यह सच है कि किसी भी बड़े आन्दोलन की तरह 1974 और 1975 के बीच के 12 महीनों में सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की चुनौतियाँ लगातार बदलती रहीं। इसका आह्वान 5 जून, ’74 को हुआ और यह 26 जून को आपातकाल के अंतर्गत जेपी समेत सभी प्रमुख आन्दोलनकारियों की देशव्यापी गिरफ्तारी तक चार चरणों में विकसित हुआ: 1. पृष्ठभूमि निर्माण (जून, 1969 में मुशहरी प्रवेश से दिसम्बर, ’73 के राष्ट्रीय आवाहन तक), 2. गुजरात-बिहार का असंतोष विस्फोट (दिसम्बर,’73 से 5 जून, ’74), 3. राजसत्ता से आमने-सामने (5 जून,’74 से 6 मार्च,’75), और 4. ‘गद्दी छोडो कि जनता आती है!’(6 मार्च, ‘75 से 25 जून,’75)।
इसके प्रणेता जयप्रकाश नारायण एक नि:स्वार्थ राष्ट्रनिर्माता होने के साथ ही अनुभवी आन्दोलन नायक और समाजवैज्ञानिक शोधकर्ता भी थे। इसलिए उन्होंने जनवरी, ‘74 और जून, ‘75 के बीच के छात्र-युवा आन्दोलन और जन प्रतिरोध के हर पहलू की लगातार समीक्षा की और अपने सहकर्मियों को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया। वस्तुत: इस प्रक्रिया में जेपी के साथ सहमना व्यक्तियों का एक विचारशील समूह लगातार शामिल था।
यह जेपी का व्यक्तिगत अभियान नहीं था। 1974-’77 के घटनाक्रम को ‘जेपी आन्दोलन’ कहना अर्धसत्य होगा। क्योंकि देश-काल-पात्र के समाजवैज्ञानिक मापदंड के अनुसार इसे ‘बिहार आन्दोलन’ के रूप में देखना चाहिए और इसके 5 जून,’74 से 25 जून, ’75 के कालखंड को ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ कहना उचित होगा। इस आन्दोलन में 8 अप्रैल, ’74 से तरुण शांति सेना और बिहार सर्वोदय मंडल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इसलिए इसका (क) प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी शक्तियों की टक्कर, (ख) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और विद्यार्थी परिषद द्वारा संचालित, या (ग) इंदिरा गांधी–जेपी–विनोबा के मतभेदों के त्रिकोण के रूप में विश्लेषण पूरी तरह से दोषपूर्ण है।
इस आन्दोलन ने स्वराज के बाद से हुए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों पर प्रश्नचिह्न खड़े किये थे। यह कुछ बड़े सवालों के उत्तर की तलाश की खुली प्रक्रिया थी। इसमें बिहार आन्दोलन के अंतर्गत हुई बहसों और आलोचनाओं का बुनियादी महत्त्व था। राजनीतिक दलों से जुड़े विद्यार्थी-युवा संगठनों की मांगें, विभिन्न दलों की ओर से प्रकाशित वक्तव्य और पर्चे, सर्वसेवा संघ के समागम (9-12 जुलाई,’74, वर्धा; 6-8 दिसम्बर, ’74, गाजीपुर; 12-14 मार्च,’75, पवनार), छात्र-युवा सम्मेलन, आन्दोलन कार्यकर्ता शिविर, राजनीतिक दलों से संवाद, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों से विचार-विमर्श और ‘एवरीमैन्स’, ‘पीपुल्स एक्शन’ और ‘प्रजानीति’ जैसे प्रकाशन इस आत्मसमीक्षा के मुख्य माध्यम थे।
आन्दोलन समीक्षा के मुख्य आयाम
इस आत्म-समीक्षा प्रक्रिया के उदाहरण के रूप में जेपी के कुछ निकट सहयोगियों के द्वारा प्रस्तुत मुख्य बिन्दुओं को रखा जाना अप्रासंगिक नहीं होगा। बिहार आन्दोलन के चरित्र के बारे में सबसे ज्यादा बहस का एक ही मुद्दा था – यह आन्दोलन किसका है? इस बारे में सर्वोदय चिंतक धीरेन्द्र मजूमदार ने दिसम्बर,’74 के ‘पीपुल्स एक्शन’ में लिखा कि बिहार आन्दोलन एक जन-आन्दोलन है लेकिन यह जेपी द्वारा नहीं शुरू कराया गया था। वह इसे गाँधी-विनोबा के ग्राम-स्वराज के क्रांतिकारी आदर्श से जोड़ने की कोशिश में हैं। उनको भरोसा है कि इस आन्दोलन में उनका जुड़ना इसमें मदद करेगा और देश में क्रांति का सपना साकार हो सकता है। लेकिन क्रांतिकारियों के बीच मतभेदों से क्रांतियाँ विफल हो जाया करती हैं। वैसे भी मौजूदा आन्दोलन प्रतिक्रियावादी शक्तियों की शरारतों से दिशाहीन होने के कगार पर है। इसलिए विनोबा और जेपी के बीच दीवार नहीं खड़ी करनी चाहिए।
बिहार आन्दोलन की रणनीति लगातार चर्चा का विषय बनी रही– क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? आचार्य विनोबा भावे की मान्यता थी कि सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए जन जागरण और शांतिपूर्ण अभियान की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु शासन से संघर्ष की बजाय संवाद का मार्ग जरूरी है। गांधी स्मारक निधि के सचिव देवेन्द्र कुमार के अनुसार बिहार में सर्वोदय के कार्यकर्ताओं का जन-प्रतिनिधियों से इस्तीफा माँगने के अभियान से जुड़ना उचित है। लेकिन बिहार आन्दोलन शासक दल और विपक्षी दलों के बीच खुली टकराहट बनता जा रहा है। इसमें सर्वोदय कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी उन्हें तात्कालिक रूप से विपक्षी दलों का सहयोगी बना रही है।
इस आन्दोलन और राजनीतिक दलों के बनते-बिगड़ते समीकरणों पर सबकी बराबर निगाह थी– इस आन्दोलन का राजनीतिक व्यवस्था और विभिन्न दलों से क्या रिश्ता है? गाँधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव राधाकृष्ण ने सर्वोदय पत्रिका ‘पीपुल्स एक्शन’ के जनवरी,’75 के नववर्ष अंक में लिखा कि 1975 एक संकट का वर्ष होने जा रहा है क्योंकि राजनीतिज्ञों और गान्धीमार्गियों के बीच राजनीति के क्षेत्र में खुली टकराहट के आसार बढ़ रहे हैं। गांधीवादियों की लोकशक्ति (‘पीपुल्स पावर’) और सर्वानुमति (‘कन्सेंसस’) के पक्ष में जन आन्दोलनों से बढ़ता सहयोग लोगों पर हुकूमत करने में जुटे राजनीतिज्ञों को पसंद नहीं आएगा। लोकशक्ति का आग्रह नेताओं के वर्चस्व के प्रतिकूल साबित हो रहा है।
सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की प्राथमिकता– गाँव या देश? यह भी एक यक्ष प्रश्न जैसा था कि बिहार आन्दोलन की क्या प्राथमिकता होनी चाहिए– गाँवों की ओर चलें या देश भर को जोड़ें या दोनों में संतुलन रखा जाना चाहिए? बिहार आन्दोलन के शुरू के 10 महीनों का समग्र विश्लेषण करते हुए समाजवादी चिंतक और जेपी के विश्वासपात्र ओमप्रकाश दीपक ने लिखा (एवरीमैन्स; 5 फरवरी, ’75) कि बिहार आन्दोलन ने समर्थकों और विरोधियों के रूप में एक बड़ा राजनीतिक विभाजन उत्पन्न कर दिया है- या तो ऐसा राजनीतिक आन्दोलन माना जा रहा है जो कांग्रेस की सरकारों को हटाने के इरादे से चलाया जा रहा है या ऐसा अराजनीतिक आन्दोलन है जो परिस्थितियों के दबाव में राजनीति की ओर मुड़ गया है। यह दोनों ही चित्रण अवास्तविक हैं। वस्तुत: इस आन्दोलन की दो विशिष्टताएँ हैं– एक तो छात्र-युवा इसके अगुवा हैं जिनका लक्ष्य युवाशक्ति और लोकशक्ति का संगम है। दूसरे, यह राजनीतिक व्यवस्था की ओर उन्मुख एक क्रांतिकारी आन्दोलन है जिसकी मात्र सरकार-परिवर्तन में दिलचस्पी नहीं है।
दीपक जी ने ध्यान दिलाया कि यह राजनीति में काले धन की बजाय आम लोगों की सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहता है और इस आन्दोलन ने प्रतिरोधक होने का चरण पूरा कर लिया है। यह कार्यकर्ताओं का एक प्रतिबद्ध समूह बनाने में भी सफल हो चुका है। इसलिए प्रशासन और आन्दोलन में गतिरोध होने पर संघर्ष समितियों का ही वर्चस्व रहता है। यह समितियाँ प्रखंड स्तर पर सरकारी पंचायतों के विकल्प के रूप में स्थापित होने लगी हैं। लेकिन अब बिहार आन्दोलन का अन्य प्रदेशों में फैलाव होना अपरिहार्य है। फिर भी इसके जन आधार की क्रांतिकारिता में कमी आने की आशंका और अपने स्वास्थ्य के कारण जेपी भी अन्य प्रदेशों में जाने के लिए तैयार नहीं हैं।
दीपक जी ने इंगित किया कि बिहार और अन्य राज्यों में विरोधी दलों की इस आन्दोलन के जरिये सिर्फ सरकारें हटाने में दिलचस्पी है जबकि विद्यार्थी और युवा ज्यादा बड़े सवालों पर आंदोलन चाहते हैं। दूसरे, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस आन्दोलन की सबसे प्रबल विरोधी बनी रहेगी। तीसरे, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आचार्य विनोबा से निरंतर संम्पर्क में रहना भी सर्वोदय कार्यकर्ताओं को भी भ्रमित कर सकता है। चौथे, जेपी के समर्थकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्य समर्थकों से भिन्न, ऐसा संगठन है जो एक ऐसे छोटे से समूह द्वारा नियंत्रित है जिसकी मंत्रणाएँ गोपनीय होती हैं। लेकिन इसकी स्पष्ट संभावना है कि शीघ्र ही जेपी द्वारा प्रेरित युवा मंच (छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी) एक ऐसी नयी राजनीतिक शक्ति के रूप में विकसित हो जाएगा जो मौजूदा राजनीति की कमियों को दूर कर सकेगा। इसके प्रभाव से जन-संघर्ष में जुटे अधिकांश व्यक्ति अपनी दुहरी वफादारी की बजाय सिर्फ संघर्ष के लिए वचनबद्ध होंगे।
सर्वोदय परिवार के विरुद्ध सरकार का साम-दाम-दंड-भेद
यहाँ इसकी जानकारी रखनी चाहिए कि देश की दुर्दशा के समाधान के लिए जेपी की पहल को निरर्थक बनाने के लिए इंदिरा गाँधी सरकार ने जयप्रकाश नारायण के मूल आधार अर्थात सर्व सेवा संघ को कमजोर करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के सभी उपाय किये। बरसों से भूदान और सर्वोदय के बारे में उदासीनता दिखानेवाली सरकार के प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय मंत्रिगण, कुछ राज्यपाल, कई मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेतागण कुल मिलाकर जनवरी, ’74 और मार्च, ’77 के 27 महीनों के बीच 26 बार आचार्य विनोबा भावे से मिलने आये। क्यों?
गुजरात-बिहार आन्दोलन की अवधि में संवाद बनाये रखने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी आचार्य विनोबा से विचार-विमर्श के लिए स्वयं पांच बार पवनार आश्रम गयीं – 4 जनवरी और 8 मार्च,’74; 10 जनवरी और 7 सितम्बर, ’75; और 24 फरवरी,’76। आपातकाल की समाप्ति और जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद भी तीन बार गयीं– 24 से 26 जुलाई, ’77; 23-24 जनवरी, 78 और 3 सितम्बर, ’79। 3 सितम्बर, ’79 की भेंट में संजय गांधी भी उनके साथ थे। विनोबा–इंदिरा गांधी की मुलाकातों में प्राय: निर्मला देशपांडे भी उपस्थित रहती थीं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल (23 मार्च, ’74; 3 जून,’76 फोन सम्पर्क), ओड़िशा की मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी (8 अप्रैल, ’74; 25 दिसम्बर, ’75; 14 जून,’76), श्यामाचरण शुक्ल (12 मई, ’74), बिहार कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी (4 जुलाई, ’74; 3 जून, 27 जुलाई, 4 नवम्बर, और 14 नवम्बर, ’76 ), केन्द्रीय मंत्री राजबहादुर (16 जुलाई, ’74), सांसद वसंत साठे (6 जुलाई, ’75; 5 जून, 28 जुलाई, और 14 फरवरी,’76), कांग्रेस महामन्त्री पूरबी मुखर्जी (25 दिसम्बर, ’75), महाराष्ट्र के कृषि उपमंत्री अलीहसन मामदानी (10 मई, ’76), केन्द्रीय मंत्री बूटा सिंह (मई, ’76), महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण (17 मई, ’76), पूर्व केन्द्रीय शिक्षामंत्री डा. कालूलाल श्रीमाली (18 जून, ’76) और तमिलनाडु के राज्यपाल व राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिया (8 व 23 अगस्त,’76) ने आचार्य विनोबा से मुलाक़ात की। इनमें से सीताराम केसरी तो 5 बार और वसंत साठे 4 बार मिलने पहुँचे थे। इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च नेतृत्व भी 14 अगस्त, ’76 को पवनार आया। इसमें श्रीपाद अमृत डांगे, राजेश्वर राव और भूपेश गुप्त शामिल थे।
इनकी तुलना में जेपी और सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन से जुड़े लोगों की आचार्य विनोबा भावे से कम मुलाकातें रहीं। इसमें भी 26 जून, ’75 से पहले की मुलाकातों में इंदिरा सरकार की दिशा, बढ़ता जन-असंतोष, गुजरात की राजनीति और बिहार आन्दोलन ही मुख्य सरोकार रहे। 26 जून,’75 से 23 मार्च,’77 की मुलाकातों में इमरजेंसी राज से जुड़े सवाल ही विचार-विमर्श का विषय रहे। इन मिलनेवालों में सर्वसेवा संघ के सिद्धराज, ठाकुरदास बंग, नारायण देसाई, मनमोहन चौधरी, राममूर्ति, रामचंद्रन, जगन्नाथन, बाबूराव चन्दावर, अरुण भट्ट, कांति शाह, चुनीभाई वैद्य, और कुमार शुभमूर्ति से महत्त्वपूर्ण चर्चाएँ हुईं थीं। देवेन्द्र कुमार, गोकुलभाई और राधाकृष्ण बजाज तथा आचार्यकुल के श्रीमन्नारायण भी बराबर मिलनेवालों में से थे। समाजवादियों में से तीन बार एसएम जोशी, दो बार नारायण गणेश गोरे और एक बार हरिविष्णु कामत आये। आरएसएस और जनसंघ से बालासाहब देवरस और लालकृष्ण आडवाणी और कांग्रेस के सुशीला नायर और कृष्णकांत ने भी मुलाक़ात की।
सर्व सेवा संघ को प्रभावित करने के लिए सरकारी पदों और पैसे का भी खुला इस्तेमाल किया गया। राष्ट्रीय स्तर पर एक नया खादी ग्रामोद्योग आयोग गठित हुआ। कई राज्यों में सरकारी उदासीनता से निष्क्रिय हो चुके भूदान बोर्ड सक्रिय कर दिये गये। नए अनुदान दिये गये। भूदान में मिली जमीन के वितरण में गति पैदा की गयी। 18 अप्रैल,’75 से 18 अप्रैल,’76 तक पूरे वर्ष भर भूदान आन्दोलन की रजत जयंती मनाने में बिना माँगे सरकारी मदद दी गयी।
राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद ने 18 अप्रैल, ’75 को हैदराबाद में हुए एक विशेष आयोजन में भूदान और सर्वोदय की खुली प्रशंसा की। प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने भी इस अवसर पर देश के नाम सन्देश जारी किया कि भूदान टकराहट और हिंसा का निषेध करता है। आज हिंसा की प्रवृत्तियों के बारे में उदासीनता से हमारी सस्थाओं और समाज-संचालन व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा है। दूसरी तरफ, जेपी से जुड़े कार्यकर्ताओं ने पटना में भूदान आन्दोलन की रजत जयंती का आयोजन किया। स्वयं जेपी ने इस मौके पर सर्वोदय नेता जगन्नाथन और उनकी पत्नी कृष्णाअम्मल द्वारा बोधगया के महंत के खिलाफ भूमि सत्याग्रह की शुरुआत करायी।
(जारी)