— राममनोहर लोहिया —
इतना बताने के बाद, मुझे आत्मा, परमात्मा या वैदिक धर्म, हिंदू धर्म पर, इन सब चीजों से जिसका वास्ता नहीं है उस हिसाब से बता रहा हूँ। लेकिन एक दृष्टि से बता रहा हूँ। वैदिक धर्म में जो कर्मकाण्ड का हिस्सा है, उसके संबंध में मुझे आपसे सिर्फ एक बात कहनी है। सिर्फ ऐसा न समझना कि हिंदू धर्म और वैदिक धर्म में ऐसा है, यह ईसाइयों में भी आप पाओगे, मुसलमानों में भी पाओगे, कम या ज्यादा हो सकता है, हिंदुओं में यह चीज ज्यादा हो गयी कि हर एक चीज को पवित्र बनाने की कोशिश करो। शादी हो तो उसे पवित्र बनाओ। उसके लिए एक लंबा-चौड़ा सिलसिला करो, कुछ पानी के छींटे डालो, कुछ रोली चढ़ाओ, कुछ अक्षत चढ़ाओ, कुछ टीका करो। बच्चा पैदा हो तो उस प्रसंग को पवित्र बनाओ। मकान बनाना हो तो उसको पवित्र बनाओ। मैं आजकल कुछ मुहल्लों में मकान बनते हुए देखता हूँ। अभी कुछ दिनों पहले मैं पूना में था और उस मुहल्ले में कई मकान बन रहे थे। हो सकता है नया-नया पैसा हुआ हो, बना रहे थे, खुश थे। मैंने देखा जैसे ही मकान पूरा होने के नजदीक आता है वे उसके ऊपर बंदनवार वगैरह लगाते हैं, फिर कई तरह के मंत्र वगैरह होते हैं, वही छींटा मार कर, मंत्र मार कर पवित्र बनाने की कोशिश, चाहे शादी हो, चाहे बच्चा पैदा हो, चाहे मौत हो, चाहे मकान बने। यहाँ तक कि हिंदुओं में तो हर मौके पर छोटा, बड़ा, मामूली एक टीका लगा देते हैं। मैं खुद तो इन चीजों से अलग रहा हूँ, क्योंकि वैसे प्रसंग नहीं आये। लेकिन ये सब देखता तो हूँ, आँखें तो खुली हैं। कभी किसी के घर में रहता हूँ और कहीं किसी जगह जाना हुआ तो कोई औरत हुई तो एक टीका देती है। मैंने इसके ऊपर सोचा। आखिर यह सब क्या चीज है? इसके पीछे मनुष्य की वह इच्छा है, सार्वभौमिक इच्छा है, जो करो उसको पवित्र बना कर करो। यहाँ तक कि जब लोग खाने बैठते हैं, तो कई इलाकों में तो बहुत सारे लोग और सभी इलाकों में कुछ लोग थाली के चारों तरफ दो-चार छींटे डाल देते हैं, घेरा मार देते हैं। चीज पवित्र हो जाती है या फिर खाना खाने के बाद उस थाली को ही नमस्कार करने लग जाते हैं, हाथ जोड़ करके, शायद अन्न महात्मा प्रसन्न हो जाएँ।
पवित्र बनाने की कोशिश, यह भावना, कर्मकाण्ड की यह भावना तो अच्छी है। शायद इसके कुछ अच्छे नतीजे भी निकलते हों। जहाँ तक मेरा अपना संबंध है, इसके बिना भी अभी तक की जिन्दगी तो मैंने गुजार दी, और आगे भी इसके बिना गुजार देने का इरादा है, क्योंकि मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं हो रही है। इसके बिना भी, मैं समझता हूँ, कोई बहुत अपवित्र आदमी नहीं हूँ, बिना रोली के, बिना छींटे-छाँटे के, बिना नमस्कार किये हुए। मंदिर में जाने की कभी तबीयत होती है, खास तौर से पुराने मंदिर, जहाँ अब पूजा खतम हो गयी है। नये मंदिरों में भी जाने की इच्छा होती है, दक्षिण में या उत्तर मे भी शिव के या कृष्ण के द्वारिका के। जहाँ कहीं कोई मूर्ति देखने में जरा मजा आता है, उस हवा की सुंदरता का मन पर प्रभाव पड़ता है, न कि पूजा की पवित्रता या धर्म का। यद्यपि मेरे लिए इस कर्मकाण्ड की पवित्रता का कोई खास मतलब नहीं, और मैं खुद अपने जीवन में इसको नहीं समझ पाया, लेकिन दिमाग से जब समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि शायद जीवन के हर एक अंग को कुछ पवित्र बनाने की कोशिश से ही यह कर्मकाण्ड निकला है। यह तो मैंने अच्छाई की बात कही।
उसके साथ-साथ जो बुराई आ गयी है, उसको भी देख लेना, क्योंकि दोनों तरफ की बात देखोगे तो मामला ठीक होगा। अगर ये कर्मकाण्ड बिलकुल रसम बन जाता है जैसा कि आज हिंदुस्तान में बन गया है, और बजाय इसके कि वह हमारे कर्मों को सचमुच पवित्र बनाये, कर्म तो जैसे के तैसे चलते रहते हैं, रसम के तौर पर छींटा मार देते हैं या टीका निकाल देते हैं, तब जीवन बड़ा ही भयंकर बन गया है, आज भी क्योंकि हमेशा इस कर्मकाण्ड के अंदर भय रहता है कि वह मुर्दा रीति-रिवाज, रसम बन कर जीवन को भयंकर बना डाले। हमेशा यह खतरा रहता है, हर जमाने में रहा था। हिंदुस्तान के अच्छे से अच्छे, बढ़िया से बढ़िया जमाने में भी जब कि बहुत अच्छा राज चल रहा होगा, बहुत बढ़िया धर्म चल रहा होगा, कर्मकाण्ड के द्वारा हम जीवन को साफ पवित्र बनाने की कोशिश करते थे, तब भी इस बेमतलब, मुर्दा-रसम, रीति-रिवाज का खतरा रहा होगा।
(जारी)