— राममनोहर लोहिया —
अब रह गया दूसरा अंग जो ब्रह्मज्ञान वाला, कर्मकाण्ड के अलावा। आत्मा, परमात्मा पर मैं क्या कहूँ, क्योंकि परमात्मा को तो मैंने कभी देखा नहीं। आप कहोगे, क्या सभी चीजों को देखते हो तभी मानते हो? बिलकुल सही बात है। यह तो कहने का एक ढंग था। बिना देखे हुए भी अगर मुझे परमात्मा की जरूरत अभी तक महसूस हुई होती तो बिना देखे हुए भी मैं उसे मान लेता। लोग कहते हैं कि जब बहुत तकलीफ पाओगे, बूढ़े हो जाओगे, हाथ-पैर शिथिल हो जाएँगे तब मानोगे परमात्मा को, तो मेरा जवाब होता है कि तब तो फिर बात साफ साबित हो जाती है कि आदमी जब खत्म होता है तब परमात्मा को मानता है और सुख, मजबूती और ताकत की हालत में परमात्मा को नहीं मानता। यह तर्क मुझे एक बार अमरीका में भी कुछ समाजवादियों ने दिया था। मिलवाउकी वहाँ एक शहर है। अमरीका में तो समाजवादी नहीं हैं क्योंकि वहाँ तो करीब-करीब सभी लखपति हैं, बहुत सारे करोड़पति हैं, वहाँ समाजवादी बहुत कम हैं, लेकिन मिलवाउकी एक शहर है जिसकी नगरपालिका समाजवादी है। उन लोगों ने मुझे खास तौर से अतिथि बनाकर बुलाया था। हवाई अड्डे पर जो लोग स्वागत करने आये थे, उन्होंने रोना शुरू किया कि अमरीका के लोग बड़े वाहियात हैं, इतना खाते-पीते हैं, इतना सुखी हैं कि समाजवाद बिलकुल उनकी समझ में नहीं आता, समाजवाद की बिलकुल चर्चा नहीं करते, जब ये लोग बेकार बनेंगे, जब इनको दुख समझ आएगा, जब ये सड़ेंगे, तब समाजवाद समझेंगे। मुझे हँसी आ गयी। अगर परमात्मा है तो सुख में भी उतना ही सक्रिय और जोरदार होना चाहिए जितना दुख में। जो सुख में नहीं आ रहा है और दुख में आएगा तो मेरे जैसा आदमी कह देगा, इसमें क्या बड़ी भारी बात है, कमजोर हो गया तब मेरे दिमाग में घुसा।
लेकिन फिर भी इतना मैं कहूँगा कि जितना मजा मुझे उपनिषद के दर्शन में आया, उतना शायद, या ऐसा कहूँ, उससे ज्यादा और कहीं नहीं आया। उपनिषद वेदों का एक निचोड़ है, पूरा निचोड़ नहीं। उपनिषद में दर्शन को आप संगीत के रूप मे पाएँगे। सारी दुनिया में दर्शन गद्य में है। पुराने जमाने में कहीं-कहीं कुछ कविता करने की कोशिश की गयी जैसे रोम, इटली वगैरह में, लेकिन वह दर्शन नहीं, वह ज्यादातर नीतिशास्त्र है। केवल हिंदुस्तान में दर्शन संगीत के रूप में कहा गया। जब दर्शन और संगीत का जोड़ हो जाए तो मजा ही आएगा। मैं आपको दो पूरे श्लोक तो नहीं सुनाऊँगा, क्योंकि पूरे तो इस वक्त याद भी न आएँगे। ‘अग्निर्ययेको भुवनं प्रविष्टो’ और फिर उसके बाद है: ‘रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।’
अग्नि, वायु, इसी तरह से दो-तीन भौतिक पदार्थों को लेकर बीच में और बहुत से आते हैं। अर्थ है कि अग्नि एक है लेकिन वह संसार में जब घुसती है, प्रविष्ट होती है, तब उसके नाना रूप हो जाया करते हैं। उसी तरह से एक आत्मा है लेकिन जब प्राणियों के बीच आती है तो उसके नाना रूप हो जाते हैं। जैसे अग्नि है, जैसे वायु है, उसी तरह से आत्मा है। इन श्लोकों को अगर मन में गुनगुनाओ या जोर से भी सुनो तो मजा तो मिलता ही है और फिर ब्रह्मज्ञान का वह स्वरूप आपके मन के सामने आता है जिसमें आदमी अपनी सीमित करनेवाली चमड़ी के कुछ बाहर निकल कर बाकी सबसे अपनापन अनुभव करने लगता है। चमड़ी हमारी सीमा है। जैसे देश की सीमा होती है वैसे हमारी सीमा चमड़ी है। इसी के अंदर हम हैं। इसी के अंदर न केवल शरीर है, बल्कि इसके साथ-साथ हमारा मन जुड़ा हुआ है और नतीजा यह होता है कि अपना घर, अपना बाप, अपनी बीवी, अपने बच्चे, यह सब अपनापन इसी चमड़ी के अंदर रहते हुए आ जाया करता है।
इस संबंध में एक छोटी-सी-बात कह दूँ। कृष्ण एक बड़ा अद्भुत पुरुष था, अद्भुत जीव था। उसकी सभी चीजें दो या दो से ज्यादा थीं। दो नाम हैं कृष्ण के। जरा देखना, चमड़ी के बाहर निकलने की यह कैसी कोशिश है। यहाँ तक कि आज दुनिया, जो उसकी असली माँ थी उसको शायद कभी भूल भी जाए लेकिन उसकी दूध पिलानेवाली माँ थी, उसको नहीं भूल पाती। यशोदानंदन ज्यादा हैं, देवकीनंदन कम हैं। उसी तरह से उसके दो बाप थे। असली बाप से बाद वाला बाप ज्यादा मशहूर है। रह गयी स्त्रियाँ और प्रेमिकाएँ, मैं उसका हिसाब तो नहीं लगाऊँगा। शहर भी उसके दो थे, और बाद वाली द्वारिका शायद मथुरा से कुछ ज्यादा ही हो गयी कुछ मामलों में। यह संकुचित करनेवाला जो अपनापन है, इससे हटकर जिसको हम पराया कहते हैं, उसको भी अपना बना लेने की इच्छा है, वह ऐसे श्लोकों से जागृत होती है। इसको ब्रह्मज्ञान कहते हैं। ब्रह्मज्ञान में जो चीज मुझे अच्छी लगती है, वह यह कि आदमी अपने संकुचित शरीर और मन से हट कर सब लोगों से अपनापन महसूस करे। यह है असली ब्रह्मज्ञान।
जहाँ एक जबरदस्त दर्शन इस रूप में आए कि आदमी अपने संकुचित अपनेपन को भुला कर पराये के साथ भी अपनापन महसूस करे, ममत्व हासिल करे तो वह बहुत बड़ी चीज है, लेकिन यह हो तब न? असलियत यह है कि ब्रह्मज्ञान भी इस संगीत के ढाँचे में ढल कर मधुर होने के बजाय या तो कड़ा और कठोर बन जाता है और या निष्प्राण बन जाता है। एक ब्रह्मज्ञान वह है जिसमें घंटे-आध घंटे के लिए तप करके या ध्यान करके, या साधना लगा करके ब्रह्मा को प्राप्त करने की कोशिश की जाती है। बाकी जो 23 घंटे रहते हैं उसमें उसका कुछ पता नहीं रहता। ऐसा ब्रह्मज्ञान किसी काम का नहीं होता। एक घंटे के लिए तो ब्रह्मा का खूब दर्शन कर लिया, बाकी 23 घंटे में अपनी जिंदगी, अपना व्यापार, अपना कामकाज ठीक उसी ढंग से चलाया कि जैसे कोई ब्रह्मा हो ही नहीं। फिर वह तो एक नकली जिंदगी हो जाती है।
(जारी)