बढ़ा तो ध्यान में आया कि कच्छ रानी पीछे छूट गई हैं। उन्हें ढूंढ़ने गए सैनिकों को मंदिर के तलघर में रानी का शव छिन्न-भिन्न अवस्था में दिखाई दिया। जांच करने पर पता चला कि किसी पुजारी ने रानी को तलघर में ले जाकर उनके साथ दुष्कर्म करने के बाद कत्ल कर दिया था। बादशाह ने उस पुजारी को तो सजा दी ही, मंदिर का वह हिस्सा नष्ट कर दिया था।
अब सोचने की बात यह है कि इतिहास में इस तरह की जो वारदातें हुई हैं उनका बदला लेते रहना उचित है क्या? इतिहास बताता है कि राजा पुश्यमित्र शुंग ने कई बौद्ध स्तूप नष्ट कर दिए थे। इधर पेशवा के एक सरदार ने विजापुर जिला स्थित लिंगायत संप्रदाय का शृंगेली मठ नष्ट कर दिया था। जिसे अपना राजनीतिक दुश्मन माना उसके धार्मिक स्थलों को नष्ट करना उस जमाने का सामरिक अथवा राजनीतिक तरीका था। इस अवस्था को पार करके हम यानी पूरी दुनिया के विविध धर्मों के लोग आपस में भाईचारा बनाने की कोशिश करें ताकि जनसाधारण को अमन-चैन से गुजर-बसर करना संभव हो।
1992 में संसद ने इसी मकसद से उक्त कानून बनाया था, जिस पर भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी आदि ने गंभीरतापूर्वक सहमति दर्ज कराई थी। अब संघ परिवार उसे भुलाकर सामंतवादी राजनीति का रास्ता नापने पर क्यों तुला हुआ है? जनसाधारण की रोजमर्रा की समस्याएं हल करने के रास्ते से लोगों को खासकर युवाओं को भटकाने के लिए संघ परिवार इस तरह के कारनामे कर रहा है। हमें चाहिए कि ऐसे मामलों को नोट कर लें लेकिन उनमें लिप्त न होकर जो जनतांत्रिक समाजवाद का, शांतिमय संघर्ष का तथा जनहितकारी रचना का काम है उस पर ही अपना ध्यान तथा शक्ति केंद्रित करें।