लोहिया का गैर–कांग्रेसवाद
गैर-कांग्रेसवाद एक ऐसे नेता की कल्पना की उपज थी, जिसका निधन 12 अक्टूबर 1967 को सत्तावन वर्ष की अवस्था में हो गया, लेकिन जिसके सपने अभी भी जीवित हैं। डॉ. राममनोहर लोहिया ने ही इस विचार को आगे बढ़ाया कि सभी विपक्षी समूह एकसाथ आएँ और कांग्रेस का विकल्प दें।
अनेक कारणों से लोहिया के लिए यह आसान कार्य नहीं था। तब कांग्रेस ने अपनी नैतिक और राजनीतिक क्षमता पूरी तरह खोयी नहीं थी। विपक्षी दलों- कम्युनिस्ट पार्टियाँ, सोशलिस्ट पार्टियाँ अर्थात संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ- सबकी अपनी विचारधारा थी। उस समय दलों और उनके सहयोगी संगठनों द्वारा प्रायः एक होकर व्यवस्थित रूप से राजनीति के मूलभूत पाँच आयामों (चुनावी लड़ाई, वैचारिक कार्य, संगठनात्मक कार्य, लोकतांत्रिक संघर्ष एवं रचनात्मक प्रयोग) पर कार्य किये जाते थे। भारतीय राजनीति के आज के विद्यार्थियों के लिए यह कल्पना करना कठिन है कि कैसे उस समय के दल सिर्फ चुनावी मशीन नहीं थे, बल्कि उससे बहुत आगे की सोचते थे। इन विपक्षी समूहों का नेतृत्व अपनी विचारधारा के प्रति अत्यंत प्रतिबद्ध था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी अथवा जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का एक राजनीतिक मंच साझा करना लगभग नामुमकिन था। इससे उन्हें अपनी वैचारिक शुद्धता पर खतरा नजर आता था। यह लोहिया जैसे साहसिक बौद्धिक और वैचारिक रूप से विश्वसनीय व्यक्ति का कमाल था कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कैबिनेट में जनसंघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एकसाथ थे, जिनका नेतृत्व पहले कांग्रेसियों द्वारा किया गया था। लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी विभिन्न वैचारिक धाराओं के बीच सेतु का कार्य कर रहे थे।
लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के प्रति दो विरोधी दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण तो यह है कि यह सिर्फ एक रणनीतिक कदम था जिसे राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति के लिए उठाया गया और जो विचारधारा के विरोध में था। इस तरह सोचनेवालों का यह मानना है कि इस कदम से समाजवादी और कम्युनिस्ट विचारधारा कमजोर हुई तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-जनसंघ की विचारधारा को वैधता मिली। इस प्रयोग में हिस्सेदारी कर चुके अनेक समाजवादी और साम्यवादी मन ही मन इस बात पर विश्वास करते हैं अथवा खुले तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि यह एक ऐतिहासिक भूल थी और मार्क्सवादी वाम तथा गैर-मार्क्सवादी, वाम दोनों को इस तरह के अपवित्र गठबंधन में नहीं पड़ना चाहिए।
अपना विचार रखने के पहले मैं अपना निष्कर्ष बताना चाहता हूँ। जब हम लोहिया की वैचारिक यात्रा पर समग्र दृष्टि डालते हैं तो समझ में आता है कि इसका जुड़ाव गतिशील संदर्भों से है, न कि सिद्धांतों से। यहीं पर दो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं- पहला यह कि लोहिया की रणनीतिक दृष्टि में भी दार्शनिक मजबूती थी। यह बहुस्तरीय भारतीय समाज और विभिन्न वैचारिक उपधाराओं की सीमा की समझ के कारण उपजा था। इसीलिए उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सृजित ढाँचे में भारत के पुनर्निर्माण के लिए इसकी जरूरत महसूस हुई। दूसरा यह कि मेरे विचार से यदि आज लोहिया होते तो गैर-कांग्रेसवाद की जगह गैर-भाजपावाद का रणनीतिक कदम उठाते।
इस बात पर विचार करने के पहले कि क्यों आज की राष्ट्रीय नीति गैर-भाजपावाद की होनी चाहिए, मैं थोड़ा उन लोगों के नजरिये पर बात करना चाहूँगा जो गैर-कांग्रेसवाद को सिर्फ रणनीतिक और सत्ता-लोभी कदम के रूप में नहीं अपनाते। लोहिया भक्त प्रायः इस बात को नहीं समझते। जब हम डॉ. लोहिया और उनके उन सहयोगियों के भाषणों को गौर से पढ़ते हैं, जिन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का प्रचार किया तो एक बिल्कुल अलग दृश्य उभरता है। एक वाक्य में कहा जाए तो गैर-कांग्रेसवाद ‘कांग्रेस के मूल्यों’ या कहें स्वतंत्रता संघर्ष के मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा थी। बिना किसी अहंकार के लोहिया सभी पार्टियों को, उनकी सीमाओं को जानते हुए भी, एकसाथ लाने का प्रयास करते रहे। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के हिंदुत्व की समझ से पूरी तरह वाकिफ थे। स्वतंत्र पार्टी अधिकृत रूप से उदार मूल्यों को प्रतिबिंबित करती थी तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आर्थिक लोकतंत्र और सामाजिक न्याय को। उन्हें आशा थी कि जनसंघ के माध्यम से वे लिंग, जाति, धर्म और भाषाई विविधता की दृष्टि से हिंदुत्व में सुधार के विचार को तीव्र कर सकेंगे और भारत में बहुलतावादी तथा सामासिक अस्मिताओं को मजबूत कर सकेंगे और एक सीमा तक आत्मविश्वास पैदा कर सकेंगे जिससे समाज उत्पीड़ित मानसिकता से बाहर आ सके। वह न केवल उस समय की विपक्षी पार्टियों को राष्ट्र-निर्माण के उनके दावे के परिप्रेक्ष्य में एक कर रहे थे, बल्कि उसी समय उनके दृष्टिकोण में बुनियादी बदलाव के लिए भी प्रयासरत थे।
गाँधीजी के बाद डॉ.लोहिया संभवतः अकेले ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने सक्रिय राजनीतिक अभियान चलाया और काफी हद तक सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार के कई मुद्दों पर सफल रहे। हम सभी जानते हैं कि जब गांधीजी 1920 के बाद देश में हिंदू, मुस्लिम और अन्य समाजों को एक करने का प्रयास कर रहे थे तब कैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ धर्म के आधार पर विभाजन के लिए सक्रिय था। हिंदू धर्म में सुधार के बारे में गांधी और डॉ. लोहिया का विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एकदम उलट था।
लोहिया ने राम, कृष्ण, शिव, सीता और द्रौपदी जैसे मिथकीय चरित्रों की पुनर्व्याख्या की, उन्हें नया सांस्कृतिक अर्थ दिया, सौंदर्यशास्त्र और सौंदर्यबोध को पुनः परिभाषित किया, जाति व्यवस्था की बुनियाद को चुनौती दी, कृषक, कामगार समुदाय, अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित, अल्पसंख्यक एवं सभी जातियों की महिलाओं के लिए सकारात्मक नीति निर्माण के लिए कार्य किया। इस तरह उन्होंने देश में सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति का अभियान चलाया। उन्होंने ऊँची जातियों के आहत मनोविज्ञान को जिस तरह समझा वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के विचार से बिल्कुल विपरीत था। उन्होंने सीधे वैचारिक मुठभेड़ की और जाति व्यवस्था के पूरी तरह से उन्मूलन की वकालत की। उन्होंने कहा कि भविष्य में पराजय से बचने का यही तरीका है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू धर्म में विशेष रूप से महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में नैतिकता के विचार से जुड़े हुए लैंगिक, यौनिक मुद्दों पर बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है। उन्होंने हिंदू की आत्म परिभाषा को भी बदलने पर बल दिया। वह अपने को आधा हिंदू-आधा मुसलमान कहते थे।
अब मैं अपनी मूल बात पर आता हूँ। यदि लोहिया सिर्फ रणनीतिक गठबंधन करते तो वह असहमति वाले मुद्दों पर रणनीतिक चुप्पी भी साध लेते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह जिन बातों पर विश्वास करते थे, उसके लिए मुखर रहे और निरंतर अभियान चलाया। ऐसा उस समय भी किया जब वे गैर-कांग्रेसवाद के तहत दूसरी पार्टियों को साथ लाने का प्रयास कर रहे थे। आज के अवसरवादी गठबंधन का रूप अलग है। (उदाहरण के लिए 2002 में जब समता पार्टी के प्रवक्ता डॉ, शंभुशरण श्रीवास्तव ने गुजरात दंगों की आलोचना की तो उन्हें प्रवक्ता पद से ही किसी और ने नहीं बल्कि जॉर्ज फर्नांडीज ने हटा दिया।) जो लोग लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की तुलना आज के अवसरवादी गठजोड़ से करने का प्रयास करते हैं वे उनके गैर-कांग्रेसवाद की गलत व्याख्या करते हैं।
गैर-भाजपावाद क्यों
तेजी से वर्तमान की ओर बढ़ते हैं। मैं उन लोगों की चिंताओं पर बात करना चाहता हूँ जो शासन में भाजपा का विकल्प चाहते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व को कमजोर पाते हैं। राहुल पर्याप्त क्रांतिकारी नहीं हैं? लेकिन आज की बड़ी चुनौती मौजूदा सरकार के विनाशकारी कार्यों की गति को कम करना है। आज व्यापक रूप से कानून का मखौल उड़ाया जा रहा है, पूरी तरह अधिनायकवादी संस्कृति पनप रही है, संस्थाओं का क्षरण हो रहा है और ये विनाश के कगार पर हैं, व्यावसायिक नैतिकता का क्षरण हो रहा है, व्यवसाय को आसान करने के नाम पर छोटे एवं मझोले व्यवसाय को खत्म किया जा रहा है, जेएनयू जैसी प्रमुख संस्थाओं से ‘सकारात्मक कार्रवाई’(एफर्मेटिव एक्शन) की नीतियों का त्याग किया जा रहा है, स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार अपने उत्तरदायित्व को इस तरह से आउटसोर्स कर रही है कि सामान्य जन के स्वास्थ्य में सुधार की जगह दुनिया के धनी लोगों को इसका लाभ मिल रहा है, सरकारी नौकरियों को संविदा कार्य से प्रतिस्थापित किया जा रहा है। इस तरीके से सरकार की बहुत ज्यादा बचत नहीं हो रही है, केवल श्रमिक वर्ग न्यूनतम मानक सम्मानित जीवन जीने के अपने अधिकार से वंचित हो रहा है।
मौजूदा सरकार द्वारा जहाँ तक संभव है, मजबूत नियंत्रण से लोकतांत्रिक अधिकारों को सक्रिय रूप से कम किया जा रहा है और जहाँ तत्काल नियंत्रण संभव नहीं है, वहाँ इसे निंदित करते हुए नष्ट किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में कोई भी समाज आत्मसम्मान के साथ आगे नहीं बढ़ सकता है।
मोदी सक्रिय रूप से हमारे राष्ट्रनायकों, स्वतंत्रता संघर्ष और इससे भी ज्यादा वर्तमान सच्चाई के बारे में झूठ का प्रचार कर रहे हैं। जमीनी अस्मिताओं और सामासिक संस्कृति की अवहेलना तथा संभावी वैश्विक एवं राष्ट्रीय अस्मिताओं के नव उभार को हिंसक तरीके से दबाने को प्रेत्साहित करना उनकी फितरत है। वर्तमान समय को बहुत से लोग सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति का समय कहते हैं। भारत में संचार क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करनेवाले सैम पित्रोदा और उस समय के राजनीतिक नेतृत्व राजीव गाँधी के प्रति मोदी जिस तरह अनादर प्रकट करते हैं, वह अकथनीय है। आधुनिक ज्ञान आधारित समाज बनाने के लिए संचार क्रांति, सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति और अच्छे ज्ञान की उन्नति तथा इसके जन प्रसार के लिए एक प्रणाली की जरूरत है। इसके लिए विज्ञान की सभी शाखाओं में नवोन्मेष, नयी प्रौद्योगिकी का सृजन तथा प्रौद्योगिकी का समाज के साथ तालमेल आवश्यक है। दर्शन तथा समाज विज्ञान द्वारा उपलब्ध मानकों के प्रयोग से यह और जटिल हो जाता है।
हमारा वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व इन बातों को कितना समझता है, इसका आभास मोदी सरकार की शिक्षा मंत्री के भाषणों की तुलना स्वयं राजग के शिक्षा मंत्री रहे मुरली मनोहर जोशी के भाषणों से करने तथा इनका विश्लेषण करने से होता है। पहले प्रधानमंत्री नेहरू और पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद शिक्षा-संस्कृति-विज्ञान-प्रौद्योगिकी के उन्नयन के बारे में जिस तरह सोचते थे, वह तो मोदी और स्मृति ईरानी की सोच से ही परे है। यही कारण है कि वे इन राष्ट्र निर्माताओं के बारे में इस तरह बोलते हैं। ऐसा बोलकर वह न केवल राष्ट्र-निर्माण के प्रति अपनी खराब सोच का प्रदर्शन करते हैं बल्कि अपने अहंकार और आत्मविनाशक प्रवृत्ति को भी दिखाते हैं। लेकिन ये प्रवृत्तियाँ सभी देशभक्त लोगों के लिए चिंता का सबब बन गयी हैं।
मोदी जी ने युवा शिक्षुओं के मन के साथ खिलवाड़ किया है। उन्हें सरल तरीके से महज परीक्षा उत्तीर्ण करने का मंत्र देना, कथित रूप से किताबों को आसान बनाने के लिए कहना- कल्पना, जिज्ञासा, नवोन्मेष और उत्कृष्टता का अवमूल्यन है। राजनीतिक नेतृत्व द्वारा इस तरह का सरलीकरण बोध, अज्ञानता, दृष्टि संकीर्णता प्रकट करने तथा सत्य के प्रति अनादर भाव दिखाने से हमारी भावी पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। इन्हीं वजहों से आज गैर-भाजपावाद जरूरी है।
अंग्रेजी से अनुवाद : संजय गौतम
Shandaar Alekh..👍👌
Vijay Sahab, Very thanks. 😊🙏💐